पुष्कर युद्ध में मेड़तिया राठौड़ राजसिंहजी का बलिदान : लेखक हरीशचन्द्रसिंह आलनियावास
मुगल बादशाह औरंगजेब के समय शाही आज्ञानुसार मारवाड़ में जब मुगल सैनिकों द्वारा मंदिर एवं देवालय आदि ध्वस्त किए जाने लगे तब रियाँ ठाकुर प्रतापसिंहजी के पुत्र राजसिंह मेड़तिया ने प्रतिज्ञा की कि जब तक मारवाड़ में स्थित सब मस्जिदों को तोड़कर मुगलों को मार-मार कर न भगाऊँगा तब तक पलंग पर सोना छोड़ कर धरती पर लेदूँगा तथा अन्न का त्याग कर केवल दुग्धपान करूंगा। अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करने हेतु राजसिंहजी ने अपने पिता प्रतापसिंह गोपालदासोत एवं बाघसिंह चांदावत व मेड़तियों के साथ मेड़ता के लिये प्रस्थान किया। वहाँ मुगल फौजदार सार्दुल खाँ नियुक्त था मेड़तिया राठौड़ों ने मालकोट का घेराव किया पर अन्दर प्रवेश की राह नहीं निकली। तब जयसिंह चांदावत व मेड़तियों ने कोट के मुख्य द्वार पर कांटे एवं ईंधन एकत्रित कर उसमें आग लगा दी जिससे कोट के दरवाजे जल गए। कोट के अन्दर प्रवेश कर सार्दुल खाँ को कैद कर लिया। तत्पश्चात् राजसिंहजी आदि मेड़तिया राठौड़ों ने मेड़ता में भ्रमण कर वहाँ स्थित मस्जिदों को नष्ट किया व मुगलों को मार भगाया। ऐसे मेड़तिया राठौड़ों ने अगस्त 1679 में मुगलों को मेड़ता से खदेड़ कर वहाँ अपना अधिकार जमा लिया ।
औरंगजेब को जब यह विदित हुआ कि शाही अधिकारियों को निष्कासित कर न केवल जोधपुर अपितु मेड़ता व सिवाना पर भी राठौड़ों ने अधिकार कर लिया है, तो वह चिंतित हुआ । उसने जोधपुर पुनः हस्तगत करने हेतु सरबुलन्द खाँ के नेतृत्व में विशाल सेना गठित की। इधर अजमेर के सूबेदार तहब्बर खाँ को जब यह समाचार मिला तो उसने ससैन्य पुष्कर की ओर प्रस्थान किया। राजसिंह राठौड़ मेड़ता से आलनियावास आए। मेड़तिया और उदावत राठौड़ों ने परस्पर विचार-विमर्श कर तहब्बर खाँ का रास्ता रोककर पुष्कर को बचाने का निश्चय किया। राठौड़ आलनियावास में एकत्रित हुए और पुष्कर के लिये प्रस्थान किया ।
इतिहासकार बांकीदास के अनुसार राजसिंहजी मेड़तिया आलनियावास से रथ में बैठकर अपने भाई-बन्धुओं के साथ पुष्कर की ओर युद्ध करने हेतु चले । उदावत राठौड़ों ने अनुरोध किया कि हम सब राठौड़ अश्वारूढ हैं अतः अकेले आपको रथ में बैठना शोभा नहीं देता। आप भी घोड़े पर सवार होवें। इसमें हम सब राठौड़ों की गरिमा बनी रहेगी। राजसिंहजी ने उदावतों से निवेदन किया कि मैं उदर रोग से पीड़ित हूँ अतः मेरे लिये अश्वारूढ होना कष्टकर है। इस पर उदावत राठौड़ों ने मेड़तियों का साथ छोड़ दिया । अन्ततः राजसिंहजी रथ से उतरकर घोड़े पर आरूढ हुए एवं कहा, "तुर्कों को खत्म कर अपने स्वामी महाराज अजीतसिंहजी के लिये मस्तक चढाने का शुभ अवसर पुष्करराज ने मुझे एवं मेरे भाइयों को ही दिया है। पुष्करराज ! मेरी प्रबल इच्छा है, आपके पवित्र जल के दर्शन कर इसकी पवित्रता की रक्षा हेतु प्राण उत्सर्ग करूं।
मेड़तिया राठौड़ वाहिनी पुष्कर पहुँची एवं 21 अगस्त, 1679 को पुष्कर के बारह जी के मंदिर के आगे शत्रु सेना से मुकाबला किया। तीन रोज तक घमासान युद्ध हुआ। तीरों, बन्दूकों से लड़ते-लड़ते तलवार, बछ एवं कटारी की नौबत आ गई और दोनों तरफ लाशों के ढेर लग गये। मेड़तिया राठौड़ों ने इस युद्ध में अद्भुत वीरता का परिचय दिया एवं शत्रुओं का संहार करते हुए पुष्करराज की रक्षा की।
इस युद्ध में राजसिंहजी पुत्र प्रतापसिंहजी; राठौड़ अचलदास राठौड़ गोकुलदासजी पुत्र प्रतापसिंहजी ; रूपसिंहजी पुत्र प्रतापसिंहजी; रामसिंहजी; हिम्मतसिंहजी उर्फ अरीसिंहजी (प्रतापसिंहजी के पौत्र व गोकुलदासजी के पुत्र, इनके वंशजों को नैणियाँ ठिकाना जागीर में मिला; सुन्दरदासजी, जगतसिंहजी पुत्र रामचन्द्रसिंहजी; चतुरसिंहजी ( जगतसिंह के भाई); केसरीसिंह आदि प्रमुख राठौड़ों ने वीरगति पाई ।
: दोहा :
राजड़, अचलो, गोकलो रूपो सरसर ढाल ।
रामो, हिम्मतो, सुन्दरो, बलबत जोधा बाल ।
एक अन्य दोहे में राजसिंहजी का महत्त्व बताया है-
सूजा जिसो नहीं कोई शेखो।
राजड़ जिसो नहीं कोई राठौड़।
