हम्मीर देव चौहान का व्यक्तित्व : History of Hammir Dev Chauhan of Ranthambhore

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Hammir Dev Chauhan of Ranthambhore History in Hindi

सम्राट पृथ्वीराज के बाद हम्मीर ने अपने दिग्विजय अभियान से एक फिर चौहान शक्ति की भारत में धाक जमा दी थी. अपने शौर्य, वीरता, साहस के बल पर हम्मीर ने अपनी ख्याति दूर दूर तक बढ़ा ली थी. हम्मीर ब्राह्मणों का पोषक और धर्म-सहिष्णु था। उसमें विद्वानों के प्रति बड़ी श्रद्धा थी। विजयादित्य उसके समय का राज्य सम्मानित कवि था और राघवदेव उसका गुरु था। उसमें असीम उदारता और विचारों की दृढ़ता थी। उसके बारे में प्रसिद्ध है कि "तिरिया-तेल हम्मीर-हठ चढ़े न दूजी बार।" इस कथन के अनुरूप उसने शरणार्थी की रक्षा के लिए राज्य और जीवन का त्यागकर इस कथन का अन्त तक आचरण कर मानवीय गुणों की उत्कृष्टता का परिचय दिया।

बेशक हम हम्मीर के गुणों, व उसके द्वारा क्षात्रधर्म के उच्च आदर्शों का पालन करने की प्रशंसा करते हैं वहाँ हम उसकी भूलों की भी उपेक्षा नहीं कर सकते। उसने अपने पड़ोसी राज्यों से युद्ध छेड़कर और उनके धन के अपहरण कर अपने शत्रुओं की संख्या बढ़ा ली। जबकि उसे अपना दिग्विजय अभियान राजपूत राजाओं के खिलाफ ना चलाकर उन्हें संगठित कर अपने सबसे बड़े शत्रु अलाउद्दीन के विरुद्ध संगठन खड़ा करना चाहिए था पर अफ़सोस उसने ऐसा करने की कोई चेष्टा न की। भीम सिंह की शहादत के बाद हम्मीर ने बिना दूरगामी सोच के अपने मंत्री धर्मसिंह को अँधा कर जेल में डालना और भोज को मंत्री देना भी कोई समझदारी वाला कार्य नहीं था. इतना ही भोज द्वारा मंत्रिपद सही ढंग से नहीं संभाल पाने के बाद उपजी अराजकता का लाभ उठाते धर्मसिंह एक नर्तकी के माध्यम से हम्मीर को अपने झांसे में लेकर पुन: मंत्री बनने में कामयाब रहा साथ ही रतिपाल को सेनाध्यक्ष बनवाने में भी कामयाब रहा. जबकि हम्मीर को अपने हाथों अपमानित हुए और सजा पाए धर्मसिंह पर इतना भरोसा नहीं करना चाहिये था. उसके इस कार्य ने जहाँ रणथम्भौर में आपसी फूट के बीज बो दिए वहीं रणथम्भौर की जनता को इन गद्दारों के हवाले कर दिया. बदले की आग में झुलस रहे धर्मसिंह ने पुन: मंत्री बनने के बाद ऐसे कुकृत्य किये जिनकी परिणिति जनता के मन में हम्मीर के प्रति असंतोष के रूप में हुई.   

इन कमियों के होते हुए भी आज हम्मीर को लोग श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं, क्योंकि उसने पैतृक राज्य के लिए व शरणागत की रक्षा के लिए तुर्को से कई बार टक्कर ली और उसके फूलस्वरूप वह वीरोचित गति को प्राप्त हुआ। क्षात्रधर्म के नियम व परम्पराओं का कठोरता से पालन करने वाले हम्मीरदेव चौहान पर  देश के कई मूर्धन्य इतिहासकारों ने इन शब्दों में अपने विचार व्यक्त किये-

-    डॉ. दशरथ शर्मा के अनुसार हमीर वीर तथा मित्रों के प्रति सच्चा था, हिन्दुत्व का रक्षक तथा शौर्य एवं राजपूती स्वाभिमान को मानने वाला था। उसने एक ऐसा नाम छोड़ा है जो उसके देशवासियों के हृदय में त्याग, सम्मान और वचन प्रतिबद्धता के महान गुण जागृत करता है।

-    डा. दशरथ शर्मा लिखते हैं कि "यदि उसमें कोई दोष भी थे तो वे उसके वीरोचित युद्ध, वंश की प्रतिष्ठा की रक्षा तथा मंगोल शरणागतों की रक्षा के सामने नगण्य हो जाते हैं।" (But the admiration for the gallant fight he put up in the defence of his kingdom, the honour of his family and the protection of the neo-Muslim chiefs who had taken refuge with him generally puts all these into the background.oOr. Dashrath Sharma, The Early Chauhan Dynasties, p. 115.)

