जयपुर के राजा सवाई जयसिंह द्वारा बादशाह मुहम्मदशाह के समय जाट बदनसिंह को अपने अधीन कर उसे भरतपुर की जागीर दी गई। बदनसिंह ने सवाई जयसिंह का बड़ा उपकार माना तब से बदनसिंह प्रतिवर्ष दशहरा के दिन जयपुर के राजा के दरबार में हाजिर होता था और उसके बाद भरतपुर के राजा सूरजमल ने अपने राज्य को काफी बढाया। परन्तु वह भी वह भी राजा जयपुर का वफादार बना रहा। वि० 1805 के बगरू के युद्ध में वह जयपुर राजा ईश्वरी सिंह के पक्ष में लड़ा।' सूरजमल ने अपने पुत्र नाहरमल (नाहरसिंह) को अपना उत्तराधिकारी चुना परन्तु उसका छोटा भाई जवाहरमल (जवाहरसिंह) शक्तिशाली निकला और भरतपुर का राजा बन बैठा। नाहरमल ने अपना राज्य प्राप्त करने के लिए प्रयास किया। उसने मरहठों की सहायता लेकर जवाहरमल से लड़ाई भी की परन्तु उसे सफलता नहीं मिली। नाहरमल भागकर जयपुर महाराज माधोसिंह के पास आ गया। वहां उसने विष खाकर आत्महत्या कर ली।
जवाहरमल जिसमें नीति व बुद्धि का अभाव था। वह अपने को ही महत्वपूर्ण मानता था। उसने जयपुर के राजा माधो सिंह से नाहरमल की रूपवती स्त्री की मांग की परन्तु माधोसिंह ने इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया तब उसने सोचा कि जयपुर की ओर से उसे सम्मान नहीं मिलेगा क्योंकि जयपुर की ओर से भरतपुर के राजा को जो सम्मान मिलता था उससे वह संतुष्ट नहीं था। इस कारण वह अपने सम्मान पाने का रास्ता और कहीं ढूंढ रहा था।
इन्हीं दिनों राजस्थान पर मरहठों का बडा आतंक था। जवाहरमल चाहता था कि राजस्थान के राजाओं के साथ मिलकर वह मराठों को दक्षिण की ओर खदेड़ दे तो वह उत्तर भारत में अपने राज्य का विस्तार कर सकता है। इस संदर्भ में जयपुर की ओर से उसे सम्मान की उम्मीद नहीं थी। अतः उसने जोधपुर के राजा विजयसिंह से पुष्कर में मिलकर बातचीत करना तय किया। यद्यपि जवाहरमल व विजयसिंह ने महाराजा माधोसिंह को इस गुप्त मंत्रणा में आमंत्रित किया परन्तु माधोसिंह ने इस प्रस्ताव को यह कहकर रद्द कर दिया कि मैं एक काश्तकार की हैसियत वाले भरतपुर से इस संदर्भ में बातचीत नहीं करना चाहता। इस प्रकार जयपुर व भरतपुर के संबंध अच्छे नहीं थे।
जवाहरमल ने इस समय अपनी सेना को काफी मजबूत कर लिया था। उसे यूरोपियन समरू व रानेमेड़ाके से अपनी सेना को प्रशिक्षण दिलवाया था। उसने एक बड़ी सेना अपने साथ लेकर महाराजा जयपुर की बिना अनुमति से उसके राज्य में से होकर आगे बढा और 6 नव. 1767 को पुष्कर पहुंचा। वहां वह विजयसिंह से मिला। दोनों पगड़ी बदल भाई बने। वहां दोनों ने बातचीत की। विजयसिंह द्वारा जाट राजा के साथ इस प्रकार का व्यवहार करने से माधोसिंह विजयसिंह से भी नाराज हुए। इस समय जवाहरमल के साथ साठ हजार घुड़सवार, एक लाख पैदल व एक