शेखावाटी प्रदेश का प्राचीन इतिहास : मत्स्य जनपद

Gyan Darpan
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प्रारंभिक वैदिक युग में मत्स्यों का निवास स्थान सरस्वती और हषद्वती नामक वैदिक नदियों के, जो अब भू-गर्भ में विलुप्त हो चुकी हैं के बीच का प्रदेश था। उस काल उसे ब्रह्मऋषि देश या ब्रह्मावर्त का ही एक भाग मानते थे। सही अर्थो में वही आर्यावर्त था। आर्य ऋषियों की पवित्र तपस्थली नैमिषारण्य उसके समीप ही कहीं पर थी। महाभारत काल तक आते-आते मत्स्य जन वहां से हट कर आधुनिक बैराठ के चोतरफ के प्रदेश में स्थापित हो चुके थे। द्वैतवन वहीं पर था।
मत्स्यों के उक्त जनपद की सीमाएं मोटे रूप से इस प्रकार थी- उसके उत्तर में कुरु जनपद था। पश्चिम तथा पश्चिमोत्तर दिशा में जांगल देश था, जहां साल्वों के अनेक कबीले निवास करते थे। पूर्व में यादवों का शूरसेन जनपद था जिसके अन्तर्गत आज के भरतपुर, धोलपुर और करोली तक का भू-भाग समाहित था। शूरसेन की राजधानी मथुरा थी। दक्षिण मे ंमत्स्य की सीमायें कहां तक थी? यह कहना जरा कठिन है। मत्स्य के पश्चिम में साल्वों की साल्वेय शाखा का राज्य था जो त्रिवेणी तथा नांण अमरसर के पास स्थित साल्वेय पर्वत (अब जगदीश का पहाड़) से पश्चिम में फैला हुआ था।

उपर्युक्त सीमाओं से आबद्ध मत्स्य जनपद की तत्कालीन भैगोलिक स्थिति अलवर, ढूँढाहड़ तथा पुष्करारण्य तक फैली हुई मानी जा सकती हंै। पुराणों में एवं बाण के ‘हर्ष चरित’ में पारियात्र नाम से जिस देश का उल्लेख हुआ है- पुरातत्वज्ञों ने उसे मत्स्य जनपद का ही अपर नाम माना है। फिर भी विक्रम की अठारहवीं शताब्दी तक यहां के साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं में मत्स्य के नाम को गौरव के साथ स्मरण किया है। सं. 1802 विक्रमी में कवि पूरण द्वारा रचित ‘चम्पावती विलास’ का निम्नलिखित वर्णन दृष्टव्य है।

कासी सों ले दसहोंदिसि, जंह लग विप्र प्रवेस। पूरण कवि पंडित सबे, ताहि कहत ब्रह्मदेस।।
मथुरा सों पश्चिम दिसि, मत्स मुलक तिहि नाम। तामधि ढूंढाहड़ धरा, पुस्कर लों सुख धाम।।

प्राचीन संस्कृत वांगमय और बौद्ध जाताकों में मत्स्य जनपद से सम्बद्ध जो उल्लेख मिलते हंै उनका सारांश इस प्रकार है-
ऋग्वेद के एक सूक्त से ज्ञात होता है कि राजा त्रिवसु ने यज्ञ के निमित्त द्रव्य संग्रह करने हेतु मत्स्य जनपद पर आक्रमण किया था। वैदिक युग के आर्य जनपदों में भरतों और मत्स्यों का उल्लेख प्रमुख रूप से मिलता है 10। गोपथ ब्राह्मण में उन्हें साल्वों के पडो़सी माना है पुराणों और महाभारत में अन्य जनपदों के साथ मत्स्य जनपद का विस्तृत वर्णन मिलता है 11। मत्स्य जनपद की राजधानी शुरू में द्वैतवन में रही होगी, आज का देवती कस्बा द्वैतवन के खण्डहरों के रूप में विद्यमान है। महाभारतकाल में वहां के राजा विराट ने अपने नाम पर विराटनगर बसा कर उसे अपनी राजधानी का रूप दिया। कुछ विद्वान मांचेड़ी को भी राजा विराट कालीन एक प्रमुख नगर मानते हंै और उसे मत्स्यपुरी का अपभ्रष्ट रूप मानते हैं।

