भूस्वामी आंदोलन : जब पत्रकार हितकर ने पागलखाने में बिताई दो रातें

Gyan Darpan
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पिछले भाग से आगे। ......

जसराज ने मेरे अचानक आने पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। वो शायद सोच रहा था। कहीं मैं पागलखाने की गतिविधियों का निरीक्षण करने तो नहीं आया हूं। मैंने भी सोचा जाने दो भ्रम बना रहे वही अच्छा है। थोड़ी देर बाद वो बोला चलो कुछ मरीजों से मिलवाता हूं। इस बैरक में वो लोग हैं जो लगभग ठीक हो गये हैं। आगामी सप्ताह इन्हें घर भेज दिया जायेगा । मेरी उत्सुकता और बढ़ गई। जसराज ने ऊंची आवाज में कहना शुरू किया देखो कौन तुमसे मिलने आया है। मैले कुचेले कपड़े, दुर्गन्ध वाला बैरक, तभी मैंने देखा कमरे में दीवार की तरफ मुंह करके 50-55 साल का अधेड़ था। जसराज ने कहा अब यह बिल्कुल ठीक हो गया। मैंने उसके करीब जाकर पूछा आप का नाम क्या हैं? वो हड़बड़ाकर खड़ा हो गया उसने सैल्यूट की और बोला मेरा नाम पण्डित जवाहरलाल नेहरू है। मेरी हंसी फूट पड़ी। मैंने पूछा औंधे बैठकर क्या कर रहे थे? उसने कहा "गणतंत्र दिवस" का भाषण लिख रहा था, लाल किले से बोलना है। मैंने नई रील डालकर जसराज को केमरा देते हुए कहा कि पण्डितजी के साथ एक फोटो तो बनता है।

शाम को मैं खाना पण्डितजी के साथ खाऊंगा। जैसा खाना ये खाते हैं वैसा ही खाऊंगा। शाम को मूंग चने की दाल, मोटी-मोटी रोटियां व मूली का सलाद आया । मैंने छक कर खाना खाया। बाहर लोन में पलंग डालकर सो गया। सुबह उठा तो मैंने देखा कि एक कम्पाउण्डर व डॉक्टर पागलों का निरीक्षण कर रहे थे। कुछ पागल शॉक लगाने के लिए बांध कर लेटाये गये थे। दो दिन से कपड़े न बदलने, उलझे घुंघराले बालों के कारण डॉक्टर ने मुझे भी नया मरीज समझा। जब मैंने उन्हें गुड मॉर्निंग कहा तो उसने प्रति उत्तर में वैरी गुड मॉर्निंग कहा । तभी जसराज आ गया, अरे नहीं डॉक्टर साहब, ये तो हमारे मांई - बाप है । समाचार पत्र निकालते हैं, राजपूत समाज में नाम है, जोधपुर राजघराने के साथ अच्छे ताल्लुकात हैं। मैंने जसराज से साईकिल मांगी, अपना बेग व सामान उठाया और "ताज प्रिंटिंग प्रेस” पहुंच गया। दोनों समाचार पत्रों के ब्लॉक, प्रकाशन सामग्री उसे दिये, उसने कहा पूरा पैसा लगेगा। दो दिन में अखबार छप जायेगा । एक हजार प्रति "बलिदान" की और पांच सौ प्रतियां कर्म पथ” की छाप देना। वहां से मैंने घर जाने की कोशिश नहीं की। लौटते समय घण्टाघर से बहुत सारे चने व मूंगफलियां ली और पुनः पागलखाने आ गया। मुझे आते-आते एक बज गया था। जसराज ने कहा खाना तैयार है, खा लीजिये । उसने बड़े अनुनय-विनय से पूछा, हितकर साहब अब तो बताओ, बात कुछ और ही है। आप सोजती गेट जाकर वापस कैसे आ गये। मैंने लगभग टालते हुए हंसते हुए कहा नेहरूजी की याद आ गई इसलिए चला आया । सब पागलों के साथ चने - मूंगफली खाने का जो लुत्फ था ऐसा लुत्फ फिर कभी नहीं मिला । जसराज को जब वस्तुस्थिति पता चली, उसने इत्मिनान से कहा आप वर्षों यहां रहिए, यहां आता भी कौन हैं ? मैं शाम को घर जाकर भाभीसा को आपके समाचार पहुंचा दूंगा। जाते समय मेरे कपड़ों का बेग जरूर घर ले जाना और दो जोड़ी दूसरे ले आना। साथ में मेरे द्वारा मांगीलाल के हाथों भेजा गया सामान सुरक्षित मिल गया क्या, पूछकर आना । जसराज रात को आठ बजे वापस आया। मेरी बेचैनी लगातार बढ़ रही थी । आते ही उसने कहा वहां सब शान्ति है । आप व्यर्थ ही परेशान हो रहे थे। बैग सम्भाल लेना, मैंने देखा श्रीमतीजी का लिखा हुआ एक पर्चा मेरे हाथों से खड़खड़ाया जिसमें सब कुछ ठीक-ठाक है लिखा था। जसराज थका हुआ था उसे नींद आ गई। मेरी नींद कोसों दूर थी। अचानक मुझे ख्याल आया कि क्यों नहीं जसराज से कहकर पागलखाने के डॉक्टर से एक सर्टिफिकेट बनाया जाय। दूसरे दिन जब मैंने जसराज को बताया तो उसने अपने बिल्कुल हल्केपन से कहा "आछो होच करियो, आवण दो डाक्टर ने बणवां देवां ।" डॉ. शर्मा ने मुझे परीक्षण के तहत दो दिन पागलखाने में रहने का प्रमाण-पत्र दे दिया । यह प्रमाण-पत्र मेरे लिए सदैव ही परिहास का केन्द्र रहा।

