प्रतिहार वंश का घटियाळा अभिलेख (वि. सं. 918 सन् 861 ई.)

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Ghatiyala Abhilekh : घटियाळा अभिलेख (वि. सं. 918 सन् 861 ई.)

ओं सग्गापवग्ग मग्गं पढ़मंसयलाण कारणं

देवं णीसे सदुरि अदलणं-परमगुरुणमह जिणणाहं ॥ 1

रहुतिल ओपडिहारो आसीसिरि लक्खणों तिरामस्स ।

तेण पडिहार वन्सो समुणई एत्थ सम्पतो ॥2

विप्पो सिरिहरि अन्दो भज्जा आसित्ति खत्तिआ भद्दा ।

अस्ससुओ उप्पणो वीरो सिरि रज्जिलो एत्थ ॥3

अस्सविण हरडणाँमोजा ओ सिरिणा हडोतिए अस्स।

अस्स वितण ओता ओतस्य विज सवद्धणो जाआ ॥4

अस्स विचन्दु अणामा उप्पणो सिल्लुओ विए अस्स।

झोडो तित स्सतणओ अस्स विसिरि भिल्लु ओजाई ||5||

सिरि भिल्लु अस्सतणओ कक्को गुरु गुणेहिगार विओ ।

अस्सविक क्कुअणा मोदुल्लहदेवी ए उप्पणो ॥6

ईसिवि अहिंह सिअ यहुरंभणि अंपलो इअंसो मं ।

णमयं जस्सणदीणांरासों थे ओथिरामेत्ती ॥7

णोजम्पि अंण असि अंण कयं णयलोइ अंणसम्भरिअं ।

थि अंण परिब्भमि अंजेण जणे कज्ज परिहीणं ॥ 8

सुत्थादुत्था दिपथा अहमातह अतिमाविसोक्खे।

जणणिव्वजेण धरि-आणि च्चांणि मण्डलेसव्वा ॥9

उअरोहरा अमच्छरलौहे हिमिणाय वाज्जी अंजेण ।

णकओ एहविसे सोववहारे कवि मणयम्पि ॥10

दिअवर दिण्णाणुज्जजेण जणं रञ्जि ऊणसय लम्पि।

णिम्मच्छरेण जणि अंदुठ्ठाण बिदण्डणिठ्ठवणं ॥ 11

धनरिद्ध समिद्धाणं नियउराणंणि अकरस्स अव्भहिअं ।

लक्खं सयञ्चसरि संतणं चतहजेणदिठ्ठाई ॥12

णवजोव्वणरूअप सहिएण सिंगार णुगण कक्केण ।

जणवयणिज्जमजजं जेण जणेणेह संचरिअ ॥13

बालाण गुरुतरुणाण तहससीगय वयाण तण ओव्व ।

इयसु चरिए हिणिच्वं जेण जणोपालि ओसव्वो ।।14।।

जेण णमन्तेण सया सम्माणं गुण थुई कुणन्तेण ।

जम्पन्तेणय ललिअं दिण्णं पणईण धणणि वहं ॥15

मरु माडवल्ल तमणी परि अंका अज्ज गुज्जर तासु ।

जणि आओ जेण विसमें वडणाणयमण्डले पयडं ॥17

णीलुप्पलदलगन्धा रम्मा मायदम हुअविं देहि ।

वरइच्छुपण्ण छष्णा एसा भूमि कयाजेण ॥18

वरिससएसुअणव सुअंठ्ठारहस मुग्गलेसुचेताम्मि ।

णक्खते वि हुहत्थे बुहवारे धवल बी आए ॥19

सिरि कक्कुएण हट्टं महाजणं विप्पपय इवणि वहुलं ।

रोहिसकू अगामेणिवेसि अंकिति विद्धीय ॥20

मड्डोअराम्मि एक्कोबीओ रोहिन्स कअगामम्मि ।

जेण जस रसव पुज्जाए एत्थम्भासमुत्थ विआ ॥21

तेण सिरिक्कुएणं जिणस्स देवस्सदुरिअ णिद्दलणं ।

कारविअंअचलमिमं भवणं भत्रीए सुहजणयं ॥ 22

अप्पि अमेएं भवणं सिद्धस्म धणे सरस्सगच्छाम्मि ।

तह सन्त अम्ब अम्बय बणि भाउडपमुह गाठठीए ॥ 23

श्लाध्येजन्म कुले कलंक रहितं रूपं नवं यौवनं ।

सौभाग्यं गुणं न शुचि मनः क्षांतिय शोनम्रता ॥24

अनुवाद :-

(1) परमगुरु जिननाथ को नमस्कार हो जो स्वर्ग और मोक्ष के मार्ग है, सभी में प्रथम कारण तुल्य हैं और सम्पूर्ण पापों का नाश करने वाले हैं।

(2) रघुकुल तिलक लक्ष्मण श्री राम का प्रतिहार था। उससे प्रतिहार वंश सम्पत्ति और समुन्नति को
प्राप्त हुआ।