-    इस घटना में दो विषय बड़े रोचक हैं। सबसे बड़ी बात इस सम्बन्ध में यह है कि हम्मीर ने अपने सर्वतोन्मुखी नाश के अपने शरणागतों की रक्षा को सबसे अधिक मूल्यवान समझा। दूसरी बड़ी बात यह है कि जिन शरणार्थियों के लिए हम्मीर ने अपना सर्वनाश का आह्वान किया था उन्होने भी अपने प्राणों को अपने स्वामी के लिए न्यौछावर कर दिया। मुहम्मद ने अन्त समय तक अपने रक्षक के वंश के अभ्युदय की कामना की जो बड़े महत्त्व की है। इस सम्पूर्ण कथा में स्वामिभक्ति और शरणागत-वात्सल्य के आदर्श उच्चकोटि के हैं। (डा. गोपीनाथ शर्मा, ऐतिहासिक निबन्ध, राजस्थान, पृ. 76, राजस्थान का इतिहास; पृ.146)

-    डा. गोपीनाथ शर्मा सहित कई इतिहासकारों हम्मीर की शरणार्थियों के प्रति उदारता के सम्बन्ध में अपनायी गयी नीति में दूरदर्शिता का अभाव मानते है। इतिहासकार विश्लेषण करते हुए लिखते है कि “यदि हम्मीर ने इन मंगोलों को, जो खलजी खेमे के बागी थे, शरण न दी होती तो अलाउद्दीन का वह कोपभाजन न बनता और रणथम्भौर के चौहानों के दुर्दिन न आते । सम्भवतः इस वंश का जीवन कुछ समय आगे बढ़ सकता था।“ परन्तु हम इस बात को नहीं भूल सकते कि अलाउद्दीन द्वारा रणथम्भौर के आक्रमण में मंगोलों को शरण देना मुख्य कारण नहीं था। यह तो एक बहाना था जिसको लेकर खलजी आक्रमण की न्यायसंगतता बतायी गयी थी। वास्तव में, दक्षिण प्रदेशों पर खलजियों का राजनीतिक प्रभाव बनाये रखने के लिए राजस्थान के दुर्गों पर अधिकार करना आवश्यक था। यदि मंगोल अलाउद्दीन के खेमे को छोड़ हम्मीर को शरण में न आये होते तो भी रणथम्भौर के आक्रमण को टाला नहीं जा सकता था। हम्मीर का उन्हें शरण देना कोई राजनीतिक भूल न थी, वरन् एक कर्तव्यपरायणता थी व भारतीय संस्कृति के अनुरूप क्षात्रधर्म पालन के उच्च आदर्शों का प्रतीक थी.

-    हम्मीर की मृत्यु के बाद चौहानों की रणथम्भौर की शाखा समाप्त हो गयी । राजस्थान के इतिहास में हम्मीर का सम्मान एक वीर योद्धा के रूप में ही नहीं है वरन् एक उदार शासक के रूप में है। वह शिव, विष्णु और महावीर के प्रति समान भाव से श्रद्धा रखता था। उसने कोटियज्ञ के सम्पादन के द्वारा अपनी धर्मनिष्ठा का परिचय दिया जिससे उसे एक स्थायी प्रतिष्ठा प्राप्त हुई . “With the death of Hamir the glory of the Chauhan of the Ranthambhor also came to an end. In the annals of Rajasthan Hamir is not only remembered for his valour in war but also for his policy of toleration towards different sects........ ”. —(A Comprehensive History of India, Vol. V., a Chapter on Rajasthan by Dr. G. N. Sharma, pp. 829-30)

-    हे हम्मीर महीपति ! हे राजाओं के भाल के तिलक. आज तुम्हारे स्वर्ग चले जाने पर धर्म ने अपनी प्रसन्नता त्याग दी, करुणा वन की शरण में चली गई, उदारता नष्ट हो गई, वीरों की प्रतिज्ञाएँ बालकों का खेल बन गई, राजनीति भयभीत हो गई और लक्ष्मी विधवा हो गई. ( हम्मीर महाकाव्य; संपादन- मुकेश शर्मा IAS, चतुर्दश सर्ग, श्लो.2, पृ.169)

-    हे निर्मल बुद्धि वाले हम्मीर राज ! अब ब्राह्मणों को कौन स्वर्ण के ढेर के ढेर दान में देकर पूजित करेगा? कौन छ: दर्शनों की पद सहित उपासना करेगा? क्रोध के कारण शक समूहों के द्वारा मारी जाती हुई गायों के समूह की कौन रक्षा करेगा और हमारी क्या हालत होगी? ( हम्मीर महाकाव्य; संपादन- मुकेश शर्मा IAS, चतुर्दश सर्ग, श्लो.3, पृ.169)  

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