बिसाऊ किले का इतिहास

Gyan Darpan
0

सन 1755 ई. में बना यह गढ़ अंग्रेजी हकुमत की आँखों की किरकिरी रहा | इसी गढ़ के एक शासक ने तुंगा युद्ध में मुकाबला कर जयपुर राज्य की स्वतंत्रता व प्रजा को महादाजी सिंधिया के कोप से बचाने के लिए वीरता प्रदर्शित कर अपने प्राणों की आहुति दी थी | यही नहीं, राजस्थान के सभी राजाओं की अंग्रेजों के साथ संधि होने के बावजूद इस गढ़ के शासक ने अंग्रेजों के खिलाफ पंजाब के महाराजा रणजीत सिंहजी का साथ देने के लिए एक फ्रेंच सेनापति के नेतृत्व में सेना भेजी थी| यही नहीं इसी किले के शासकों ने अंग्रेज शासित बहल सहित कई गांवों को लूट लिया था |

जी हाँ हम बात कर रहे हैं शेखावाटी के एक महत्त्वपूर्ण ठिकाने बिसाऊ के इतिहास की | राजस्थान के इतिहास के पन्नों पर बिसाऊ ठिकाने का इतिहास स्वर्ण अक्षरों में लिखा है | बिसाऊ के सेठों ने भी देश के व्यापारिक इतिहास में अपनी अमिट छाप छोड़ी है और आज भी व्यापार जगत की बड़ी हस्तियों में बिसाऊ के सेठों का नाम है | शेखावाटी से मुस्लिम राज्य की नींव उखाड़ने में प्रमुख भूमिका निभाने वाले ठाकुर शार्दूलसिंहजी के सबसे छोटे पुत्र केसरीसिंहजी को डूंडलोद ठिकाना मिला था, बिसाऊ भी उनके ठिकाने का एक महत्त्वपूर्ण गांव था अत: केसरीसिंहजी ने सन 1755 ई. में बिसाऊ में गढ़ बनवाया, जिसका उनके यशस्वी वंशजों ने समय समय विस्तार कर यह भव्य रूप दिया | ठाकुर केसरीसिंह जी ने जयपुर बूंदी के मध्य हुये युद्ध में जयपुर की ओर से भाग लिया था |

सन 1954 तक इस किले से आस-पास के 355 गांवों पर यहाँ से शासन चलता था, जिसकी आय 1954 में लभग 19 लाख थी | केसरीसिंहजी के बाद उनके पुत्र सूरजमलजी बिसाऊ के शासक बने, जिन्होंने 28 जुलाई 1787 को तुंगा नामक स्थान पर हुए युद्ध में अपने प्राणों का उत्सर्ग किया था | यह युद्ध जयपुर के महाराजा प्रतापसिंहजी व महादाजी सिंधिया के मध्य हुआ था | इससे पूर्व भी सूरजमलजी ने शाही सेनापति भडेच के खिलाफ खाटू युद्ध में भी वीरता प्रदर्शित की थी | सूरजमलजी ने कयामखानियों की शिकायत पर शेखावाटी पर चढ़ आई बादशाही सेना के साथ भी युद्ध में अपनी तलवार का जौहर दिखलाया था | यह युद्ध इतिहास में मांडण युद्ध के नाम से विख्यात है | जिसमें शेखावतों ने जयपुर व भरतपुर की जाट सेना के सहयोग से शाही सेना को पराजित कर भगा दिया था|

सूरजमलजी के बाद श्यामसिंहजी बिसाऊ के ठाकुर बने | ठाकुर श्यामसिंह जी बड़े निडर, साहसी व स्वतंत्रताप्रेमी थे | वे अंग्रेजी हकुमत के भी खिलाफ थे और अंग्रेजों के खिलाफ कार्यवाही करने का कोई मौका नहीं चुकते थे | जयपुर राज्य के साथ भी इनके कई विवाद हुए और कई माह युद्ध भी चला | ठाकुर श्यामसिंह जी पंजाब के महाराजा रणजीतसिंहजी के मित्र थे | सन 1809 में सतलज इलाके को लेकर महाराजा रणजीतसिंह जी व अंग्रेजों के मध्य संघर्ष चला | तब महाराजा के अनुरोध पर ठाकुर श्यामसिंहजी ने फ्रेंच सेनापति के नेतृत्व में सहायता के लिए सेना भेजी थी | यही नहीं श्यामसिंहजी ने हरियाणा के बहल व साथ लगते कई गांव जो अंग्रेजी हकुमत के अधीन थे को लूट लिया था| जिसकी शिकायत अंग्रेजों ने जयपुर महाराजा से की, लेकिन जयपुर महाराजा ने अंग्रेजों को साफ़ कह दिया कि श्यामसिंह दबने वाला नहीं है | पर जयपुर महाराजा के समझाने पर श्यामसिंह जी ने बहल आदि से लूटा धन अंग्रेजों को वापस कर दिया |

