हम्मीरदेव चौहान : History of Hammir Dev Chauhan of Ranthambhore

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History of Hammir Dev Chauhan of Ranthambhore 

राजस्थान की वीर प्रसूता भूमि में जन्म लेने वाले वीरों की श्रंखला में भारत के अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान, तृतीय की वंश परम्परा में रणथम्भोर में शासक जैत्रसिंह के घर उनके दो पुत्रों के बाद तीसरे पुत्र ने जन्म लिया. जैत्रसिंह के इसी तीसरे नरपुंगव पुत्र हम्मीरदेव के बारे में इतिहास में यह दोहा प्रसिद्ध है-

“सिंह गमन, सत्पुरुष, कदली फले इकबार.

त्रिया तेल हम्मीर हट चढ़े न दूजी बार”

1192 के तराईन के युद्ध के बाद पृथ्वीराज के पुत्र गोविन्दराज ने 1194 में रणथम्भौर के पर्वतीय आँचल में अपना एक पृथक राज्य स्थापित कर लिया था. जिसे आगे के चौहान शासकों ने सुसंगठित किया. गोविन्दराज से हम्मीर के बीच के समय के शासकों ने अपने पुरुषार्थ के बल पर रणथम्भौर की कीर्ति पताका दूर-दूर तक फहरा दी थी. भारतीय द्वारा संस्कृत, प्राकृत, हिंदी, गुजराती व राजस्थानी भाषाओँ में रचित काव्य रचनाओं के अलावा मुस्लिम इतिहासकार द्वारा इस नरपुंगव की वीरता, शौर्य, सहस, भारतीय संस्कृति के रक्षक, क्षात्र धर्म के कठोर नियमों का पालनकर्ता, स्वतंत्रता-प्रियता, आन-बान वाला महान योद्धा के तेजस्वी व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला गया है. राजस्थान की त्याग और बलिदानी परम्परा को निभाने वाला “हठी हम्मीर” के नाम से इतिहास में विख्यात हम्मीरदेव पर सर्वप्रथम उसके लगभग सौ वर्ष बाद नयनचन्द्रसुरि ने “हम्मीर-महाकाव्य” की रचना की. “हम्मीर देव की प्रशस्ति में नयनचंद्रमुनि (नयनचन्द्रसुरि) ने सन 1400 के आस-पास हम्मीर-महाकाव्य लिखा. नयनचन्द्रसुरि को यह “काव्य रचने की प्रेरणा, ग्वालियर के तोमर –वंशीय नृप वीरम की राज-सभा के कुछ विद्वानों के कथन को सुनकर हुई थी.” (हम्मीर-महाकाव्य (हिंदी अनुवाद); पृ.28, लेखक-मुकेश शर्मा IAS) नयनचन्द्र उत्तम कोटि के कवि व उत्कृष्ट विद्वान थे थे, जो हम्मीर-महाकाव्य के अध्ययन से सुनिश्चित है, साथ ही वे प्रमाणशास्त्र अर्थात न्यायशास्त्र के भी उत्तम पंडित थे और कई प्रकार के अवधान-प्रयोग करने में भी बड़े निपुण एवं प्रतिभाशाली समझे जाते थे.

हम्मीर देव का राज्याभिषेक वि.सं. 1339 की पौष शुक्ला पूर्णिमा के शुभ मुहूर्त में उनके पिता की उपस्थिति में हुआ था. रावल जैत्र सिंह ने हम्मीर को तीसरा पुत्र होने के बावजूद उसकी योग्यता, वीरता, सहस व शौर्यपूर्ण गुणों को देखते हुए अपने जीवनकाल में ही राजगद्दी पर बिठा दिया था. इस संबंध में राजेन्द्र सिंह, बिदासर अपनी पुस्तक “राजपूतों की गौरवगाथा” के पृ.143 पर लिखते है- रावल जैत्रसिंह एक असाध्य रोग के कारण अपनी मृत्यु निकट जानकर युवराज हम्मीर का राज्याभिषेक करना चाहते थे। परन्तु हम्मीर ज्येष्ठ कुंवर नहीं थे अतः उन्होंने राज्य लेने से मनाकर दिया। रावल ने भगवान विष्णु की आज्ञा बताकर उन्हें राज्य के लिए मनाया।“

