भू-स्वामी संघ आंदोलन : कहानी एक पत्रकार की जुबानी

Gyan Darpan
0

जोधपुर से प्रकाशित साप्ताहिक अख़बार "बलिदान" के संपादक श्री हितपाल सिंह "हितकर" श्री क्षत्रिय युवक संघ के सभी संस्थापक सदस्यों से जुड़े हुए थे। एक पत्रकार होने के नाते वे देश की आजादी के बाद राजस्थान में हुई तत्कालीन राजनैतिक उठापटक के वे प्रत्यक्ष गवाह भी थे। आपने उस वक्त कई मामलों में अपनी कलम के जरिये महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1956 में जागीरदारी उन्मूलन कानून के बाद भूस्वामियों द्वारा किये आंदोलन को जहाँ उन्होंने कवर किया वहीं आंदोलन में अपनी सक्रीय भूमिका भी निभाई।  इस लेख में प्रस्तुत है श्री हितपाल सिंह जी "हितकर" की कहानी उन्हीं की जुबानी, जिसे प्रकाशित किया है उनकी सुपुत्री डॉ . सुलेखा शेखावत ने "एक पत्रकार की व्यथा कथा" नामक पुस्तक में. ...

सन् 1955 मे कांग्रेस सरकार ने योजनाबद्ध तरीके से जागीरदारों की जागीरें जब्त करनी शुरू की। फरवरी 1956 में आयुवानसिंहजी का सांकेतिक आदेश मिला जिसमें उन्होंने संकेत दिये थे कि अब कमर कसने की जरूरत है, लेकिन जहां तक हो सके गिरफ्तारी से बचें। लेकिन समाचार-पत्रों का प्रकाशन लगातार होता रहे। मेरे समाचार पत्र की जिम्मेदारी भी तुम्हारी है। लेखनी तीक्ष्ण और संयमित होनी चाहिये। आर्थिक स्थिति भी इतनी अच्छी नहीं थी। ऐसे में दो-दो समाचार पत्रों का प्रकाशन और उसका खर्चा मेरे बूते के बाहर की बात थी। मैंने पत्र वाहक से पूछा क्या और भी कोई मौखिक संदेश दिया था। उसने ना में गर्दन हिला दी। श्रीमती भीतर वाले कमरे में दरवाजे के पास सटी खड़ी थी। इधर-उधर की बातें कर मैंने पत्रवाहक से पूछा तुम किस रास्ते से आये हो, तो उसने कहा कंटालिया हाउस से कृष्णा टॉकीज के पास से । मैंने उसे समझाया कि शायद मुझ पर निगरानी रखी जा रही है। तुम दूसरे दरवाजे से बाहर निकलना और अपने कंधे पर एक खाली पीपी यूं रख कर ले जाना जैसे तुम धान पिसाने जा रहे हो। उसके जाते ही मैंने श्रीमती से कहा कोई भी आए दरवाजा मत खोलना । श्रीमतीजी ने चिंतित होकर पूछा आप कहां जाओगे? छोटे-छोटे बच्चों को लेकर मैं कहां जाऊं? और क्या करूं?

