भानगढ़ के राजा माधोसिंह

Gyan Darpan
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Bhangarh ke Madho Singh, Bhangarh Fort History in Hindi

भानगढ़ का किला दुनिया की चर्चित व प्रसिद्ध भूतहा जगहों में से एक है| उस किले में भूत है या नहीं, उसके उजड़ने से जुड़ी कहानियां कितनी सच है उस पर ज्ञान दर्पण पर पहले ही लिखा जा चुका है आज हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे है भानगढ़ के वीर राजा माधोसिंह का परिचय-

आमेर के राजा भगवन्तदास जी के दूसरे पुत्र माधोसिंह को भानगढ़ की जागीर मिली थी| मालपुरा भी इनकी जागीर में था| मुहता नैणसी ने अपनी ख्यात में अजमेर भी माधोसिंह की जागीर में होना लिखा है| माधोसिंह ने अपने पिता भगवन्तदासजी और भाई मानसिंहजी के साथ बादशाही सेवा में रहते हुए अफगानिस्तान, कश्मीर, पंजाब आदि कई अभियानों में वीरता प्रदर्शित कर अपनी वीरता का लोहा मनवाया था| आमेर में व आमेर के कछवाहों की इतिहास पुस्तकों में उनकी वीरता, शारीरिक बल, ताकत की अनेक कहानियां प्रचलित है| शाही दरबार में उनका मनसब 3000 जात और 2000 सवार था|

15 जून 1574 ई. को बादशाह पूर्व के लिए रवाना हुआ, उस समय माधोसिंह भी उसके साथ थे| गुजरात युद्धों के साथ ही सरनाल के ऐतिहासिक युद्ध में भी वे लड़े थे| बादशाह के भाई हकीममिर्जा के विरुद्ध काबुल अभियान में ये मानसिंह के साथ थे और मुग़ल सेना की हरावल (अग्रिम पंक्ति) थे| उस युद्ध का वर्णन करते हुए अबुल फजल लिखता है- मुग़ल सेना जिसमें कछवाह हरावल में थे| वह हरावल लोहे की चट्टान की तरह थी अंत में काबुलियों ने हिम्मत हारकर मैदान छोड़ दिया|

हल्दीघाटी के युद्ध में भी माधोसिंह बादशाही सेना की अग्रिम पंक्ति में थे| जब राजा जगन्नाथ कछवाह शत्रुओं से घिर गए थे तब इन्होंने आगे बढ़कर उन्हें बचाया था| राजा मानसिंह आमेर पुस्तक के पृष्ठ 78 पर लेखक राजीव नयन प्रसाद हल्दीघाटी युद्ध पर बदायुनी के उल्लेख का जिक्र करते हुए लिखते है- "उसने यह उल्लेख किया है कि राणा व्यक्तिगत तौर पर माधवसिंह (कुंवर मानसिंह का अनुज) से लड़ने आया|" राणा प्रताप द्वारा माधोसिंह से व्यक्तिगत युद्ध हेतु आने का कारण शायद राजपुरोहित गोपीबल्लभजी द्वारा लिखित और छाजूसिंह बड़नगर द्वारा सम्पादित व अनुवादित पुस्तक "कछवाहों की वंशावली" में लिखी घटना का बदला लेने आना हो सकता है| इस घटना पर उक्त पुस्तक के पृष्ठ 24,25,26 पर लिखा है-

"वापिस आते समय राजा भगवन्तदासजी तो अपनी सेना के साथ आगे रहते थे| वे दिल्ली को वापिस आ गए और मानसिंहजी स्वयं पीछे से आये| गोगुन्दा में से राणा प्रताप को खबर मिली कि मानसिंहजी गुजरात से वापिस आ रहे है और वे इससमय मेवाड़ में है| तब उन्होंने जाकर गोगुन्दा घाटी का रास्ता रोक दिया| तब कुंवर मानसिंहजी घाटी में रुक गए| उन्हें विवश होकर रुकना पड़ा| और राणा प्रताप ने लिख भेजा-