सन् 1956 में मार्च महिने तक आन्दोलन तीव्र से तीव्र होता गया। सवाई सिंह धमोरा, तनसिंह महेचा और आयुवान सिंह तीनों को ही जयपुर कारागृह में रखा और वहां से बाद में उन्हें टोंक भेजा गया। इसी बन्दी गृह में रहते हुए आयुवान सिंहजी ने "राजपूत समाज और उसकी समस्याएं" व "ममता और कर्त्तव्य" जैसी पुस्तकों की रचना की। मेरा यह सौभाग्य रहा कि सन् 1957 में जब मैं उनसे जेल में मिलने के लिये कोटा गया तो तीन दिनों के अथक प्रयास के बाद जब मुझे उनसे मिलने का मौका नहीं मिला, तो मैं चौथे दिन सवाई सिंह धमोरा से मिलने की जेल सुपरिडेन्ट को एक अर्जी दी, उसी दिन उत्तर प्रदेश के कुछ राजपूत बन्धु जब आन्दोलनकारियों से मिलने आए तब मैं भी उस जत्थे में साथ हो गया। जेल के भीतर का माहौल बहुत उग्र हो रहा था। साधारण कैदियों से बैरक भरी हुई थी । आन्दोलनकारी नेताओं को अलग बैरक में रखा गया। मेरे सारे प्रयास विफल रहे क्योंकि मैं किसी से भी नहीं मिल सका। तीन-चार दिन लगातार कारागृह आने-जाने के कारण ठेडुराम मेघवाल नामक एक सफाई कर्मचारी को मैंने पटाया। मैंने उससे कहा क्या जेल में तुम्हारी चलती है? तब उसने कहा मैं किसी भी बेरक में आ जा सकता हूं, कोई रोक-टोक नहीं है। तब मैंने धीरे से कहा यह सिगरेट का पैकेट मेरे दोस्त को दे देना। कौन दोस्त? वही कमीजधारी जो दिन भर लिखता रहता है। मैंने उनके हुलिये के बारे में पूछा। उसके बताने पर मैं उत्साहित हो गया, मैंने उससे कहा ठहरो मैं पूरा सिगरेट का पैकेट लेकर आता हूं। सिगरेट बाहर निकाल कर मैंने कुछ गुप्त संदेश लिखा और फिर उसमें वापस सिगरेट भरकर पैकेट के आगे "हित" व पीछे "कर" लगा कर उसे दिया ।

जैसे-तैसे सिगरेट का पैकेट आयुवानसिंहजी को मिला। पहले तो उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ, जब ठेडुराम ने मेरी लगातार उपस्थिति के बारे में बताया तो उन्होंने बड़े उतावलेपन से समाचारों को पढ़ा एक छोटे से पुरचे में प्रति उत्तर लिखकर फराश ठेडुराम के जूते में उस कागज को छुपा कर भेजा। इस प्रकार कई छोटे मोटे उदाहरण है, जिनसे हमने भू-स्वामी संघ आन्दोलन को चलाने में गति प्रदान की। यहां से ठा. तनसिंह महेचा के बारे में कुछ न बताकर उनके योगदान को कम नहीं करना चाहता हूं।

तनसिंहजी से मेरे सम्बन्ध उतने ही प्रगाढ़ थे जितना की आन्दोलन के अन्य नेताओं के साथ थे। दृढ़ता उनके चेहरे पर दिखाई देती थी। उनके द्वारा किये गये कार्यों को देखकर मन श्रद्धा से भर जाता हैं। इस प्रकार भू-स्वामी संघ आन्दोलन में श्री हितकर ने अपनी अनूठी भूमिका अदा की। जो शायद जेल की यातनाओं से ज्यादा सजग और एक सच्चे सिपाही की तरह अपने कार्यों को अंजाम दिया ।


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