सम्राट रामभद्र के बाद उसके पुत्र भोजदेव को प्रतिहार साम्राज्य का सम्राट बनाया गया। यह रामभद्र की रानी अप्पादेवी का पुत्र था तथा भगवती का उपासक था - " । भोजदेव को मिहिर था आदिवराह भी कहते थे। सम्राट भोजदेव के राज्य सिंहासन ग्रहण करने क साथ ही सबसे पहला कार्य बिखरे हुए साम्राज्य को वापस सुसंगठित करने का था । इसने प्रारम्भिक कुछ वर्षों में अपने साम्राज्य के प्रांतों को फिर से सुदृढ़ बनाया और कई एक अन्य क्षेत्रों को भी विजय करके अपने राज्य में मिलाया ।
राष्ट्रकूट ध्रुव से युद्ध
सम्राट भोजदेव के सिंहासन पर बैठने के कुछ समय बाद ही लाट के राष्ट्रकूट शासक ध्रुव द्वितीय ने प्रतिहार साम्राज्य के गुर्जर प्रदेश के सीमान्त क्षेत्रों पर आक्रमण किया। राष्ट्रकूटों के बगुम्रा दानपत्र के अनुसार इस युद्ध में ध्रुव को सफलता मिली" । परन्तु जब हम दक्षिण के राष्ट्रकूट सम्राट अमोधवर्ष प्रथम के नीलगुंडा लेख को देखते हैं तो उसमें ध्रुव के इस युद्ध का कोई वर्णन नहीं मिलता 20 | इसका
तात्पर्य यह है कि दक्षिणी राष्ट्रकूट सम्राट ने राष्ट्रकूट ध्रुव की इस विजय
को कोई महत्त्व नहीं दिया था इसे सरहदी युद्ध ही माना । परन्तु ध्रुव ने प्रतिहार
सम्राटों के क्षेत्रों पर आक्रमण को एक बड़ी सफलता मानते हुए अपने शिलालेखों में
प्राथमिकता से उद्धृत किया है।
भोजदेव के समय में बंगाल के पालवंशी शासक देवपाल ने गज सेना के साथ इस पर चढ़ाई की। भोज ने देवपाल को परास्त करके वापस खदेड़ दिया। इसके कुछ समय बाद एक बड़ी सेना चाटसू के सामन्त गुहिल द्वितीय की अध्यक्षता में बंगाल पर भेजी गई। सम्राट मिहिर भोजदेव की सेना ने गण्डक और सोन नदियों को पार करते हुए बिहार, त्रिभूत और उत्तरी बंगाल को विजय किया और इन प्रदेशों को प्रतिहार साम्राज्य में मिला लिया । इसके पश्चात प्रतिहार साम्राज्य की सेना ने आसाम के शासक को युद्ध में परास्त किया और उस प्रदेश को अपने अधिकार में ले लिया। सम्राट भोजदेव के शासनकाल के समय के मिले शिलालेखों, दानपत्रों एवं अन्य
ऐतिहासिक स्रोतों से अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि भोजदेव ने बंगाल के पालों के विरुद्ध अभियान में एक बार ही सेना भेजी या अनेक बार चढ़ाईयां करनी पड़ी, यह तथ्य अस्पष्ट है ।
बंगाल के युद्धों से निवृत होकर भोजदेव ने पंजाब पर आक्रमण किया। पंजाब पर इसका आसानी से अधिकार हो गया। इसने पंजाब में अलखान प्रतिहार को अपना सूबेदार नियुक्त किया। सम्राट भोजदेव के बढ़ते हुए प्रभाव को देखकर अफगानिस्तान के शाह वंश ने भी इससे मित्रता कर ली जिससे वे इसके एक प्रकार से अर्ध आधीन हो गये ।
सिन्ध के सूबेदार ऊमराव ने कच्छ पर आक्रमण करके वहां पर अपना अधिकार कर लिया था। भोजदेव ने इस पर हमला किया और अरबों को परास्त करके कच्छ से निकाल दिया। यह युद्ध ईस्वी 842 के कुछ समय बाद हुआ था। सम्राट मिहिर भोज ने अरबों को बहुत दबाया। इसके समय में सिन्ध के अन्दर हिन्दुओं को जिन्हें अरबों ने मुलसमान बना दिया था, उन्हें वापस शुद्ध करके हिन्दू बनाने का कार्य बड़ी तत्परता के साथ चला और इस कार्य को देवल ऋषि ने सम्पन्न कराया। भोजदेव ने नेपाल के श्रवस्ती मंडल को विजय कर लिया। उसके बाद नेपाल के शासक राघवदेव ने भारत सम्राट की मदद से ई. 879 तक समस्त नेपाल को तिब्बत साम्राज्य के अधिकार से निकाल लिया और भोज के आधीन हो गया। काश्मीर के उत्पल वंश के अवन्ती वर्मा की मृत्यु हो जाने पर वहां पर भी झगड़ा खड़ा हो गया । प्रतिहार सामन्त रत्नवर्धन ने उसके एक पुत्र शंकरवर्धन का पक्ष लिया और ई. 883 में उसे कश्मीर की गद्दी पर बैठा दिया। इस प्रकार काश्मीर भी एक प्रकार से प्रतिहार साम्राज्य के आधीन हो गया।
