Rao Duda Mertia मेड़ता का शासक राव दूदा : मेड़ता की पुनः स्थापना Part -3

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 भाग -2 से आगे। ......

मेड़ता की पुनः स्थापना

मेड़ता नगर, जिसे वरसिंह दूदा ने आबाद किया जोधपुर से 117 कि.मी. उत्तर - पूर्व में स्थित है। ऐसी मान्यता है कि पौराणिक राजा मानधाता ने इसे बसाया था। इसका प्राचीन नाम मेड़ंतक एवं मेड़तपुरा मिलता है। मंडोर के प्रतिहार सामन्त बाउक के ई.सं. 837 के अभिलेख से यह ज्ञात होता है कि उसके आठवें पूर्व पुरुष नागभट्ट ने अपनी राजधानी मेड़ता में स्थापित की थी।  ई.सं. 1302 में अलाउद्दीन खिलजी ने मेड़ता पर अधिकार कर अपना फौजदार नियुक्त किया था । ई. सं. 1318 में चौहान मालदेव सोनगरा का यहाँ अधिकार था । बाद में यह नगर उजड़ गया और काफी समय तक वीरान रहा। फलतः वहां जंगली वृक्षों की झंगी लग गई तथा वहां के उजड़े मकानों ने खण्डहरों का रूप ले लिया |



जब राव जोधा ने वरसिंह एवं दूदा को सम्मिलित रूप से मेड़ता प्रदान किया तब पिता की आज्ञा प्राप्त कर उन्होंने लाव-लश्कर सहित जोधपुर से प्रस्थान किया एवं पीपाड़ में रुके। वहां चौपड़ा हरकचंद से 3 लाख रुपये प्राप्त किये। फिर वहां से प्रस्थान कर चौकड़ी के पहाड़ों पर अपना शिविर डाला। वहां एक पहाड़ी का सर्वेक्षण कर वे गढ़ बनाने की मंत्रणा करने लगे। इस बीच राठौड़ उदा कान्हड़देओत शिकार के निमित्त वहां आया। कुछ समय बाद जब वह दूदा तथा वरसिंह से भलीभांति परिचित हो गया तो उनसे पूछा कि मैंने ऐसा सुना है कि आप यहां नवीन धरती बसाने आये हैं, इसके लिए क्या कोई स्थान चुना है ? तब वरसिंह एवं दूदा ने सर्वेक्षण किये गये पहाड़ों का अवलोकन कराया। इस पर उदा जैतमालोत राठौड़ ने कहा कि इससे अच्छी जगह मैं दिखलाता हूँ और वह उनको प्राचीन बेझपा कुंडल जलाशय पर ले गया। जहां पहले कभी मेड़ता नगर आबाद था । वरसिंह एवं दूदा ने इसी स्थान को उपयुक्त जानकर उदा के परामर्शानुसार वि.सं. 1518 चैत्र सुदि 6 (1519 चैत्रादि, ई.सं. 1462) को वहां कोट की आधारशिला रखी |

नैणसी ने अपनी ख्यात में मेड़ता की स्थापना का समय वि.सं. 1515 दिया है। जो अशुद्ध है क्योंकि उस वर्ष राव जोधा ने जोधपुर दुर्ग की नींव दी थी। अतः उसके कुछ समय बाद ही पुत्रों में भूमि वितरित करना ठीक प्रतीत होता है और उसके बाद ही मेड़ता की पुन: स्थापना हुई ।

मेड़ता की पुनः स्थापना सम्बन्धी कुछ भ्रान्त धारणाएँ प्रचलित हैं जिनका यहाँ निराकरण करना समीचीन होगा :

1. मेजर के. डी. इर्सकिन के अनुसार विश्नोई सम्प्रदाय के संस्थापक जांभाजी ने राव जोधा के चतुर्थ पुत्र दूदाजी को एक लकड़ी की तलवार दी थी जिसके द्वारा उन्होंने मेड़ता को विजय किया। 28