हजार तोपें थीं। यदि वह केवल विजयसिंह से मिलने या तीर्थ करने के इरादे से पुष्कर जाता तो इतनी बड़ी भारी सेना की आवश्यकता नहीं थी, पर उसके जब वह १ इरादे अच्छे नहीं थे। पुष्कर से चला तो महाराजा जयपुर ने अपने राज्य से होकर जाने के लिए मना किया तब जोधपुर राजा विजयसिंह ने जाट राजा को निकल जाने के लिए माधोसिह से कहा पर माधोसिंह की बिना स्वीकृति के जवाहरमल जयपुर के गांवों को लूटता हुआ चला तब माधोसिंह ने उसे बाहर निकालने के लिए दो कायस्थों हरसाय व गुरसहाय के नेतृत्व में सेना भेजी। जवाहरमल रींगस, श्रीमाधोपुर होता हुआ आगे बढा। इधर से जयपुर की फौज चौमू, निवाना होती हुई मांवडा के पास पहुंचकर जाट सेना को रोका। जवाहरमल की सेना के साथ इस समय योग्य कमाण्डर समरू और रानेमेडाके थे। जयपुर के बक्शी दलेलसिंह राजावत की सेना भी वहां आ पहुंची।
नवलसिंह व बुद्ध सिंह सीकर के नेतृत्व में शेखावतों की सेना भी पहुंच चुकी थी। जयपुर की सारी सेना पांच भागों में विभक्त थी। जिसका नेतृत्व हरसाय, गुरसहाय, दलेलसिंह, राजावत, नवलसिंह नवलगढ व बुद्धसिंह सीकर कर रहे थे। जाट सेना में समरू ने अपना तोपखाना जमाया। दोनों ओर की सेनाएं पोह वदि 9 वि.सं. 1824 तदनुसार 14 दिसंबर 1767 को मांवडा मढौली के पास के विस्तृत मैदान में भिड़ पड़ी। यह मैदान मंढोली गांव से करीब 1 कि.मी. व मावण्डा से भी करीब 1 कि.मी. की दूरी पर है नारनोल से उ0 प0 में 35 कि. मी. की दूरी पर तथा रींगस से उ0पू0 में 50 कि.मी. की दूरी पर अरावली श्रृंखलाओं के मध्य स्थित है। प्रतापसिंह नरूका जो पहले जाट सेना में था अब जयपुर के साथ हो गया था। युद्ध के प्रारम्भ में राजपूत घुड़सवारों ने जाट सेना पर आक्रमण कर दिया। इस पहले आक्रमण को जाट सेना ने आक्रमण कर विफल कर दिया पर जयपुर की पैदल सेना और तोपखाना जाट सेना के पीछे था। जाट सेना ने बच निकलने की उम्मीद से इसका फायदा उठाया लेकिन राजपूत घुड़सवारों ने उनको निकलने नहीं दिया और रोक लिया। अतः जाट सेना पीछे मुड़ी और दोनों के मध्य लड़ाई हुई। जाट सेना ने बन्दूकों से फायर किये। राजपूत बन्दूकों की मार को दृढता से झेलते रहे और अंत में हाथों में तलवारें लेकर जाट सेना पर टूट पड़े। जाट सेना तलवारों की मार सहन न कर सकी और भाग पड़ी। उनका तोपखाना और सामान लड़ाई के मैदान में ही पड़ा रहा। इसी बीच समरू (सोबरू) और राने मेड़ाके की प्रशिक्षित बटालियनों ने बड़ी बहादुरी और शक्ति के साथ चट्टान की तरह अटल रहकर रात होने तक लड़ाई जारी रखी। (Downfall of Mughal Empire vol. 2- Jadhunath Sarkar)
