दुर्गादास राठौड़ को देश निकाला दिए जाने का सच

Gyan Darpan
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दुर्गादास राठौड़ को लेकर इतिहासकारों व आमजन में एक बहुत बड़ी भ्रान्ति फैली हुई है कि बुढ़ापे में वीर दुर्गादास को जोधपुर के राजा अजीतसिंह ने देश निकाला दे दिया था| आपको बता दें वीर शिरोमणि दुर्गादास का निधन महाकाल की नगरी उज्जैन में हुआ| शिप्रा नदी के तट पर उनका दाह संस्कार किया गया जहाँ बना छतरी रूपी स्मारक आज भी उस महान स्वामिभक्त, देशभक्त, महान कुटनीतिज्ञ, योद्धा का स्मरण कराता है| निधन के समय वीर दुर्गादास 80 वर्ष के थे| वीर दुर्गादास ने जोधपुर के राजा अजीतसिंह को को शिशु अवस्था में औरंगजेब के चुंगल से निकालकर, उनका लालन पालन कराया और आजीवन उनके राज्यारोहण के लिए औरंगजेब से लड़ते रहे| ऐसे में जब उनके बारे में यह पढने को मिले कि 80 वर्ष की आयु में उसी राजा द्वारा जिसे उन्होंने राजा बनाया देश निकाला दे दिया गया, बात गले नहीं उतरती|

सच तो यह है कि अजीतसिंह ने ना तो दुर्गादास को देश निकाला दिया ना ही ऐसा करने का उनमें सामर्थ्य था, क्योंकि उस वक्त दुर्गादास राजपूत राजाओं की नजर में ही नहीं दिल्ली के बादशाहों की नजर में भी देश के महत्त्वपूर्ण व काम के व्यक्ति थे| उन्हें देश निकाला देने का मतलब अजीतसिंह का सबकी नज़रों में गिरना होता| दरअसल यह भ्रान्ति फैली समकालीन जैन यति जयचंद की रचना से| जयचंद ने लिखा- “दुरग नै देखवटो दियो|” फिर एक दोहा प्रचलित हुआ और यह भ्रान्ति इतिहास बन गई-|दोहा- महाराजा अजमाल री जद पारख जाणी| दुरगो देश काढियो, गोलां गंगाणी|| जैन यति जयचंद के हवाने से ही कर्नल टॉड ने यह बात आगे लिख दी| लेकिन दुर्गादास को देश निकाला की बात असत्य है| दुर्गादास राठौड़ ने स्वयं मारवाड़ राज्य से दूरी बना ली थी| उसके उनकी वृद्धावस्था सहित कई कारण थे|

दरअसल दुर्गादास राठौड़ का महाराष्ट्र, मेवाड़, जयपुर आदि देश के विभिन्न क्षेत्रों में आना-जाना लगा रहता था, जोधपुर के बहुत से जागीरदार व सामंत उसके प्रभाव से जलते थे, कारण साफ़ था वे बड़े जागीरदार ठिकानों के मालिक थे और दुर्गादास राठौड़ एक साधारण राजपूत थे, बावजूद उनकी महत्ता ज्यादा थी उनकी इसी महत्ता के चलते जोधपुर के कई सरदार उनके विरोधी थे  जोधपुर महाराजा अजीतसिंह इन्हीं दुर्गादास विरोधियों से घिरे हुए थे| रही सही कसर 1708 ई. में सांभर के युद्ध में मारवाड़ व आमेर की सेनाओं द्वारा शानदार विजय के बाद अजीतसिंह निधड़क हो गए और पूर्व जैसे विनम्र नहीं रहे| इतना ही नहीं दुर्गादास के कहने पर शहजादा अकबर के बच्चों की देखभाल करने वाले जोशी गिरधर रघुनाथ सांचोरा को दण्डित किया व काल-कोठरी में डाल दिया, जहाँ उसकी भूख-प्यास से मृत्यु हो गई| यही नहीं दुर्गादास राठौड़ के महत्त्वपूर्ण सहयोगी व जोधपुर के महामंत्री रहे मुकन्ददास चाम्पावत व उनके भाई रघुनाथ सिंह चाम्पावत की जोधपुर दुर्ग में हत्या करवा दी गई| जिससे वीर दुर्गादास राठौड़ को गहरा धक्का लगा| फिर सांभर के युद्ध में अजीतसिंह ने दुर्गादास राठौड़ को अन्य राठौड़ सरदारों के साथ पड़ाव डालने के स्वयं धौंस भरे लहजे में आदेश दिए, बावजूद दुर्गादास राठौड़ ने उनके आदेश की अवहेलना करते हुए अपना डेरा अलग रखा| अपने सहयोगियों व विश्वासपात्रों के साथ अजीतसिंह के व्यवहार के बाद स्वयं दुर्गादास को अन्य राठौड़ सरदारों के साथ डेरा लगाने की बात कहने से वे क्षुब्ध हो गए| दुर्गादास को अब लगा कि जोधपुर महाराजा को अब उनकी आवश्यकता नहीं है और विरोधी सरदारों के षड्यंत्र में पड़कर अजीतसिंह कहीं उनका अपमान ना कर दे, यही सोच उन्होंने मारवाड़ से दूरी बनाने का निर्णय लिया|

साम्भर युद्ध में विजय के बाद मुग़ल सत्ता उखाड़ने के उद्देश्य से आमेर-मारवाड़ नरेशों ने मेवाड़ को भी गठबंधन में शामिल करने का निर्णय लिया और इसकी जिम्मेदारी दुर्गादास राठौड़ को सौंपी| दुर्गादास दोनों नरेशों का सन्देश लेकर मेवाड़ गए, पर महाराणा अमरसिंह को इस गठबंधन में रूचि नहीं थी, सो उन्होंने इस समबन्ध में कोई संतोषजनक जबाब नहीं दिया| यही नहीं महाराणा को अजीतसिंह व दुर्गादास जी के मध्य नाराजगी का भी पता चल गया अत: उन्होंने दुर्गादास को सादड़ी गांव जागीर में देकर मेवाड़ में रहने का बंदोबस्त कर दिया| बाद में उन्हें डग परगना व मालपुरा के दक्षिण में चम्बल के पूर्वी तट पर कुछ और गांव दिए गए| यहाँ रहते दुर्गादास राठौड़ ने मेवाड़ के कई बखेड़े सुलझाये| इस वक्त दुर्गादास राठौड़ उम्र के 78 पड़ाव पुरे कर चुके थे अत: उन्होंने शेष जीवन किसी पवित्र स्थान पर बिताने का निर्णय लिया और वे उज्जैन चले आये| जहाँ ईश्वर ध्यान व प्रार्थना करते हुए 22 नवम्बर 1718 को स्वर्गलोक गमन कर गए| उनके निधन के वक्त उनकी आयु 80 वर्ष 3 माह 28 दिन थी|

इस तरह वीर शिरोमणि दुर्गादास ने परिस्थितियों का आंकलन कर मारवाड़ से स्वयं दूरी बना ली, जिसे हम उनके द्वारा स्वैच्छिक निष्कासन का नाम से सकते हैं, पर महाराजा अजीतसिंह द्वारा उन्हें देश निकाला देने की बात सर्वथा मिथ्या है, झूंठ है| इस सम्बन्ध में आप दुर्गादास राठौड़ पर प्रमाणिक रूप से इतिहासकार रघुवीरसिंह द्वारा लिखित पुस्तक “दुर्गादास राठौड़” जिसका हिंदी अनुवाद बालकराम नागर ने किया है पढ़कर अपनी तसल्ली कर सकते हैं|

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