मान्या मऊ न जाण, घर घोघुदो घालसी|
अकबर फूफो आण, सिर सिसोद्धा भांजसी||

हे ! मान्या (मानसिंह) इसे मऊमत जान, यह गोगुन्दा (मेवाड़) की भूमि है| यह गोगुन्दा का मैदान तेरे को नष्ट कर देगा| फूफा अकबर ही आकर के सिसोदियों का सिर तोड़ (पराजित) सकता है|
तन यह खबर (राणा प्रताप ने मानसिंहजी को गोगुन्दा की घाटी में रोक लिया है) माधोसिंहजी (मानसिंहजी का छोटा भाई) ने सुनी| खबर सुनते ही माधोसिंह सांगानेर (चितौड़ के पास का एक गांव) से चढ़ कर आये| मानसिंहजी की सहायतार्थ ससैन्य आये| धर कूंचा-धर कूंचा गए| माधोसिंह के वहां आने की खबर दमामी (नगारची) ने जाकर कुंवर मानसिंहजी को अरज कराई कि माधोसिंहजी आ गए| तब कुंवर मानसिंहजी ने फ़रमाया कि माधोसिंह अभी कहाँ है मेरे पास तो कोई समाचार नहीं आया और तू ऐसे कैसे कह रहा है| तब दमामी ने निवेदन किया- जमनाप्रसाद नगारा थरथराया है, जिससे मैं अरज कर रहा हूँ| इसलिए इसमें कोई कसर (गलती) निकले तो श्रीमान की मरजी में आये वह मेरे साथ करे| जमनाप्रसाद नगारा मानसिंहजी के पास था और नगारी माधोसिंहजी के पास थी| माधोसिंह ने नगारी बजाकर अपने आने की सूचना दी| इसलिए नगारी की दूर से आती हुई आवाज से नगारा जमुनाप्रसाद थरथराया जिससे उनके आने की जानकारी मिली| माधोसिंह ने आकर नाका (घाटी) में राणा प्रताप से युद्ध किया, इसलिए युद्ध में तलवारें चली| उन्होंने राणाजी के कितने ही आदमियों को युद्ध में मार डाला| राणा प्रताप वहां से भाग गए| माधोसिंह अकेले ही राणा प्रताप के पास पहुंचे और जाकर कहा कि तुझे मैं मारूंगा तो नहीं और माधोसिंह की एक निशानी तो लेता जा| अपने घोड़े को दौड़ा कर गए, उनके पास बूड़ी सैल (भाला) का था| उन्होंने सेल की बूड़ी की राणा प्रताप के मुंह पर मार दी| जिससे उनके सामने के दांत टूट गए और उनका होठ टूट (घायल) गया| राणा भाग गए|

घर घरतो घोड़ी करूँ| मऊ मरुँ मैदान||
मुख राणा कै मांडणा| माधो तणां सेनाण||

हे ! राणा प्रताप ! तेरे को घोड़ी बना दूंगा| (एक देशी खेल जिसे बच्चे खेलते है) जिससे तू घरघराट करेगा| मऊ को मैं मैदान (रण क्षेत्र) बना दूंगा| माधोसिंह ने राणा प्रताप के भाले की बूड़ी का ऐसा वार किया कि जिससे उनके मुख पर माधोसिंह का दिया हुआ निशान बन गया|"
इस सम्बन्ध में एक दोहा और भी मिलता है-

गोगुन्दा का घाट पर, मचियो घाण मथाण|
मुख राणा रा मंडना, माधव रा एलाण||
इस घटना की पुष्टि करते हुए राजीव नयन प्रसाद लिखित पुस्तक "राजा मानसिंह आमेर" की भूमिका में भी इसी तरह का विवरण लिखा गया है| माधोसिंह एक बार आमेर आये हुए थे| रात्री के समय महल के झरोखे में बैठे थे| वहां से अचानक गिरने से उनकी मृत्यु हो गई| आमेर के महलों के नीचे उसी स्थान पर स्मारक के रूप में चबूतरा बना है जिसे जनता आज भी पूजती है|

इतिहासकार ओझाजी को भानगढ़ में माधोसिंह जी के दो शिलालेख मिले जो वि.स. 1642 माघबदी एकम का व दूसरा वि.सं. 1655 का है| माधोसिंहजी के तीन पुत्र थे- सुजाणसिंह, छत्रसिंह, तेजसिंह| माधोसिंहजी के निधन के बाद छत्रसिंह को भानगढ़ मिला जिन्होंने अपने दो पुत्रों के साथ खानजहाँ लोदी के साथ युद्ध में वीरगति प्राप्त की| छत्रसिंह के एक पुत्र अजबसिंह ने भानगढ़ के पास ही अपने नाम से अजबगढ़ बसाया| छत्रसिंह (छत्रसाल) के पुत्र उग्रसेन थे जिन्हें शाहजहाँ के दरबार में 800 जात और 400 सवार का मनसब प्राप्त था| माधोसिंहजी के एक वंशज हरिसिंह का वि.सं. 1723 का लिखा एक शिलालेख प्राप्त हुआ है जिसमें लिखा है कि यह वि.सं. 1722 माघ बदी एकम को भानगढ़ की गद्दी पर बैठे| औरंगजेब के काल में माधोसिंह के दो वंशजों ने मुसलमान बनकर अपने नाम मोहम्मद कुलीज और मोहम्मद दहलीज रखा था, उन्हें भानगढ़ की जागीर दी गई| मुगलों का कमजोर पड़ने पर महाराजा सवाई जयसिंह जी ने इन्हें मार कर भानगढ़ पर कब्ज़ा कर लिया और माधोसिंह जी के अन्य वंशजों को अपने अधीन जागीरदार बना लिया|
सन्दर्भ :
1- कछवाहों की वंशावली, लेखक राजपुरोहित गोपीबल्लभ, 2- राजा मानसिंह आमेर, लेखक राजीव नयन प्रसाद 3- कछवाहों का इतिहास, लेखक कुंवर देवीसिंह, मंडावा

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2टिप्पणियाँ

  1. महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी का युद्ध जीत लिया था , हमेशा से हिन्दुओ के इतिहास को तोड़ मरोड़ के पेश किया गया है , पहले मुग़लों ने अपने हिसाब से इतिहास से छेड़छाड़ की फिर अंग्रेज़ो ने ,, महाराणा प्रताप वीर योद्धा थे जिनसे अखबर की शमशीर भी भय खाती थी , अपनी जानकारी ठीक की जिये , असली इतिहास बताइये

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