भाग -4 से आगे। ...............
वरसिंह की सांभर पर चढ़ाई और मल्लूखां का मारवाड़ पर आक्रमण-
वि.सं. 1547 (ई.सं. 1490) में मेड़ता में अकाल पड़ा । धान्य के अभाव में वहां की प्रजा को अनेक कष्ट सहन करने पड़े। इस समस्या के समाधान हेतु वरसिंह ने सांभर पर आक्रमण किया। वहां उसे प्रचुर मात्रा में सम्पत्ति प्राप्त हुई । यह इलाका उस समय माण्डु के सुल्तान नादिरशाह खिलजी के अधीन था तथा उसकी ओर से हाकिम मल्लखाँ अजमेर में नियुक्त था। यद्यपि वरसिंह की अनुचित लूटमार से मल्लूखाँ ने बड़ा रोष प्रकट किया परन्तु वह मेड़ता पर चढ़ाई नहीं कर सका क्योंकि राठौड़ों की संयुक्त शक्ति से लोहा लेने की उसमें हिम्मत नहीं थी। कुछ समय पश्चात् मल्लूखाँ को इस प्रकार चुप देख कर वरसिंह ने उससे मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित कर जोधपुर पर चढ़ाई के लिये सैनिक सहायता की याचना की। उक्त सहायता के बदले में वरसिंह ने उसे 50000 रु. देने का भी वादा किया। लेकिन मल्लूखां ने पहले सांभर पर हुए आक्रमण की क्षतिपूर्ति के लिये मांग की । वरसिंह ने जब इसका कोई जवाब नहीं दिया तब मल्लूखाँ ने मेड़ता पर चढ़ाई कर दी। वरसिंह के कतिपय सरदार पहले से ही मेड़ता परित्याग कर जोधपुर जा चुके थे। क्योंकि उन्हें पूर्ण वेतन नहीं मिल रहा था। वरसिंह ने अपने को मल्लूखाँ से लड़ने में असमर्थ जान कर वह राव सातल के परामर्शानुसार जोधपुर चला गया। मल्लूखाँ ने मेड़ता में खूब लूटमार की फिर उसने ससैन्य वहां से प्रस्थान कर अपने डेरे पीपाड़ में डाले। वहां यवन सैनिकों ने गौरी पूजन के लिये ग्राम से बाहर आई तिजनियों का अपहरण किया। राठौड़ शासक नारी के इस अपमान को सहन नहीं कर सके ।
कोसाणा युद्ध में दूदा की भूमिका-
दूदा उस समय बीकानेर में था । मल्लूखाँ के इस आक्रमण की सूचना पाकर वह ससैन्य जोधपुर पहुँचा। अनन्तर सातल, सूजा एवं वरसिंह और दूदा जोधपुर से प्रस्थान कर वीसलपुर आये। उस समय युद्ध - अनुभवी वरजांग भींवोत को उसकी इच्छानुसार भावी ग्राम का पट्टा प्रदान कर उसे खुश किया गया। फलतः वरजांग ने जासूस के रूप में शत्रु सेना में गमन कर स्थिति का पूर्ण अध्ययन किया। पुनः लौटकर उसने राठौड़ वाहिनी के दो दल बनाये तथा रात्रि के समय अचानक हमला कर दिया । " मुसलमान सैनिकों के पैर उखड़ गये । मल्लूखाँ परास्त होकर भाग गया तथा मीर घडुला मारा गया। दूदा ने इस युद्ध में अद्भुत वीरता का परिचय दिया । वह यवन सेना को चीरता हुआ सिरीया खान की ओर बढ़ा तथा उसके हाथी छीन लिये। इस अभियान में दूदा के अनेक घाव लगे। जोधपुराधीश राव सातल चैत्र शुक्ला 3 वि.सं. 1548 (1492 ई.) को अपनी मातृभूमि के निमित्त कोसाणा जलाशय पर काम आया । उसके पीछे सन्तान नहीं थी अतः उसका अनुज राव सूजा जोधपुर की राजगद्दी पर आरूढ़ हुआ |