सन 1811 में जब अमीरखां जयपुर राज्य की जनता को लूटने आया तब जयपुर के महाराजा जगतसिंहजी ने अमीरखां को निकाल भगाने के लिए बिसाऊ के ठाकुर श्यामसिंहजी को ही नियुक्त किया था | जो जाहिर करता है कि श्यामसिंहजी के युद्ध कौसल व साहस से जयपुर महाराजा प्रभावित थे | 21 दिसम्बर 1818 को जयपुर महाराजा जगतसिंहजी का निधन हो गया तब उनकी बड़ी रानी ने अपनी एक विश्वास पात्र दासी रूपा बडारण के माध्यम से ठाकुर श्यामसिंहजी को अपना धर्मपिता बनाया यानी उन्हें अपना संरक्षक बनाया |

ठाकुर श्यामसिंह के बाद हम्मीरसिंहजी, चन्द्रसिंहजी, जगतसिंहजी, बिशनसिंहजी और रघुवीरसिंहजी बिसाऊ के शासक रहे | ठाकुर हम्मीरसिंहजी ने बिसाऊ की उन्नति के लिए कई बड़े बड़े सेठों को मुफ्त जमीन देकर बिसाऊ में बसाया ताकि बिसाऊ में व्यापार बढे और राज्य तरक्की करे | ठाकुर चन्द्रसिंहजी ने बिसाऊ गढ़ में चन्द्र महल बनवाया जो देखने लायक है | ठाकुर बिशनसिंहजी को सन 1938 में जयपुर के महाराजा मानसिंहजी ने रावल की पदवी दी और अगले ही वर्ष उन्हें ले. कर्नल की उपाधि से विभूषित किया | रावल बिशनसिंहजी ने अपने जीवन काल में ही सन 1939 में बिसाऊ ठिकाने का शासनाधिकार अपने पुत्र रघुवीरसिंहजी को दे दिया | इस अवसर पर उन्होंने माल निकासी व नील पर लगने वाली जकात यानी कर को माफ़ कर दिया | काश्तकारों का बकाया लगान और ठिकाने की लाग बाग़ यानि ठिकाने द्वारा वसूले जाने वाले कई कर माफ़ कर दिए |

बिसाऊ के आखिरी शासक रावल रघुवीरसिंहजी लोकप्रिय शासक थे और उन्होंने अपना ठिकाना बिसाऊ सन 1954 में अन्य देशी राज्यों के साथ भारत के एकीकरण में सहर्ष प्रदान कर दिया | रावल रघुवीरसिंहजी जयपुर की सेना में अधिकारी रहे और वे एक बहुत अच्छे शिकारी थे | देश की आजादी के बाद रावल रघुवीरसिंहजी ने 1952 में राम राज्य परिषद के बैनर पर विधानसभा चुनाव लड़ा और विजयी रहे | सन 1962 में आप स्वतंत्र दल के बैनर पर मंडावा विधानसभा क्षेत्र से विजयी हुए और सन 1967 में स्वतंत्र दल के टिकट पर ही खेतड़ी विधानसभा से निर्वाचित होकर विधानसभा पहुंचे | तीन बार अलग अलग क्षेत्रों से चुनावी जीत उनकी लोकप्रियता साबित करने के लिए काफी है |

चूँकि स्वतंत्र दल विपक्ष में था और रावल रघुवीरसिंह जी के विपक्ष में होने के कारण सरकार उनके क्षेत्र में विकास कार्य नहीं कर रही थी | रावल साहब को लगा कि उनके कारण क्षेत्र के लोग विकास के कार्यों से वंचित हो रहे हैं अत: उन्होंने जनता को अन्य प्रत्याशी का चयन करने का अवसर देने हेतु विधानसभा से त्यागपत्र दे दिया | सितम्बर 1971 में रघुवीरसिंहजी का निधन हो गया | रघुवीरसिंहजी के वंशज जयपुर रहते हैं जिनका इंटरव्यू अगले किसी वीडियो में आपके सामने प्रस्तुत करेंगे |

वर्तमान में यह गढ़ पौद्दार सेठों के स्वामित्व में है, गढ़ में पौद्दार परिवार के सदस्य निवास करते हैं | निजी आवास होने के कारण ग्यारह बीघा में बने इस विशाल गढ़ में सार्वजनिक प्रवेश वर्जित है | गढ़ की फोटोग्राफी करना भी मना है पर देवस्थान बोर्ड राजस्थान सरकार के सदस्य जितेन्द्रसिंह कारंगा के विशेष अनुरोध पर पौद्दार परिवार के एक सदस्य ने हमें गढ़ के अंदरूनी भाग का अवलोकन कराया और गढ़ परिसर के जितने हिस्से की फोटोग्राफी करने की उन्होंने अनुमति दी वह आपके समक्ष प्रस्तुत की गई है |

एक टिप्पणी भेजें

0टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें (0)