(3) हरिचन्द्र के भद्र नाम की भार्या थी। उसके रज्जिल नाम का वीर पुत्र हुआ।

(4) रज्जिल के नरभट्ट नाम का पुत्र हुआ। उसके नागभट्ट उसके तात और उसके यशोवर्धन नाम का पुत्र हुआ।

(5) यशोवर्धन के चन्द्र नाम का हुआ, उसके शिलुक, उससे झोट और उसके भिल्लुक नाम का पुत्र हुआ।

(6) श्री भिल्लुक के गुण समूहों से गौरवान्वित श्री कक्क नाम का पुत्र हुआ । उसके दुर्लभ देवी में कक्कुक नाम का पुत्र हुआ ।

(7) उसकी मुस्कान खिलती हुई कली के समान थी, उसकी वाणी मृदु थी, उसकी सभी लीलाएं सुनिश्चित थीं, उसकी मैत्री पक्की होती थी मधुर और

(8) मानवता को लाभ पहुँचाए बिना वह न कभी बोला, न मुस्काया न उसने देखा या स्मरण किया या शान्त रहा या न विचरण किया अर्थात् उसकी प्रत्येक चेष्टा मानाव जाति के भले के लिए होती थी।

(9) उसने सदैव अपने राज्य में अपनी प्रजा का मातृत्व वात्सल्य भाव से पालन किया। चाहे कोई
निर्धन हो या धनवान, निम्न हो या उच्च ।

(10) उसने न्याय ये हटकर कभी रोष से, राग से, मत्सर भाव से या लौभ से किसी कार्य में दो के बीच किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया।

(11) द्विजवरों के सत्परामर्श का अनुसरण कर उसने सभी को प्रसन्न किया और मत्सर भाव से रहित होकर दुर्जनों को दण्डित भी किया।

(12) वह अपने समृद्ध नगर वासियों के साथ भले ही वे समृद्धतर या समृद्धतम हों या समानता का
व्यवहार करता था । वे सभी चाहे सहस्रपति हों या लखपति समान रूप से एक निश्चित कर राशि उसे दिया करते थे।

(13) यद्यपि नव यौवन के सौन्दर्य से सुशोभित था और प्रेमभाव से परिपूर्ण था परन्तु उसने कभी
लोगों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं किया कि उसे लज्जित होना पड़े।

(14) बच्चों के लिये वह गुरु के समान, तरुणों के लिए मित्र के समान और वृद्ध पुरुषों के साथ पुत्र के समान सद्व्यवहार कर उसने अपने श्रेष्ठ आचरण से सभी का पालन-पोषण किया।

(15) सदैव विनम्र रहकर, गुणों का सम्मान करते हुए और श्रेष्ठता की स्तुति प्रशंसा करते हुए मधुर वाणी से बोलकर उसने अपने से सम्बद्ध सभी को धन प्रदान किया। (16) उसने मरु-माड, बल्ल,
स्रमणी, परिअंका, अज्ज और गुजरात के लोगों में अपने सद्व्यवहार एवं गुणों के प्रति अनुराग उत्पन्न किया ।

(17) उसने वट्ट नामक बेडा नाणा) के दुर्गम पहाड़ पर सम्पूर्ण गौधन को एकत्र कर उसके परिमण्डल में कुछ गाँव बसाये ।

(18) इस भूमि को उसने नीलोत्पलों के दलों से सुरभित किया, आम्र व मधुक वृक्षों से रम्य बनाया तथा श्रेष्ठ इक्षुपर्णो से (गन्ना) आच्छादित किया।

(19-20) सं 918 चैत्र माह में जब चन्द्रमा हस्त नक्षत्र में था, शुक्ल पक्ष की द्वितीया, बुधवार को कक्कुक ने अपनी कीर्ति की वृद्धि करने हेतु रोहिन्स कूप ग्राम बाजार बनवाया जो महाजनों, विप्रों, क्षत्रियों एवं व्यापारियों से भरा रहता था।

 (21) उसने अपनी कीर्ति के पुंज रूप दो स्तम्भ निर्मित करवाये। एक मंड्डोअर ग्राम में और दूसरा

रोहिन्स कूप ग्राम में ।

(22) कक्कुक ने भक्तों को सुख प्रदान करने वाला और पापों को नष्टकरने वाला जिनेन्द्रदेव का यह
सुदृढ़ या अचल भवन बनवाया ।

(23) इस मन्दिर को पवित्र सिद्ध धानिश्वर के गच्छ में सिंह, शान्त, जम्बू, आम्रक, वणि और भाटक आदि महाजनों की गोष्ठी को समर्पित कर दिया।

(24) उत्तम कुल में जन्म निर्दोष रूप, नव यौवन, सौभाग्य, गुण भावना, पवित्र मन, क्षमा, सहिष्णुता, यश और नम्रता आदि गुणों से परिपूर्ण था ।

(‘राजस्थानके प्रमुख अभिलेख' संपादक-सुखवीरसिंह गहलोत पुस्तक से साभार)

 

 

 

 

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