मैंने उसे समझाते हुए कहा कि तीन-चार दिन की बात है वक्त हमेशा एक सा नहीं रहता। मैंने मांगीलाल को बुलाया और समदड़ी हाउस (सिंवाची गेट) साईकिल लेकर भेजा। इसके साथ ही उसे स्पष्ट कहा कि साईकिल समदड़ी हवेली से कहीं दूर खड़ी कर देना। मांगीलाल ने आकर बताया कि "घणी हैला मारिया कोई बारे निकलने नहीं आयो । माटसाहब (आयुवान सिंह जी) रो कमरो खुलो थो।" मैंने अब ये सोचना शुरू किया कि मैं भूमिगत होता हूं तो घर खर्च व प्रेस के लिए बन्दोबस्त कहां से करूं । तभी श्रीमतीजी ने मांगीलाल से कहा जा बेटा मदनजी सोनार को बुला कर ला । रामद्वारा की गली में उनका घर था। मुझे समझ में नहीं आया मैं खुन्दक खाता हुआ स्टोर रूम की तरफ गया। एक छोटे से बेग में अपने कपड़े डाले, कुछ महत्वपूर्ण सामग्री ली, बलिदान का लिखा हुआ समाचारों का पुलन्दा बेग में डाला । भैरूसिंहजी की प्रेस में जाकर "कर्म पथ" का ब्लॉक उठाया और पुनः घर की तरफ आया । मैंने देखा श्रीमती मदनजी सोनार से कह रही थी यह अंगूठी चुभती बहुत है, दूसरी बाद में बनवालेंगे आज इसे सुलटा दो। मदनजी ने झिझकते हुए कहा ऐसो कांई काम पड़ग्यो ठुकरानी सा, पैसा की व्यवस्था तो करनी पड़ेला थोड़ो टाईम लागेला। श्रीमती जी ने खाना पुरस कर बोला - "अभी आपका बाहर निकलना खतरे से खाली नहीं है। आप खाना शुरू करो आपका स्वेटर ऊपर धूप में डाला हुआ है।"

मेरी एक बहुत बुरी आदत थी, कुछ लोग तनाव में खाना छोड़ देते हैं लेकिन मेरी भूख तनाव में जागृत हो जाती है। कुछ देर में मदनजी सोनार एक सौ चालीस रुपये मुट्ठी में दबा कर लाये। मैं सोचने लगा शादी के बाद अब तक कोई गहना बना के नहीं दिया लेकिन एक-एक करके सारे आभूषण परिस्थितियों की भेंट हो रहे थे। श्रीमती ने बहुत सहजता से पैसे मेरे हाथ में रखे और बोले मुझे तो बीस रुपये दे दो बाकी आप सम्भालो ।

मैं अंधेरा होने का इन्तजार करने लगा, तभी निमोद ठाकुर साहब केसरीसिंहजी पधारे और उन्होंने बताया कि "भू-स्वामी संघ आन्दोलन' को और गति देनी होगी। मदनसिंहजी दांता के ऐलान पर हजारों राजपूत दांता गांव में इकट्ठे हो रहे हैं। यह सुनकर मैं रोमांचित हो गया। मैंने सारी परिस्थितियाँ विस्तार से समझाई। तब उन्होंने कहा कि "बलिदान" की 8 रुपये वार्षिक शुल्क की रसीद काटो और तुरन्त दांता पहुंचो और आज रात्रि विश्राम यहीं करूंगा। इस प्रकार बातों ही बातों में रात निकल गई। निमोद ठाकुर साहब लम्बे चौड़े, सांवले - सलौने कट्टर क्षत्रिय मानसिकता वाले ठाकुर थे। वे अपने आपको रघुनाथसिंहगोत कहकर गर्व महसूस करते थे । वे डिंगल, संस्कृत और धारा प्रवाह अंग्रेजी में भी लिख सकते थे। पर उनकी अंग्रेजी मिश्रित राजस्थानी होने के कारण कई बार हास्यापद परिस्थितियां बनाती थी।