सम्राट भोजदेव ने खेटक मंडल और गंगावड़ी क्षेत्रों को भी राष्ट्रकूट अमोघवर्ष से छीन कर अपने साम्राज्य में मिला लिया 21 । इसका साम्राज्य बड़ा शक्तिशाली और समृद्धशाली था। यह प्रतिहार सम्राटों में सबसे महान और शक्तिशाली शासक हुआ। भारत में हिन्दूकाल में अशोक के बाद भोजदेव तथा इसके पश्चात कोई दूसरा महान सम्राट नहीं हुआ । सम्राट भोजदेव की विजय पताका अफगानिस्तान से लेकर आसाम तक फहराती थी और उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण के आन्ध्र तक फहराती थी। सम्राट भोजदेव जैसा सुयोग्य सेनापति और उत्तम शासक था वैसा ही साहित्यानुरागी, कलाप्रेमी और विद्वानों का आश्रयदाता भी था।
इसके समय में मेघातिथि और राजशेखर जैसे महान् विद्वान इसके दरबार की शोभा थे। मेघातिथि ने मनुस्मृति ग्रन्थ पर टीका लिखी है, जो कि बहुत ही प्रगतिशील विचारों की है। इसी प्रकार राजशेखर भी बड़ा धुरन्धर विद्वान था, जिसने बाल भारत, बाल रामायण, काव्य मीमांसा, भूवन कोष, कर्पूर मंजरी, विद्धशाल मंजिका आदि महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे हैं । सम्राट भोजदेव ने राजशेखर को अपने महेन्द्रपाल का शिक्षक नियुक्त किया था। युवराज भोजदेव ने अपने नाम से चांदी के सिक्के प्रचलित किये जो कि आदिवराह द्राम नाम से सुविख्यात हुये। इन सिक्कों की एक तरफ 'मदादिवराह' लेख अङ्कित है तथा दूसरी ओर विष्णु के वराह अवतार का चित्र है। वराह प्रतिहारों का ईष्टदेव था। व्यक्तिगत रूप से प्रत्येक सम्राट का अपना अपना इष्टदेव अलग-अलग होता था, परन्तु वराह तो उनके वंश का इष्टदेव था।
भीनमाल जो कि प्रतिहारों की प्राचीन राजधानी थी वहाँ पर एक बहुत विशाल वराह मन्दिर अवस्थित हैं। इसके समय में प्रतिहारवंशी साम्राज्य के तीन तरफ तीन बड़े शुत्र थे। पूर्व दिशा में बंगाल के शासक पाल, और पश्चिम दिशा में सिन्ध आदि प्रदेशों में खलीफा तथा दक्षिण में राष्ट्रकूट। इन तीनों ही शक्तियों के मुकाबले के लिये सम्राट भोजदेव को तीनों ही तरफ अपने साम्राज्य की सुरक्षा के लिये बड़ी सेनाएं रखनी पड़ती थी । प्रतिहारों से पहले भारत की जो शक्तियाँ थी जैसे मौर्य, गुप्त और हर्षवर्धन इन तीनों को केवल एक ही शत्रु से संघर्ष करना पड़ा था परन्तु प्रतिहारों को तीन शक्तिशाली शक्तियों से कड़े संघर्ष करने पड़े ।
सम्राट भोजदेव के विवाह सम्बन्ध में पृथ्वीराज विजय में वर्णन दिया है कि शाकम्भरी के चौहान शासक गुवक (द्वितीय) की बहिन कलावती ने स्वयंवर में प्रतिहार सम्राट भोजदेव का वरण किया था जिससे इसका विवाह हुआ था 22 । जब हम भोजदेव के इतिहास पर दृष्टिपात करते हैं तो ज्ञात होता है कि भोजदेव के एक से अधिक रानियाँ थी। प्रतापगढ़ अभिलेख में वर्णन दिया है कि भोजदेव की रानी चन्द्र भट्टारिक देवी से महेन्द्रपाल देव का जन्म हुआ 23। ईस्वी 888 के लगभग महान् सम्राट की मृत्यु हुई।
देवीसिंह मंडावा द्वारा लिखित पुस्तक "प्रतिहारों का मूल इतिहास" से साभार