मत्स्य जनपद दुर्गम गिरि श्रृंखलावों एवं गहन वनों से आच्छादित था। क्षत्रियों द्वारा शासित वह जनपद धनधान्य से परिपूर्ण एवं अपने गोधन के लिए अति प्रसिद्ध था। मत्स्य जन शूरवीर, पराक्रमी और लड़ाकू योद्धा माने जाते थे। वे पराक्रमी पौरुवों की ही एक प्राचीन शाखा के प्रतिनिधि थे। (पार्जिटर पृ. 294) मनु ने कुरु और मत्स्यों को युद्ध के अग्रभाग (हरावल) में रखने की सलाह दी है। मनुस्मृति में कुरु, मत्स्य, शूरसेन और पांचाल जनपदों को ‘ब्रह्मऋषि क्षेत्र कहा है। वही प्रदेश कालान्तर में ‘ब्रह्मावर्त’ कहलाया। मत्स्य जन वैदिक धर्म के अनुयायी थे। बौद्ध जाताकों में मच्छ जनपद के नाम से इसका उल्लेख मिलता है।

महाभाग पाण्डवों ने अपनी विपत्ति के दिन इसी जनपद के गहन वनों में रह कर बिताए थे। उन्होंने अपने अज्ञातवास का अन्तिम वर्ष भी यहां के राजा विराट की सेवा में छùवेष में रह कर व्यतीत किया था 12। महाभारत के इतिहास प्रसिद्ध युद्ध में मत्स्यराज विराट और उसकी सेनाओं ने पाण्डवों का पक्ष लेकर घोर युद्ध लड़ा और प्राणों की आहुतियां दी थी। अर्जुन के पराक्रमी पुत्र अभिमन्यु का मत्स्य राजपुत्री उत्तरा के साथ विवाह हुआ, जिसके गर्भ से पाण्डवों के राज्य के उत्तराधिकारी परीक्षित का जन्म हुआ था। पाण्डवों ने भी त्रिगर्तकों से लड़े गए युद्ध में मत्स्यों की सहायता की थी। इस प्रकार मत्स्यों के पाण्डवों के साथ घनिष्ठ राजनैतिक सम्बन्ध थे। पश्चात् कालीन समय में भी मत्स्यजनों के यहां राज्य करने के प्रमाण पौराणिक आख्यानों में पाए जाते है।

‘स्वप्नवासदत्ता’ नाटक के रचयिता महाकवि भास के समसामयिक किसी अन्य कवि द्वारा रचित ‘वीणा वासवदत्ता’ नाटक से ज्ञात होता है कि मगध जनपद में जिस काल महाराजा बिम्बसार (श्रोणिक) राज्य कर रहे थे, उस काल मत्स्य में राजा शतमन्यु का शासन था। उस रचना के अनुसार कोशल में राजा प्रसेनजित, अवन्ति में प्रद्योत चण्डमहासेन, कौशाम्बी (वत्स जनपद) में उदयन, पांचाल में आरूणि, मथुरा में जयवर्मा और सिंधु में राजा सुबाहु राज्य कर रहे थे 13। उपर्युक्त वर्णन सन् 545 ईस्वी पूर्व का है, जब तथागत बुद्ध अपने धर्म का प्रचार करने में लगे हुए थे 14।

बौद्ध जातकों से विदित होता है कि बुद्ध के धर्म का प्रचार-प्रसार उस काल केवल प्राच्य भारत के मगध, काशी, कौसल, बृजि, मल्ल और शाक्य जनपदों तक ही सीमित था। मत्स्य जन वैदिक धर्मानुयायी ही थे। उनका सम्पर्क प्राच्यों की अपेक्षा उदीच्यों से अधिक था। साल्व, योधेय, आभीर, कुरु, मद्रक आदि राज्य उनके पश्चिम तथा उत्तर में स्थित साथी एवं मित्र राज्य थे। उनकी सांस्कृतिक परम्पराएं प्रायः एक जैसी थी।

सन्दर्भ :

10- Ancient Mid Indian Kshatriya Tribes Vol. IInd P 6, 8

11- पद्म पुराण अध्याय 3

12- Ancient Mid Indian Kshatriya Tribes Vol. IIIrd P 9, 71, 72

13- विक्रम स्मृति ग्रंथ (सं. 2009 वि.) पृ. 571

14- चन्द्रगुप्त मौर्य और उसका काल पृ. 33 डॉ. राधाकुमुद मुकर्जी।
भारत के प्राचीन राजवंश पृ. 39 पं. विश्वेश्वरनाथ रेऊ।

लेखक : ठाकुर सुरजनसिंह शेखावत, झाझड़

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