कवि ने सिर तुड़वाया पर सम्मान नहीं खोया

Gyan Darpan
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अक्सर लोग चारण कवियों पर आरोप लगा देते है कि वे राजपूत वीरों की अपनी रचनाओं में झूंठी वीरता का बखाण करते थे पर ऐसा नहीं था| राजपूत शासन काल में सिर्फ चारण कवि ही ऐसे होते थे जो निडर होकर अपनी बात अपनी कविता में किसी भी राजा को कह डालते थे| यदि राजा ने कोई गलत निर्णय भी किया होता था तो उसके विरोध में भी चारण कवि राजा को हड़काते हुए अपनी कविता कह डालते थे|

ऐसा ही एक उदाहरण यहाँ प्रस्तुत है जो साफ जाहिर करता है कि चारण कवि निडर होकर राजाओं को कविता के माध्यम से लताड़ भी दिया करते थे, यही नहीं अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए और अपने सम्मान की रक्षा के लिए वे अपने प्राणों की भी परवाह नहीं करते थे-

चारण कवि उदयभान जी बारहट मेवाड़ राज्य के ताजिमी सरदार थे| उस वक्त मेवाड़ की राजगद्दी पर महाराणा राजसिंह जी आरूढ़ थे| एक दिन कवि उदयभान जी महाराणा से मिलने आये पर सयोंग की बात कि उस वक्त महाराणा राजसिंह जी के पास बादशाह शाहजहाँ के प्रतिनिधि चंद्रभान जी आये हुए थे और किन्ही जरुरी बिंदुओं पर दोनों के मध्य वार्तलाप हो रहा था| महाराणा ने पहले ही अपने पहरेदारों को कह दिया था कि- "जब टक मैं बादशाह के प्रतिनिधि के साथ बातचीत कर रहा हूँ तब तक किसी को मेरे पास मत आने देना बेशक वह कोई ताजिमी सरदार ही क्यों न हो|"

जब कवि उदयभान जी महाराणा के उस कक्ष की ओर जाने लगे तो पहरेदारों ने उनको रोका और बताया भी कि उधर जाने का हुक्म नहीं है इस वक्त महाराणा बादशाह के प्रतिनिधि से बात कर रहे है सो वे किसी की भी ताजिमी भी नहीं लेंगे|
अब ये बात स्वाभिमानी चारण कवि को कैसे बर्दास्त होती ? उनके हृदय में इस बात ने आग भरदी| और वे सोचने लगे- "क्या महाराणा को अब बादशाह के प्रतिनिधि के आगे किसी इज्जतदार को इज्जत देते हुए भी शर्म आ रही है क्या ? ये तो शर्म की बात है | गुणीजनों का आदर करने की मेवाड़ राज्य के महाराणाओं की रीत तो आदिकाल से ही चली आ रही है| जिसे आज खंडित कैसे होने दिया जा सकता है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि बादशाह की देखा देखि महाराणा राजसिंह जी भी लोगों को छोटा बड़ा समझने लगे हों| और वैसे भी चारण कवि तो राजाओं के चाबुक रहे है| गलत राह पर चलते राजा को सही दिशा दिखाना वैसे भी मेरा कर्तव्य है इसलिए इस वक्त मुझे जरुर जाना चाहिए|"

और ये सब सोच कवि महाराज पहरेदारों को हड़काते हुए महाराणा के पास जा पहुंचे और जाकर मुजरा (अभिवादन) किया| पर हमेशा की तरह महाराणा ने वापस खड़े होकर उनका अभिवादन नहीं स्वीकारा| ये देख कवि उदयभान जी के हृदय तो मानों आग गयी हो और उन्होंने उसी वक्त बादशाह के प्रतिनिधि के आगे ही महाराणा को धिक्कारते हुए एक दोहा कह डाला-
गया जगतपति जगत सी, जग रा उजवाला|
रही चिरमटी बापड़ी, कीधां मुंह काला||

कद्रदान जगतसिंह जी तो चल बसे और अब उनका बेटा राजसिंह है जो वंश का काला मुंह करने लायक जैसा रह गया है|
ऐसे शब्द और वो भी बादशाह के प्रतिनिधि के आगे| महाराणा राजसिंह जी ने तो आगबबूला हो अपना आपा ही खो दिया| और पास ही पड़ा एक भारी भरकम लोहे का गुरंज (ये हथियार अक्सर राजसिंह जी अपने पास रखते थे) बारहट कवि जी के सिर पर दे मारा| गुरंज की पड़ते ही कवि के सिर की कपाल क्रिया हो गयी और वहीँ उनके प्राण निकल गए|
कवि उदयभान जी बारहट मर गए पर अपने हक व कर्तव्य निभाने के लिए अपने प्राणों का बलिदान देने की मिशाल छोड़ गए|
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10टिप्पणियाँ

  1. धन्य हैं ऐसे कवि ...कवि उदयभान बारहट जी के बारे में बढ़िया जानकारी दी है आभार ...

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  2. कवि उदयभान जी के बारे में यह अनुपम जानकारी मिली, आपके द्वारा इतिहास में गुम हो चुके लोगों पर बहुत ही उत्तम जानकारी मिलती है, आपको बहुत शुभकामनाएं और आभार.

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  3. sir ji me aapki site ka regular reader hu.
    sir mei bhi ek website bana raha hu and mere ko aap ye btane ki kripya kare ki aapne kon si blog script install ki huyi hai.

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  4. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    --
    इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (29-07-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
    सूचनार्थ!

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  5. साहस का उदाहरण सीखने की घटना है यह..

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  6. ऐसे लोग अब कहाँ है जो सामने उनकी गलतियों बता सके,,,अच्छी जानकारी के लिए आभार,,,,

    RECENT POST,,,इन्तजार,,,

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  7. वैसे चारण कवियों को इस तरह सज़ा देने की परम्परा नहीं थी. महाराणा क्रोध में ऐसा कर गए. बाद में उन्हें अपने कर्म पर पछतावा अवश्य हुआ होगा.

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  8. हितैषी और चापलूस में यही अन्‍तर होता है। हितैषी को अपने प्राणों की परवाह नहीं होती।

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  9. धन्य हैं वे साहसी चारण कवि।

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