विगत में उद्धृत मेड़ता की वार्ता में दूदा का इस युद्ध में सम्मिलित होने का उल्लेख नहीं हुआ है लेकिन इसी ग्रन्थ में वर्णित जोधपुर की वार्ता में दूदा का इस युद्ध में भाग लेना लिखा है। इसलिये डॉ. मांगीलाल ने विगत के अनुसार यह तो स्वीकारा है कि दूदा बीकानेर चला गया था परन्तु कोसाणा युद्ध में जिस दूदा ने असीम वीरता का परिचय दिया था, जिसका लगभग सभी स्थानीय स्रोतों में उल्लेख हुआ है उसका उन्होंने नामोल्लेख तक नहीं किया। कोसाणा युद्ध को लेकर अनेक वीर गीतों की भी रचनाएँ हुईं जिसमें दूदा का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया गया। इसके अतिरिक्त जाम्भोजी से सम्बन्धित 'कथा मेड़ता की' में भी दूदा द्वारा सीरियाखान से युद्ध करने एवं उसे मारने का उल्लेख हुआ है। अत: दूदा ने इस युद्ध में सम्मिलित होकर शत्रुओं से लोहा लिया था, उसे नकारा नहीं जा सकता। वस्तुतः इस युद्ध में सिरीयाखान का दमन करने में दूदा का महत्वपूर्ण योगदान रहा। फलोदी शिलालेख (वि.सं. 1555) से इसकी पुष्टि होती है ।
राव बीका के जोधपुर अभियान में दूदा की भूमिका-
राव बीका की सारंगखां पर चढ़ाई के समय झांसला ग्राम से लौटते समय राव जोधा, दूदा और बीका द्रोणापुर में रुके तब जोधा ने बीका को पूजनीक वस्तुएं देने का वचन दिया था। राव सूजा के राज्याभिषेक होते ही राव बीका ने पूजनीक वस्तुएं लाने के लिये अपना व्यक्ति भेजा लेकिन राव सूजा इन्कार कर गया। तदुपरान्त राव बीका ने जोधपुर पर चढाई कर दी। बीकानेर की सेना ने शहर को लूटा एवं जोधपुर दुर्ग को घेर लिया । दूदा बीका की ओर से इस युद्ध में सम्मिलित था। राव सूजा की माता हाडी जसमादे के अनुरोध किये जाने पर दूदा ने अपने प्रभाव से राव बीका एवं सूजा के बीच समझौता करा दिया जिसके अनुसार पूजनीक वस्तुएँ राव बीका को प्रदान कर दी गई, अनन्तर बीका एवं दूदा पुन: बीकानेर लौट गये।
मल्लखां द्वारा वरसिंह को कैद करना
मल्लूखां को कोसाणा के युद्ध में बहुत क्षति उठानी पड़ी थी इसलिये उसने पराजय का बदला लेने के लिये माण्डू के बादशाह से सैनिक सहायता प्राप्त कर मेड़ता पर पुनः चढ़ाई करने के लिये तैयारियां प्रारम्भ कीं । चूंकि वरसिंह के अनेक सैनिक कोसाणा युद्ध में मारे जा चुके थे और इसके अतिरिक्त मल्लखां की सैनिक शक्ति का भी उसे पूर्ण भान हो गया था इसलिये मल्लूखां की चढ़ाई का वरसिंह को जब पता लगा तो उसने मल्लखां से सन्धि करने हेतु अजमेर जाने का निश्चय किया । यद्यपि प्रतिष्ठित सरदारों ने वरसिंह को बहुत समझाया कि अजमेर जाकर सन्धि न करे लेकिन वरसिंह ने उनके परामर्श की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। वह गणमान्य योद्धाओं के साथ अजमेर पहुंचा। मल्लूखां ने दिखावे के रूप में उसका खूब आदर- सत्कार किया, फिर एक दिन उसने वरसिंह को अपने निवास स्थान पर आमंत्रित कर बन्दी बना लिया। उस समय वरसिंह के योद्धाओं - जेता हुल एवं अज्जा चौहान ने अपने स्वामी को मुक्त कराने के लिये प्राण न्यौछावर कर दिये । राव सूजा, बीका एवं दूदा के प्रयत्न से वरसिंह का मुक्त होना-
