शासक के रूप में राव दूदा का योगदान-
राव दूदा के जीवन सम्बन्धी उपर्युक्त घटनाओं का अध्ययन करें तो ज्ञात होता है कि मेड़ता की स्थापना में मुख्य रूप से दूदा का योगदान रहा। उसने अपने अग्रज वरसिंह के साथ मिलकर मेड़ता नगर बसाने का प्रयास किया और अपने प्रभावी व्यक्तित्व से सहज ही आस-पास के लोगों को अपने पक्ष में कर लिया। सेना के गठन में भी उसका हाथ रहा क्योंकि योद्धाओं के बारे में उसे अच्छी जानकारी थी। उसकी योग्यता के कारण ही वरसिंह को मेड़ता का शासक बनने का सुअवसर प्राप्त हुआ।
राजकोट का निर्माण-
वरसिंह के समय मेड़ता में साधारण मकानों का निर्माण किया गया जो एक राज्य-वैभव के अनुरूप नहीं थे। इसलिए राव दूदा का ध्यान सबसे पहले भवनों के निर्माण कराने की ओर गया । सुनियोजित योजना के राजकोट का अनुसार किया गया। कोट और बुर्ज का उल्लेख विगत में हुआ है। उसमें सभी प्रकार के कक्ष थे। कोट पर अपने चिह्न की ध्वजा लहराई गई । पोळ के अन्दर ही घुड़शाल का निर्माण कराया गया ।
चतुर्भुजजी के मन्दिर का निर्माण-
राव दूदा को चत्रभुजजो का ईष्ट था। उनकी कृपा से ही जीवन के पथ पर वे आगे बढे थे। इसलिए उन्होंने चतुर्भुजजी के मन्दिर का निर्माण कराके पाठ-पूजा की समुचित व्यवस्था का प्रबन्ध किया। वे स्वयं नित्य पूजा में आसीन होकर ध्यान लगाते थे । राव की बहियों में इसका उल्लेख मिलता है।
भवनों आदि का निर्माण कार्य राव वीरमदे और राव जयमल के समय भी जारी रहा और इसका विकास होता रहा । परन्तु वि.सं. 1610 में जोधपुर के राव मालदेव ने मेड़ता हस्तगत कर चतर्भुजजी के मन्दिर के अलावा जयमल के भवनों को ध्वस्त करा दिया। इतना ही नहीं नीचे खुदवा कर सारे पत्थर वहां से हटवा दिये और मेडतियों का विनाश करने के लिए वहाँ मूले बोये गये। परन्तु दूदा कोट का अस्तित्व बना रहा जो आज देखा जा सकता है।
दूदासर जलाशय-
मेड़ता में कुंडल बेजपा जलाशय तो पहले से ही था । परन्तु मेड़ता पुनः बसाने पर और जलाशय की आवश्यकता हुई। इस पर राव दूदा ने बड़े जलाशय का निर्माण करवाया, कालान्तर में उसका नाम दूदासर रखा गया। वर्तमान में इस जलाशय पर छतरियाँ बनी हुई हैं परन्तु प्रतिमाएँ लुप्त होने के कारण इनकी पहचान करना अब मुश्किल है। जल की समस्या के समाधान हेतु दूदा ने विशेष ध्यान दिया ।
सेना का गठन-
अपने राज्य की सुरक्षा और राज्य विस्तार के लिए सेना का गठन नये सिरे से किया। जिसमें चौहान, भाटी, राठौड़, पंवार सभी जातियों के योद्धा थे। बाद में सैनिकों की निरंतर वृद्धि होती रही । अस्त्र-शस्त्रों की खरीद आदि सामरिक महत्व के पहलुओं की ओर भी विचार कर उन्हें क्रियान्वित किया गया।
शासन प्रबन्ध-
शासन प्रबन्ध के लिए कुछ ओहदेदारों की नियुक्तियां जरूर की होंगी। राठौड़ उदा जैतमालोत तो पहले से ही प्रधान नियुक्त था। मेड़ता की सुरक्षा के हरसंभव प्रयास के साथ ही मेड़ता के गाँवों की देख-रेख करने, हासल की वसूली, अधिकाधिक खेती करने के लिए कृषकों को प्रोत्साहन देने, गाँवों की सुरक्षा, लोगों की समस्याओं का समाधान करने आदि कार्यों के लिए कुशल ओहदेदारों की नियुक्तियाँ की गई।
राव दूदा की मृत्यु-
राव दूदा की मृत्यु का समय विगत में ई. सं. 1497 (वि.सं. 1554) जयमल वंश प्रकाश में ई. सं. 1515 (वि.सं. 1572) तथा मेड़तिया राठौड़ों के विभिन्न ठिकानों की ख्यातों में ई. सं. 1517-18 (वि.सं. 1574-75 ) दिया है। ई.सं. 1497 से 1515 ई. के बीच दूदा तथा उसके उत्तराधिकारी राव वीरमदेव से सम्बन्धित किसी घटना का उल्लेख ख्यात ग्रन्थों में प्राप्य नहीं होता इसलिए निश्चित रूप से यह कहना कठिन है कि राव दूदा का निधन कब हुआ। भाटों एवं कुल- गुरुओं की ख्यातों के अनुसार ठाकुर गोपालसिंह ने दूदा का स्वर्गवास ई. सं. 1515 में स्वीकार किया है। उस समय उनकी अवस्था 75 वर्ष की थी। डॉ. हीरालाल माहेश्वरी, मुंशी देवी प्रसाद" और डॉ. श्री कृष्णलाल " आदि विद्वान् भी इसी समय का प्रतिपादन करते हैं। परन्तु राव दूदा का जब तक स्मारक लेख नहीं मिल जाता तब तक उनकी मृत्यु का सही समय निश्चित करना कठिन है ।