दांता पहुंच कर हमने देखा कि क्षत्रिय महासंघ के आह्वान पर हजारों लोग दांता में इकट्ठे हो गये थे। बसें, जीपें व पैदल राजपूतों के जत्थे आने लगे। माईक में जबरदस्त ऐलान हो रहा था कि हमारे नेतृत्व करने वाले जल्दी ही पधारने वाले हैं, तब तक कुछ नवयुवकों ने अपनी स्वरचित कवितायें, दोहे व सवैया बोलने शुरू किये इन कविताओं ने लोगों में जोश भर दिया जिस कारण तालियों की गड़गड़ाहट के साथ शंखनाद होने लगे। विशाल मानव वेदनी को देखकर सरकार भी डगमगा गई । मदनसिंहजी दांता, मंगलसिंहजी खूड़, तनसिंहजी महेचा, तेजसिंहजी बीचावा (डीडवाना), गोरधनसिंहजी सेवरिया (पाली), केसरीसिंह रघुनाथपुरा, फतेहसिंहजी सानकोटड़ा (एक हाथ कटा हुआ), गंगासिंह लोसल जैसे कई वक्ताओं ने अपने विचार व्यक्त किये । आन्दोलन में यह तय हुआ कि सारे नेता भूमिगत हो जायेंगे शेष "राजपूत जेल भरो आन्दोलन में लगे रहेंगे । आन्दोलन को चलाने के लिए धन संग्रह किया गया । "बलिदान" के भी कई ग्राहक बने, रसीदें धडाधड कटने लगी। मैं दो दिन तक दांता में ही रूका रहा। नेताओं की धरपकड़ शुरू हो गई। प्रमुख नेता भूमिगत हो गए ।

रात्रि के ग्यारह बजे मैं तनसिंहजी से मिला । आयुवानसिंहजी ने मुझे इशारे से पूछा मेरे समाचार मिल गए। मैंने हाथ दबाकर सांकेतिक स्पर्श से प्रति उत्तर दिया। तीसरे दिन मैं अपने केमरे की रीलें धुलवाने जा रहा था तभी मैंने देखा कि सी.आई. डी. का एक कांस्टेबल मेरे घर के इर्द-गिर्द घूम रहा है। उसने रुक कर मुझसे सिगरेट मांगी, मैंने उसको सिगरेट जलाकर फुसफुसाते हुए पूछा। क्या समाचार है, उसने कहा धर-पकड़ शुरू हो रही है। आप जोधपुर से बाहर चले जाओ। मैंने मांगीलाल को बुलाया और इशारे से साईकिल लेकर आगे चलने को कहा। सोजती गेट, मेड़ती गेट होता हुआ मैं घण्टाघर पहुंचा। समझ में नहीं आ रहा था जाऊं तो कहां जाऊं? दोनों समाचार पत्रों (बलिदान व कर्म पथ) का प्रकाशन भी जरूरी था। मैंने केमरे में से रील निकाली और एक कागज में लपेटकर मांगीलाल को दी और बोला घर जाकर दे देना । कुछ पैसे भी उसकी जेब में डाले । घण्टाघर से सुई-डोरा खरीद कर उसके नोटों से भरी जेब को सिला, तब तक वो शरमाते हुए नंगा खड़ा रहा। आज मुझे अपनी लापरवाही का अहसास हुआ कि मेरी आर्थिक अव्यवस्था की चक्की में ये बच्चा भी पिस रहा है। घर का कुछ समान खरीद कर मांगीलाल को दिया और कहा कि साईकिल और सामान आराम से ले जा। मैंने केमरा उठाया, मांगीलाल को रवाना किया उसे एक रुपया खर्ची दी वह गद्गद् हो गया। मेरे पास एक बैग में दो जोड़ी कपड़े, केमरा व दोनों ब्लॉक व प्रकाशन सामग्री लेकर मैंने किले के रास्ते की तरफ जाना शुरू किया। अचानक मैं ठिठका और मण्डोर रोड़ की तरफ बढ़ गया। तभी मुझे याद आया कि कुशलराम का बड़ा भाई मण्डोर के पागल खाने में भर्ती है। पागल खाने का सुपरिटेन्डेट जसराज मेरे शुभचिंतकों में से था । उसने तपाक से पूछा आज पागलखाने क्यांन पधारनो हुओ? मैंने ठहाका लगाते हुये कहा समझदारों के साथ बहुत रह लिया, अब कुछ दिन इन पागलों के साथ ही रहूंगा। उसने भी मुस्कुराते हुये कहा, इनके जैसा ही बन के रहना होगा ।

क्रमश :....


एक टिप्पणी भेजें

0टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें (0)