वरसिंह के कैद किये जाने की सूचना दूदा एवं राव बीका को बीकानेर में प्राप्त हुई। तदनन्तर राव बीका के कथनानुसार दूदा ने मेड़ता में आकर सैनिक तैयारियों प्रारंभ की। चार दिन के पश्चात् राव बीका भी ससैन्य आ पहुंचा। जोधपुर राव सूजा 3 को सन्देश मिल चुका था । अतः वह भी ससैन्य कोसाणा आ रुका। राठौड़ वाहिनी की संयुक्त चढ़ाई की सूचना पाकर मल्लूखां घबरा गया। फलतः उसने राठौड़ों से विचारविमर्श कर सन्धि कर ली और वरसिंह को मुक्त कर दिया । वरसिंह ने मेड़ता पहुंच कर राव बीका एवं दूदा का अच्छा सम्मान किया। 7 दिन तक महफिल चलती रही। तत्पश्चात् दोनों भाई पुनः बीकानेर प्रस्थान कर गये ।
वरसिंह की मृत्यु के पश्चात् दूदा को मेड़ता का शासक स्वीकार करना :-
वरसिंह की मृत्यु के यद्यपि मल्लूखां ने वरसिंह को मुक्त कर दिया था लेकिन वह अपनी हरकतों से बाज नहीं आया। उसने वरसिंह को अजमेर में रहते हुए विषपान करा दिया था । फलतः वरसिंह का स्वास्थ्य गिरने लगा और छः मास के बाद उसका निधन हो गया। वरसिंह का ज्येष्ठ पुत्र सीहा मेड़ता का स्वामी बना किन्तु वह बिल्कुल अयोग्य शासक सिद्ध हुआ क्योंकि उसने राज्य प्रशासन की ओर ध्यान नहीं दिया । बल्कि शराब के नशे में खोया रहा। उसकी शिथिलता का लाभ उठाकर राव सूजा ने अपने गणमान्य सरदारों को मेड़ता भेजा। उन्होंने वहां की स्थिति का अध्ययन कर सीहा से मेड़ता हस्तगत करने की योजनाएं बनाईं। सीहा की मां ने ऐसी गम्भीर स्थिति देखकर अपने विश्वासपात्र सरदारों से विचार-विमर्श किया। सरदारों ने राव सूजा को मेड़ता प्रदान करने का प्रस्ताव रखा परन्तु सीहा की मां को यह निर्णय रुचिकर नहीं लगा और उसने दूदा को मेड़ता का स्वामी बनाने की इच्छा व्यक्त की । उसका यह विचार था कि सूजा को मेड़ता देकर व्यर्थ में भूमि क्यों गंवाते हों । दूदा को मेड़ता दिया जायेगा तो मेरे उदर अथवा सीहा से यह भूमि वंचित होगी लेकिन मेरी सास की सन्तान के अर्थात् दूदा के भूमि रहेगी। इस प्रकार का निर्णय किये जाने के बाद बीकानेर से दूदा को आमंत्रित किया गया । दूदा जल्द ही मेड़ता आ । पहुंचा। मेड़ता का शासन प्रबन्ध दूदा के हाथ सौंपा गया और यह निर्णय लिया गया कि मेड़ता परगना की आय का आधा हिस्सा सीहा को प्रदान किया जाय ।
सारी राज्य व्यवस्था राव दूदा को ही करनी पड़ रही थी इसलिए मेड़ते की उपज का आधा भाग उसके लिए उपयुक्त नहीं था। उधर सीहा अपनी हिस्से की आय शराब पीने पिलाने में खर्च करता था। राव दूदा सीहा के कारनामों को 2 वर्ष तक देखता रहा, आखिर उसे यह गवारा नहीं हुआ। उसने एक दिन रात्रि में सोते नशे में चूर सीहा को रांहण ग्राम में पहुंचा दिया। सुबह जब उसे होश आया तो सरदारों ने अवगत कराया कि राव दूदा ने आपको रांहण का पट्टा प्रदान किया है। यह सुनकर उसमें कुछ रोष प्रकट किया लेकिन फिर वह वहीं रहने को राजी हो गया। 89 प्रकार. (वि.सं. 1552) (ई.सं. 1495) के लगभग राव दूदा का पूर्ण रूप से मेहता पर अधिकार हो गया।
क्रमशः। .................................