राव दूदा की सन्तति-
राव दूदा की कितनी स्त्रियाँ थीं इसकी सही जानकारी नहीं मिली है। इसके पांच पुत्र हुए। उनका संक्षिप्त ऐतिहासिक परिचय प्रस्तुत है-
1. वीरमदेव - राव दूदा की मृत्यु के पश्चात् मेड़ता की गद्दी पर बैठा ।
2. रायमल - राव वीरमदेव ने रायमल को रांयण की जागीर प्रदान की। यह 1527 ई. में खानवा के युद्ध में काम आया। इसके पुत्र अर्जुन, अचला, सुरजन, भीम और पता हुए । " रायमल के वंशज रायमलोत मेड़तिया कहलाये ।
3. रायसल - यह बड़ा ही वीर और प्रतिभाशाली योद्धा हुआ ।” वीरमदेव ने जब वरसिंह के वंशज सहसा पर चढ़ाई की तो रायसल बुरी तरह से घायल हुआ, फिर इसकी जल्दी ही मृत्यु हो गई । इसके पुत्र राणीर, किशनदास करमचंद, डूंगरसी और नरसिंहदास हुए । रायसल के वंशज रायसलोत मेड़तिया कहलाये ।
4. रतनसी - राव वीरमदेव ने भोज सीहावत को कुड़की ग्राम से निष्कासित करके कुड़की का ठिकाना रतनसी को प्रदान किया। रतनसी ने पीसांगण के सोढ़ाउत अखा पर चढ़ाई कर उसका वध किया। रतनसी ने कुड़की में पक्के मकानों का निर्माण कराया। वह अपने भ्राता रायमल के साथ खानवा के संग्राम में वीरगति को प्राप्त 1 मीरां बाई रतनसी की पुत्री थी जो राणा सांगा के पुत्र भोजराज से ब्याही गई।
5. पंचायण- यह जोधपुर के राव मालदेव की सेवा में रहा । शरफुद्दीन की मेड़ता पर चढ़ाई के समय अपने पुत्र जैतमाल के साथ 1563 ई. में काम आया । इस प्रकार राव दूदा की भांति उसके पुत्र बड़े वीर हुए। इनसे मेड़तिया राठौड़ों की अनेक शाखाएं अंकुरित हुई। आगे चलकर इनके वंशजों ने विभिन्न युद्ध अभियानों में रणकुशलता एवं अद्भुत वीरता का परिचय दिया ।
राव दूदा का मूल्यांकन-
राव जोधा ने मेड़ता सम्मिलित रूप से वरसिंह एवं दूदा को प्रदान किया था । मेड़ता परगने को पुनः संस्थापित करने में दूदा का महत्वपूर्ण योगदान रहा परन्तु वरसिंह की ईर्ष्यालु नीति के कारण उसे मेड़ता परित्याग कर बीकानेर जाना पड़ा। वास्तव में वह आधे मेड़ता का हकदार था और इसके लिये वह अपने अग्रज राव सातल से अनुरोध करता तो वह दूदा का अवश्य पक्ष लेता लेकिन दूदा ने ऐसा नहीं किया। इसके विपरीत दूदा वरसिंह की विपदाओं में हर समय सहायता करता रहा ।
मल्लूखां द्वारा कैद किए जाने पर दूदा ने बीका से अनुरोध कर उसे मुक्त करवाया। लेकिन इस बार भी वरसिंह ने दूदा को मेड़ता में निवास करने अथवा कोई बड़ी जागीर प्रदान कर उसे अपनी सेवा में रखने का प्रयास नहीं किया । वरसिंह को यह भय था कि कहीं दूदा मेरी मृत्यु के पश्चात् मेड़ता पर अधिकार न कर ले इसलिए वरसिंह ने दूदा को अपने यहां नहीं रखा। वरसिंह की मृत्यु पश्चात् उसकी स्त्री द्वारा आमंत्रित किये जाने पर दूदा ने मेड़ता की शासन व्यवस्था को अपने हाथ में लिया। चूंकि वरसिंह का उत्तराधिकारी सीहा बिल्कुल अयोग्य था इसलिए उसके कारनामों से परेशान होकर दूदा को उसे राज्य हक से वंचित करना पड़ा। उस समय दूदा यह कदम नहीं उठाता तो निश्चित ही जोधपुराधीश राव सूजा सीहा की शिथिलता का फायदा उठाकर मेड़ता पर आधिपत्य जमा लेते और मेड़तिया राठौड़ों की इस वीरभूमि मेड़ता पर शासन करने की सभी आशाएं यहीं समाप्त हो जातीं ।
दूदा सिद्ध पुरुष जाम्भाजी के सम्पर्क में आये जिससे वे वैष्णव धर्म के अनुयायी बन गये और मदिरा आदि दुर्व्यसन से मुक्त रहे । जाम्भाजी के प्रभाव में आने वाले प्रमुख 6 राजवियों में उनकी गणना हुई। दूदा ने अपने जीवन में न केवल उतार-चढ़ाव देखे अपितु यत्र-तत्र भ्रमण कर उसने शासन प्रबन्ध का अनुभव प्राप्त किया। जिससे उसे अपनी राठौड़ सत्ता को सुदृढ़ करने में सफलता मिली। यही कारण है कि दूदा अडिग साहस और दृढ़ संकल्प आदि मार्मिक गुणों से अपने समकालीनों की प्रशंसा का पात्र बना और मारवाड़ के इतिहास में एक प्रभावी सफल योद्धा के रूप में उभरकर सामने आया ।"
समाप्त
सन्दर्भ : "मेड़तिया राठौड़ों का राजनीतिक और सामाजिक इतिहास" : लेखक - हुकम सिंह भाटी
