राजस्थान के इतिहास व आम बोलचाल की भाषा में एक शब्द है रणोही, जिसे कई जगह रणवाय भी बोला जाता है | ये शब्द आजकल बहुत कम प्रचलन में है क्योंकि वर्तमान पीढ़ी ना तो इसका मतलब समझती, ना इस पीढ़ी ने सुना है | पर पुराने व अनपढ़ लोग इसके बारे में जानते हैं जिन्होंने अपने बड़े बुजुर्गों से आस-पास की इतिहास की कहानियां सुनी हो | हाल ही में ऐतिहासिक गांव झूंथर की खोज यात्रा में झूंथर के पहाड़ों व जंगलों में बकरी चराने वाले रामूजी बुजुर्ग से हमने चर्चा की तो उन्होंने एक घटना का जिक्र करते हुआ बताया कि वर्षों पहले तक यहाँ गौड़ों की रणवाय जागती थी |
इस शब्द के बारे में “मांडण युद्ध” पुस्तक में सुरजनसिंहजी झाझड़ ने लिखा है – ‘रणोही’ का शब्दार्थ है-रण़रोही यानी युद्ध का सुनसान स्थान। किन्तु राजस्थान में ऐसी मान्यता प्रचलित है कि जहाँ भयंकर युद्ध लड़े गये हैं, उन युद्ध स्थलों के निर्जन मैदानों में प्रत्येक वर्ष के उसी दिन, जब वह युद्ध लड़ा गया था रात्रि में घोड़ों के दौड़ने की पदचाप और योद्धाओं की मार-मार की आवाजें सुनाई पड़ती हैं। यहाँ के लोग इसे ‘रणोही जागना’ अथवा ‘रणोही बोलना’ कहते हैं। बड़े-बूढ़े अब ऐसा कहते हैं कि सं. 1956 वि. के पश्चात् रणोही जागना प्रायः समाप्त ही हो गया है। किन्तु यहाँ पर उक्त सम्वत के पश्चात् जब कोई भयंकर युद्ध ही नहीं लड़ा गया तो ‘रणोही’ कहाँ से जगे। इसी प्रकार के एक रणोही बोलने का वर्णन कारलाईल ने अपनी पूर्वी राजस्थान की यात्रा की रिपोर्ट के पृ. 192 पर दिया है ।
माण्डण युद्ध स्थल पर रणोही जागती थी, जिसकी जानकरी देते हुए सुरजनसिंहजी ने लिखा है कि- “शेखावाटी के बड़े बूढ़े उस युद्ध की भयंकरता का बोध यह कहकर कराते हैं कि सं. 1956 वि. से पहले माण्डण के ताल में जागा करती थी।“