युद्ध में दोनों ओर का भारी नुकसान हुआ। जाट सेना के काफी सैनिक युद्ध के मैदान में काम आये। जाट सेना की ओर से माधोदास मेड़तिया व सूरतसिंह राठौड़ भी काम आये। जवाहरमल (जवाहरसिंह) को यूरोपियन सेना ने बड़ी मुश्किल से बचाया। भागती हुई जाट सेना के सामान को जयपुर की सेना ने लूटा। उनकी तोपों को राजपूत सैनिक ले आये। आज भी शेखावाटी के कई गढों में पड़ी इस युद्ध की याद दिलाती हैं। राजपूत सेना का इस युद्ध में काफी नुकसान हुआ। जयपुर के ठिकानों में शायद ही ऐसा कोई ठिकाना हो जिसके कोई व्यक्ति इस युद्ध में काम न आया हो। धूलाराव दलेलसिंह अपने पुत्र लक्ष्मण सिंह तथा अपने पौत्र सहित इस युद्ध में काम आये। जयपुर के दीवान और बक्शी हरसहाय गुरसहाय दोनों कायस्थ युद्ध के मैदान में सो गये। पचाहर का स्वामी गुमान सिंह अदभुत वीरता दिखाते हुए सिर कटने पर भी लड़े। धानूता का शिवदास सिंह शेखावत ने रणभूमि में ऐसी तलवार चलाई कि शत्रु कंपित हो गया। अन्त में यह वीर भी रणभूमि में काम आया। '
शिवसिंह सीकर के पुत्र बुद्ध सिंह अपने 45 सैनिकों के साथ युद्ध में शमिल हुए। इस युद्ध इन्होंने में वीरगति पाई।' महार के कुंभावत दलसिंह व उम्मेदसिंह ने शत्रु से जूझते हुए अपने प्राणों की आहुति दी।' मुण्डरू के रघुनाथ सिंह (हरिरामजी का शेखावत) रण में डटकर लड़े और वीरगति को प्राप्त हुए।
इनके अलावा चैनसिंह लसाड्या, घासीराम जी, नाहरसिंह नाथावत इटावा, चैनसिंह गुहाला, हुक्मसिंह लाड़खानी बिड़ोली जैसे कितने ही योद्धा रणभूमि में सो गये। इस युद्ध में इनके अतिरिक्त जिन वीरों ने तलवारें चलाई उनमें सालिमसिंह व मालम सिंह टाई (पिता-पुत्र) गजसिह केड, भावसिंह लसाड्या, उग्रसिंह के पुत्र थानसिंह मुण्डरू, मानसिंह व सेसमसिंह खेजडोली उग्रसेनजी का, मंढा के महासिंह सुरतानोत, भवानीसिंह दांता आदि कितने ही वीरों ने शत्रु से युद्ध किया। नवलसिंह नवलगढ युद्ध में लड़े पर तोपों की मार के भय से अपने को छिपाया।
इस प्रकार इस युद्ध में जयपुर की सेना के कितने ही राजावत, शेखावत, सुरतानोत, नाथावत कुंभावत आदि रणभूमि में काम आये और कितने ही घायल इस जाट हुए पर अहंकारी जाट राजा को युद्ध भूमि छोड़कर भाग जाना पड़ा। राजा को दूसरी बार फरवरी 1768 में भी जयपुर से हारना पड़ा। अपने पांच साल के शासनकाल में इसने एक ओर अपने राज्य को आर्थिक संकट मे ला खड़ा किया तो दूसरी ओर अपनी राजनैतिक शक्ति को भी खो दिया।
रण में वीरगति पाने वाले वीरों में दलेलसिंह राजावत, हरसहाय, गुरूसहाय कायस्थ आदि की स्मृति में मांवडा रणभूमि में बनी छतरियां आज भी खड़ी उन वीरों की याद दिलाती हैं। बुद्ध सिंह सीकर की छतरी कटराथल व
दलेलसिंह, उम्मेदसिंह कुंभावत की देवलियां महार में हैं।
पुस्तक सन्दर्भ : "शेखावाटी प्रदेश का राजनीतिक इतिहास" लेखक - ठाकुर रघुनाथ सिंह कालीपहाड़ी : पृष्ठ संख्या - 662 से साभार