एक ऐसा दुर्ग जिसका कोई आक्रमणकारी दरवाजा ना खोल सका

Gyan Darpan
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पश्चिमी राजस्थानमें अरावली पर्वत श्रंखला की सोनागिरी पहाड़ी पर गोल आकृति में लूणी नदी की सहायक सूकड़ी नदी के किनारे जालौर दुर्ग बसा है| देश का प्राचीन और सुदृढ़ रहा यह दुर्ग धरातल से 425 मीटर ऊँचा है| ऊँची नीची पहाड़ियों की चोटियों को प्राचीरों व बुर्जों से ढक दिया गया है| सात मीटर ऊँची दीवार से मैदानी भाग को भी घेरा गया है| दुर्ग में पहुँचने के लिए शहर की और से पांच किलोमीटर टेढ़े मेढ़े रास्ते को पार करना पड़ता है| यह दुर्ग लम्बे समय तक चले घेरों व वीरतापूर्वक लड़े युद्धों के लिए इतिहास में प्रसिद्ध है| दुर्ग वीरों कर्मस्थली के साथ ऋषियों, संतों व विद्वानों की भी साधना-स्थली रहा है| “ऋषि जाबिल, जिनेश्वर सुरि, यशोवीर, बुद्धिसागर और महाकवि माघ के कारण इस क्षेत्र का प्राचीन इतिहास काफी गौरवपूर्ण है| प्राचीन काल में यह कनकाचल और जाबिलपुर के नाम से प्रसिद्ध था|” (राजस्थान का इतिहास; डा.गोपीनाथ शर्मा)

जाबिलपुर नाम से प्रसिद्ध यह दुर्ग बाद में वृक्षों की अधिकता के कारण जालौर कहा जाने लगा| प्राचीन शिलालेखों में इस दुर्ग का नाम सुवर्ण गिरि भी मिलता है| सुवर्ण गिरि से ही इसका नाम सोनगढ़ पड़ा| सोनगढ़ पर शासन करने के कारण ही यहाँ के चौहान शासक सोनगरा चौहान कहलाये| इस दुर्ग की स्थापना के बारे में मई मत है, पर ज्यादातर इतिहासकारों का मानना है कि इसे परमार राजाओं ने 10 वीं सदी में बनवाया था| पर अधोतन सुरि कृत “कुवलयमाल” से पता चलता है कि आठवीं सदी में भी यह नगर प्रसिद्ध था और यहाँ प्रतिहारवंशी वत्सराज का शासन था|

जब परमारों का राज्य पश्चिम में अमरकोट, लुद्र्वा और पूर्व में चंद्रावती और दक्षिण में नर्मदा तक फैला हुआ था| उस काल में परमार (पंवार) राजा मुंज (972-98 ई.) का पुत्र चंदाना यहाँ का शासक था|इसी वंश के सातवें राजा की रानी ने सिंधु राजेश्वर मंदिर पर 1087 में सोने का कलश चढ़ाया था| दुर्ग पर प्रतिहारों, परमारों, चौहानों, सोलंकियों, मुसलमानों व राठौड़ों ने समय समय पर राज किया| लेकिन इस दुर्ग ने सबसे ज्यादा प्रसिद्धि चौहान वीर कान्हड़देव के काल में पाई| कान्हड़देव के शासन काल में इस दुर्ग पर सबसे लम्बा घेरा चला और बादशाह खिलजी तीन साल घेरा डाले रखने के बाद भी इसे बिना भेदिये के विजय नहीं कर पाया| विका दहिया द्वारा गद्दारी कर खिलजी को गुप्त मार्ग का राज बताने के बाद खिलजी इस किले को तभी फतह कर पाया जब कान्हड़देव व उसके पुत्र वीरमदेव ने वीरगति प्राप्त की और किले में उपस्थित महिलाओं ने जौहर कर लिया|

भूल भुलैया सा दिखने वाले इस दुर्ग के दरवाजों का बुर्जों पर मारक अस्त्र रखने व उन्हें प्रक्षेपण करने की पूरी व्यवस्था थी| कला व शिल्प के लिहाज से भी दुर्ग अनूठा है| महलों में दरबार, रनिवास, घुड़साल, सभाकक्ष आदि के अवशेष आज भी देखे जा सकते है| मानसिंह प्रसाद काफी बड़ा है| कौमी एकता के इस प्रतीक दुर्ग में वैष्णव, जैन मंदिरों के साथ मस्जिद भी मौजूद है| विरमदेव, महादेव, जालन्धर नाथ की छतरियां, गुफा  व महावीर जी का मंदिर दर्शनीय है| वीरमदेव की चौकी दुर्ग के सबसे ऊँचे स्थान पर है| परमार कालीन दो मंजिला रानीमहल, साम्भदहियों की पोल, चामुण्डा देवी का मंदिर, मलिकशाह की दरगाह,जरजी खांडा व तोपखाना भी किले उल्लेखनीय है| किले में झालर व सोहन बावड़ी मीठे पेयजल के लिए मशहूर है|

इस किले की सुदृढ़ता पर हसन निजामी ने ताज-उल-मासिर में लिखा – “यह ऐसा किला है, जिसका दरवाजा कोई आक्रमणकारी नहीं खोल सका|” इसलिए जालौर दुर्ग के बारे यह दोहा प्रसिद्ध है-

आभ फटै धड़ उलटै, कटै बख्तरां कोर |

सिर टूटे धड़ तड़ पड़े, जद छूटे जालौर||

अपने आखिरी समय में यह दुर्ग मारवाड़ के राठौड़ शासकों के अधीन था| मारवाड़ के राठौड़ नरेश अपना सुरक्षित कोष इसी दुर्ग में रखते थे| जोधपुर से मात्र 100 किलोमीटर दूर यह दुर्ग आज पुरातत्व विभाग के नियंत्रण में है| यदि इसका सही विकास व सार संभाल किया जा सके तो यह पश्चिमी राजस्थान में एक महत्त्वपूर्ण पर्यटन स्थल के रूप में विकसित हो सकता है|

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