चितौड़ की रानी पद्मिनी का जौहर (विडियो सुनें)

Gyan Darpan
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विस्मृति बता रही है- यह तो रानी पद्मावती का महल है | इतिहास की बालू रेत पर किसी के पदचिन्ह उभरते हुए दिखाई दे रहे है| समय की झीनी खेह के पीछे दूर से कहीं आत्म-बलिदान का उत्सर्ग की महान परम्परा का कोई कारवां आ रहा है| उस कारवां के आगे चंडी नाच रही है| तलवारों की खनखनाहट और वीरों की हुंकारे ताल दे रही है| विकराल रोद्र रूप धारण कर भी वह कितनी सुंदर है| कैसी अद्वितीय रणचंडी है| पुरातन सत्य बढ़ा आ रहा है| कितना मंगलमय है| कितना सुंदर है| कितना भव्य है|

हाँ ! यह रानी पद्मावती के महल है-चारों और जल से घिरे हुए पत्थरों ने रो-रो कर आंसओं के सरोवर में गाथाओ को घेर लिया है | दुःख दर्द और वेदना पिघल-पिघल कर पानी हो गई थी अब सुख-सुख कर फ़िर पत्थर हो रही है | जल के बिच खड़े हुए यह महल ऐसे लग रहें है, जैसे वियोगी मुमुक्ष बनकर जल समाधी के लिए तत्पर हो रहे रहे हों,अथवा सृष्टि के दर्पण में अपने सोंदर्य के पानी को मिला कर योगाभ्यास कर रहें हों | यह रानी पद्मिनी के महल है | अतिथि-सत्कार की परम्परा को निभाने की साकार कीमतें ब्याज का तकाजा कर रही है; जिसके वर्णन से काव्य आदि काल से सरस होता रहा है,जिसके सोंदर्य के आगे देवलोक की सात्विकता बेहोश हो जाया करती थी; जिसकी खुशबू चुराकर फूल आज भी संसार में प्रसन्ता की सौरभ बरसाते है उसे भी कर्तव्य पालन की कीमत चुकानी पड़ी ?
सब राख़ का ढेर हो गई केवल खुशबु भटक रही है-पारखियों की टोह में | क्षत्रिय होने का इतना दंड शायद ही किसी ने चुकाया हो | भोग और विलास जब सोंदर्य के परिधानों को पहन कर,मंगल कलशों को आम्र-पल्लवों से सुशोभित कर रानी पद्मिनी के महलों में आए थे,तब सती ने उन्हें लात मारकर जौहर व्रत का अनुष्ठान किया था |

अपने छोटे भाई बादल को रण के लिए विदा देते हुए रानी ने पूछा था,- " मेरे छोटे सेनापति ! क्या तुम जा रहे हो ?" तब सोंदर्य के वे गर्वीले परिधान चिथड़े बनकर अपनी ही लज्जा छिपाने लगे; मंगल कलशों के आम्र पल्लव सूखी पत्तियां बन कर अपने ही विचारों की आंधी में उड़ गए;भोग और विलास लात खाकर धुल चाटने लगे | एक और उनकी दर्दभरी कराह थी और दूसरी और धू-धू करती जौहर यज्ञ की लपटों से सोलह हजार वीरांगनाओं के शरीर की समाधियाँ जल रही थी |

कर्तव्य की नित्यता धूम्र बनकर वातावरण को पवित्र और पुलकित कर रही थी और संसार की अनित्यता जल-जल कर राख़ का ढेर हो रही थी | शत्रु-सेना प्रश्न करती है -

" यह धुआं कैसा उठ रहा है ?"

दुर्ग ने उत्तर दिया -" मूर्खो ! बल के मद से इतरा कर जिस भौतिक वैभव के लिए तुम्हारी कामनाएं है, वही धूम्र-मय यह संसार है, जो अनित्य है | पीड़ित मिट गए पर सबल से सबल आततायी भी शेष न रह पायें है ? जिनके सुख, स्वतंत्रता और स्वाधीनता के साथ आज तुम खिलवाड़ करना चाहते हो, अमरलोक में इन्ही के खेल तुम्हारी बर्बरता पर व्यंग्य से मुस्करायेंगे |"



स्व. तनसिंह जी, बाड़मेर द्वारा लिखित और ब्लॉ. ललित शर्मा जी के सीजी रेडियो द्वारा आवाज रिकार्डेड




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