हम्मीरदेव ने सिंहासन पर आरूढ़ होते ही अपनी सैन्य शक्ति को बढाया और उस काल दिल्ली की गद्दी पर अयोग्य शासन के कारण उपजी अराजकता और कमजोर स्थिति का फायदा उठाते हुए अपने राज्य के विस्तार हेतु दिग्विजय अभियान की शुरुआत की. इस अभियान में हम्मीर ने “सर्वप्रथम अर्जुन नामक भीमरस के शासक को परास्त किया और मांडलगढ़ से कर वसूलने की व्यवस्था की. यहाँ से उसने दक्षिण में प्रयाण किया. इस प्रयाण के अवसर पर परमार शासक भोज को परास्त किया. तदन्तर वह उत्तर की ओर चितौड़, आबू, वर्धनपुर (कठियावाड़), पुष्कर, चम्पा होता हुआ स्वदेश लौटा. इस अभियान में त्रिभुवनगिरि के शासक ने उसकी अधीनता स्वीकार की थी. इस वृहद् दिग्विजय के बाद समय समय पर वह अपनी विजय फौजों को आस-पास के भागों में भेजता रहता था जिनमे मुख्य मालवा था. यहाँ से उसे हाथी, धन और जन प्राप्त होते थे.” (राजस्थान का इतिहास; डा. गोपीनाथ शर्मा, पृ.143). शिवपुर जिला (ग्वालियर में), बलवान (कोटा राज्य) शाकम्भरी आदि राज्य अपने में शामिल किये. मेवाड़ के शासक समरसिंह को परास्त किया. आबू के शासक प्रताप सिंह जो गुजरात के सारंगदेव बाघेला का सामंत था को दबाया. चौहानों की प्राचीन राजधानी साम्भर होते हुए उसने मारोठ के गौड़ राजपूत शासकों पर विजय हासिल की. अपने इस अभियान में हम्मीरदेव ने उपरोक्त कई राजाओं को हराया, किसी का राज्य अपने राज्य में मिलाया तो किसी को अपने अधीन कर कर, नजराना वसूल किया. इस तरह हम्मीरदेव ने अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार करने के साथ विपुल धनराशी भी संग्रह की. हम्मीर ने इस विरोचित्त कार्य से दूर-दूर तक अपना प्रभाव बढ़ा कर ख्याति अर्जित की। “दिग्विजय के बाद हम्मीर ने वि.सं. 1345 ई. सन 1288 में अपने कुल पुरोहित विश्वरूपा की देख रेख ने कोटि यज्ञ किया. (सम्राट पृथ्वीराज चौहान; लेखक देवीसिंह मंडावा, पृ.102). “पुरोहित विश्वरूप से कोटि-यज्ञ का फल सुनकर उसने कोटियज्ञ करने का निश्चय किया. विधिपूर्वक यज्ञ सम्पन्न कर उस ने ब्राह्मणों को प्रभूत हिरणयमयादि दक्षिणा दी और एक महीने का मुनिव्रत लिया.” (52-90) (हम्मीर महाकाव्य; पृ.6 पर दशरथ शर्मा). कोटि यज्ञ के बाद हम्मीर ने उज्जैन में उसने शिप्रा में स्नान किया और महाकाल मन्दिर में दर्शन किए। इसी प्रकार आबू में तीर्थों का अवगाहन किया। हम्मीर ने ब्राह्मणों को विपुल दान दिया और गौ-सेवा की। भारत भर से उन्होंने ब्राह्मणों को बुलाया तथा रणथम्भौर में भव्य निर्माण कराए।

क्रमशः.......................

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