2. ठाकुर गोपालसिंह की मान्यता है कि मेड़ता उस समय मालवे के सुलतान महमूद खिलजी के अधिकार में था । मुसलमानों को परास्त कर दूदा ने मेड़ता पर आधिपत्य स्थापित किया ।

3. रामकर्ण आसोपा ने भी दूदा द्वारा मेड़ता किसी पूर्व अधिकारी से विजित करने की घटना का प्रतिपादन किया है।

मेजर के. डी. इर्सकिन का यह तथ्य कि लकड़ी की तलवार से मेड़ता विजय किया कपोल-कल्पना ही है क्योंकि ऐसे तर्क इतिहास के लिये सर्वथा अनुपयुक्त होते हैं। ठाकुर गोपालसिंह एवं रामकर्ण आसोपा का कथन भी विश्वसनीय प्रतीत नहीं होता क्योंकि मारवाड़ के परगनों की विगत, मुरारीदान की ख्यात तथा बांकीदास की ख्यात में स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि उस समय मेड़ता वीरान पड़ा था। अतः ऐसी दशा में युद्ध कर उस स्थान को विजय करने का प्रश्न ही नहीं उठता। इसके अतिरिक्त मालवा के इतिहास में भी इस घटना का उल्लेख नहीं मिलता है। 

शासन प्रबन्ध-

राठौड़ उदा के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर वरसिंह और दूदा ने उसे प्रधान पद पर नियुक्त किया । उदा ने मेड़ता परगने का गंगडाणा ग्राम बसाया तथा फलोदी ( मेड़ता रोड) से सांखला राजपूतों को खदेड़ कर वहां राठौड़ों का राज्य स्थापित किया | वरसिंह व दूदा के प्रयत्नों से चौकड़ी, कोसाणा, मादलिया आदि स्थानों से भी सांखलों को निष्कासित कर दिया गया । मेड़ता पहले से ही वीरान पड़ा था। सांखलों से लूटमार करने के अभियान में आसपास के भू-भागों की आबादी भी उजड़ गई। उस समय नागौर क्षेत्र के डांगा जाटों के वैमनस्य उत्पन्न होने से उनके नेता थिरराज डांगा ने मेड़ता में आकर अपने कबीले को स्थापित करने की इच्छा प्रकट की। वरसिंह एवं दूदा को खेतिहर लोगों की कमी महसूस हो रही थी, अतः उन्होंने थिरराज डांगा व उनके सहयोगियों को बसने की अनुमति प्रदान कर दी। फलतः खेमा, धना, स्यामा, हरकीसन, बुधा, देवा, बना, पना, दोला, खुमा, गांगा और नाना आदि जाट कृषक मेड़ता के रीयां, रांयण, रोहीया, मोडरी, नीलीया, भड़ाउ, कलरों और लांबिया आदि ग्रामों में आकर बस गये। उन्हें जोत के लिए भूमि वितरित कर दी गई  चारण तथा ब्राह्मणों को भी अनेक गांव सांसण के रूप में प्रदान किये गये। इस प्रकार के प्रयत्नों से मेड़ता आर्थिक एवं सामरिक दृष्टि से सुसम्पन्न नगर दृष्टिगोचर होने लगा ।

जयमल वंश प्रकाश के लेखक ठाकुर गोपालसिंह ने दूदा को वरसिंह से ज्येष्ठ होना स्वीकार किया है। लेकिन वास्तव में वरसिंह दूदा से बड़ा था । इसकी पुष्टि एक शकुन वार्ता से होती है। विगत में वर्णित बातां के अनुसार भी वरसिंह के ज्येष्ठ होने का आभास होता है। इसके अतिरिक्त लगभग सभी ख्यात ग्रन्थों में वरसिंह का नाम दूदा से पहले दिया है जो उसके ज्येष्ठ होने का द्योतक है। गोपालसिंह ने सम्भवतः अपने पूर्वज दूदा की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिये उसे वरसिंह से बड़ा होना लिख दिया हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं ।

क्रमशः। ..............................


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