Maha Kali Mata History : गौड़ वंश की कुलदेवी महाकाली माता

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महाकाली माता का स्मरण होते ही मन मस्तिष्क के दृश्यपटल पर शव पर आरूढ़, तीक्षण दृष्टा, शत्रु संहार करने वाले योद्धा के रूप में, शत्रु पक्ष को नष्ट करते समय का अट्टहास, भयावह स्वरूप, एक हाथ में खड़ग, एक में नरमुंड, एक में अभयमुद्रा तो एक हाथ में वर, गले में मुंडमाला, शमशान सा दृश्य स्वरूप वाली छवि स्वतः उभर आती है। प्राचीन काल से शक्ति की उपासना की प्रतीक महाकाली की हिन्दू कोष में तीन स्वरूपों की व्याख्या की गई है। इन तीन स्वरूपों काली, भद्रकाली एवं कालिका स्वरूप वाली माता भगवती महाशक्ति विद्या रूप में मुक्ति और अविद्या रूप में प्राणियों के मोह के कारण विद्यमान है। 

पुराणों के अनुसार, पिता दक्ष के यज्ञ के दौरान अपमानित हुई सती ने योग बल से अपने प्राण त्याग दिए थे। सती की मृत्यु से व्यथित भगवान शिव उनके मृत शरीर को लेकर तांडव करते हुए ब्रह्मांड में भटकते रहे। माता के अंग जहां-जहां गिरे, वहीं शक्तिपीठ बन गये। कालिकापुराण के अनुसार- “एक बार देवताओं ने महामाया को प्रसन्न करने के लिए हिमालय पर स्थित मतडग मुनि के आश्रम में जाकर महामाया की स्तुति की। स्तुति से प्रसन्न होकर भगवती ने मतडगबनिता की मूर्ति बनकर देवताओं को दर्शन दिया और पूछा कि तुम लोग किसकी स्तुति कर रहे हो। उसी वक्त भगवती के श्री विग्रह से काले पहाड़ के समान वर्णावाली दिव्य नारी का प्राकट्î हुआ और उन्होंने स्वयं ही देवताओं की ओर से उत्तर दिया कि ये देवता उसकी ही स्तुति कर रहे है। शुम्भ और निशुम्भ नामक दो असुर देवताओं को पीड़ित कर रहे है अतः उनके वध हेतु देवतागण मेरी स्तुति कर रहे है। वह काजल समान होने से काली कहलाई। इसी काली कलिका को ऋषि लोग उग्रतारा कहते है। क्योंकि वह भय से सदा भक्तों का त्राण करती है। कालिका जगत की माता शोक दुःख विनाशिनी और काल में महापातक नाशिनी है। कालिका जगतां माता दुःख विनाशनी है। विशेषतः कलियुगे महापातक हारिणी। कलियुग में काली और सर्पणी जागती रहती है, काली कृष्ण इस युग में प्रशस्त है, अतः इनकी पूजा श्रेयस्कर है।1 

गौड़ क्षत्रिय राजवंश शक्ति की प्रतीक महाकाली के उपासक रहे हैं। काली कलिका, महाकालिका का समिश्रित रूप महाकाली को गौड़ क्षत्रिय अपनी कुलदेवी मानते है। विद्या स्वरूपा महाकाली के राजस्थान के अनेक दर्शनीय मंदिरों में सिरोही स्थित देवी का मंदिर विशेष आस्था का केंद्र रहा है। महाराव अखैराज द्वारा निर्मित कालका जलाशय के किनारे स्थित इस मंदिर में जो प्रतिमा प्रतिष्ठित है वह सिरोही नरेश महाराव लाखा पावागढ़ (गुजरात) से लाये थे। विशाल वट वृक्ष के नीचे स्थित इस मंदिर के पास मीठे पानी की बावड़ी विद्यमान है तथा पास ही दुर्जनेश्वर महादेव का प्राचीन मंदिर है। पावागढ़ का पौराणिक और ऐतिहासिक महत्व है। बताया जाता है कि यह मंदिर अयोध्या के राजा भगवान श्री रामचंद्रजी के समय का है। इस मंदिर को एक जमाने में शत्रुंजय मंदिर कहा जाता था। माघ महीने के शुक्ल पक्ष में यहां मेला लगता है।

मान्यता है कि भगवान राम, उनके बेटे लव और कुश के अलावा बहुत से बौद्ध भिक्षुओं ने यहां मोक्ष प्राप्त किया था। माना जाता है कि सती के दाहिने पैर का अंगूठा गिरने के कारण इस जगह का नाम पावागढ़ हुआ। इसीलिए यह स्थल बेहद पूजनीय और पवित्र माना जाता है। यहां की खास बात यह है कि यहां दक्षिणमुखी काली मां की मूर्ति है, जिसकी तांत्रिक पूजा की जाती है। इस पहाड़ी को गुरु विश्वामित्र से भी जोड़ा जाता है। कहते हैं कि गुरु विश्वामित्र ने यहां मां काली की तपस्या की थी। यह भी माना जाता है कि मां काली की मूर्ति को विश्वामित्र ने ही स्थापित किया था। यहां बहने वाली नदी का नामकरण भी उन्हीं के नाम पर विश्वामित्री रखा गया है। 

गर्भग्रह में अष्ट भूजाओं वाली महाकाली व अंतरालय में दस भुजाओं वाली कालिका की प्रतिमा की स्थापना वाला भगवान विष्णु को समर्पित एक प्राचीन मंदिर झालावाड़ में भी स्थित है। इस मंदिर में विष्णु की मूल प्रतिमा दरवाजे के सामने स्थापित है। वीरों की तीर्थस्थली चितौड़गढ़ के किले में भी कालिका माता का प्राचीन काल में निर्मित एक भव्य विशाल मंदिर है। अनुमानतः 8वीं शताब्दी में बना यह मंदिर वास्तुकला का अद्भूत दर्शनीय नमूना है। इस मंदिर के बारे में दीनानाथ दूबे अपनी पुस्तक “राजस्थान के दुर्ग में लिखते है- “यहाँ कालिकामाता मंदिर सबसे प्राचीन है। इसका निर्माण मोरीवंश के शासक मोरी ने कराया था। यहाँ 9वीं शताब्दी का एक शिलालेख भी है।” डा. विक्रमसिंह भाटी के अनुसार- “वस्तुतः ये सूर्य मंदिर था। इस मंदिर की मुख्य सूर्य प्रतिमा को मुस्लिम आक्रमणकारियों ने नष्ट कर दिया था अनन्तर वहां कालिका माता मूर्ति स्थापित की गई। जिससे यह कालिका माता मंदिर कहलाने लगा।’’

जयपुर के पास निवाई व झालाना डूंगरी पर भी काली माता के प्राचीन मंदिर जन आस्था के केंद्र है। राजस्थान में कालिका माता के छोटे-बड़े बहुत सारे मंदिर है जहाँ भक्तगण माता की पूजा-अर्चना, उपासना कर माता को प्रसन्न कर अपना जीवन सुखमय बनाने की कामना करते है। राजस्थान ही क्यों कालिका माता के देश की राजधानी दिल्ली सहित देश के हर कौने में माता के मंदिर है जो श्रद्धालुओं की आस्था के केंद्र है। 

उज्जैन के कालीघाट स्थित कालिका माता का प्राचीन मंदिर हैं, जिसे गढ़ कालिका के नाम से जाना जाता है। कालजयी कवि कालिदास गढ़ कालिका देवी के उपासक थे। यहां प्रत्येक वर्ष कालिदास समारोह के आयोजन के पूर्व मां कालिका की आराधना की जाती है। गढ़ कालिका के मंदिर में मां कालिका के दर्शन के लिए रोज हजारों भक्तों की भीड़ जुटती है। तांत्रिकों की देवी कालिका के इस चमत्कारिक मंदिर की प्राचीनता के विषय में कोई नहीं जानता, फिर भी माना जाता है कि इसकी स्थापना महाभारत काल में हुई थी। बाद में इस प्राचीन मंदिर का जीर्णोद्धार सम्राट हर्षवर्धन द्वारा किए जाने का उल्लेख मिलता है।

कालिका के प्राचीन मंदिर, गोवा के नार्थ गोवा में महामाया, कर्नाटक के बेलगाम में, पंजाब के चंडीगढ़ में और कश्मीर में भी स्थित है। आदि शक्ति महाकाली का महत्व ऐतिहासिक, पौराणिक मान्यताओं सहित अद्भुत चमत्कारिक किवदंतियों व गाथाओं को अपने आप में समेटे हुये है। कहा जाता है कि महिषासुर व चण्डमुण्ड सहित तमाम भयंकर शुम्भ निशुम्भ आदि राक्षसों का वध करने के बाद भी महाकाली का यह रौद्र रूप शांत नहीं हुआ और इस रूप ने महाविकराल धधकती महाभयानक ज्वाला का रूप धारण कर तांडव मचा दिया था। 

उत्तराखण्ड के गंगोलीहाट जनपद मुख्यालय से लगभग 99 किमी० की दूरी पर मन को लुभाने वाली नगरी गंगोलीहाट है। गंगोलीहाट की सौन्दर्य से परिपूर्ण छटाओं के मध्य यहां से लगभग 1 किमी० दूरी पर अत्यन्त ही प्राचीन माँ भगवती महाकाली के अद्भुत मंदिर को चाहे धार्मिक दृष्टि से देखें या पौराणिक दृष्टि से हर स्थिति में यह आगन्तुकों का मन मोहने में पूर्णतया सक्षम है।

1. राजस्थान की कुलदेवियां पृ. 108, डा. विक्रमसिंह भाटी


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