घाटवा का युद्ध (१४८८ ई.) - भाग 2

Gyan Darpan
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लेखक : प्रकाश सिंह राठौड़                       भाग -१ से आगे 

राव शेखा की विस्तारवादी नीति का सीधा टकराव गौड़ राजपूतों के हितों से हुआ। गौड़वाटी और शेखावाटी की सीमाएं एक-दूसरे से सटी हुई थीं, और दोनों ही कुल अपने प्रभाव क्षेत्र को बढ़ाने के लिए लालायित थे।
गौड़ राजपूत मारोठ और घाटवा में मजबूती से जमे हुए थे। वे शेखाजी द्वारा अमरसर के आसपास के क्षेत्रों (जैसे दादरी, भिवानी) को जीतने की घटनाओं को अपनी सुरक्षा के लिए खतरा मानते थे। शेखाजी द्वारा ५० से अधिक किलों और गढ़ों का निर्माण करना (जैसे शिकारगढ़) गौड़ों के लिए एक स्पष्ट संकेत था कि कछवाहा अब केवल आमेर के सामंत नहीं रहे, बल्कि एक नई शक्ति के रूप में उभर रहे हैं ।
१४८८ के अंतिम युद्ध से पूर्व, शेखाजी और गौड़ राजपूतों के बीच लगभग ११ या १२ बार छोटे-बड़े युद्ध हो चुके थे। ये संघर्ष जल स्रोतों, चरागाहों और सीमा विवादों को लेकर होते थे। ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार, शेखाजी ने गौड़वाटी के कई इलाकों में धावे बोले थे, जिससे गौड़ शासकों, विशेषकर घाटवा के कोलराज और मारोठ के राव रिड़मल, के मन में प्रतिशोध की ज्वाला धधक रही थी ।


यद्यपि राजनीतिक तनाव वर्षों से व्याप्त था, परंतु घाटवा के युद्ध का तात्कालिक कारण एक सामाजिक घटना थी जिसने राजपूत कुलों की 'आन' (सम्मान) को सीधे चुनौती दी। यह घटना तत्कालीन सामंती समाज में शासकों के अहंकार और क्षत्रिय धर्म की टकराहट का उत्कृष्ट उदाहरण है।
घाटवा का तालाब और कोलराज का फरमान
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घाटवा का शासक कोलराज गौड़ झोटारी गांव में एक तालाब (टैंक) की खुदाई करवा रहा था, जिसे खोंतिया (Khontiya) या खातिया तालाब भी कहा जाता था। अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए, उसने एक फरमान जारी किया कि उस रास्ते से गुजरने वाले प्रत्येक पथिक को, चाहे वह किसी भी कुल या हैसियत का हो, तालाब से मिट्टी की एक टोकरी निकालकर श्रमदान करना होगा। यह आदेश केवल श्रम के लिए नहीं, बल्कि गौड़ सत्ता के प्रति समर्पण प्रदर्शित करने के लिए था ।
कछवाहा कुलवधू का अपमान
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एक दिन, एक कछवाहा राजपूत अपनी नवविवाहित वधू को विदा कराकर (गौना) अपने घर लौट रहा था। दुर्भाग्यवश, उनका मार्ग घाटवा के उस तालाब के पास से गुजरा। गौड़ सैनिकों ने उन्हें रोका और शासक के आदेशानुसार मिट्टी ढोने के लिए कहा। राजपूत युवक ने नियम का पालन करते हुए मिट्टी उठाई, लेकिन उसने अनुरोध किया कि उसकी पत्नी, जो एक नवविवाहित वधू है और पर्दा-नशीं है, को इस कठोर श्रम से मुक्त रखा जाए।
गौड़ सैनिकों और वहां उपस्थित अधिकारियों (संभवतः कोलराज के पुत्र नवलराज) ने अहंकारवश इस अनुरोध को ठुकरा दिया। उन्होंने हठ किया कि वधू को भी मिट्टी उठानी होगी। राजपूत युवक ने इसे अपने कुल और पत्नी के सम्मान का अपमान माना और विरोध किया। विवाद इतना बढ़ा कि गौड़ सैनिकों ने उस निहत्थे दूल्हे की हत्या कर दी ।
अमरसर में न्याय की गुहार
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पति की हत्या और अपने अपमान से व्यथित कछवाहा विधवा ने अदम्य साहस का परिचय दिया। वह अपने पति का शव या उसकी निशानी लेकर सीधे राव शेखा की राजधानी अमरसर पहुंची। उसने भरी सभा में राव शेखा के समक्ष अपनी व्यथा सुनाई और चुनौती दी कि यदि कछवाहों के मुखिया होने के बावजूद वे अपनी कुलवधू के सम्मान की रक्षा नहीं कर सकते, तो उनका पौरुष व्यर्थ है। उसने एक मुट्ठी धूल राव शेखा के सामने रखते हुए प्रतिशोध की मांग की
राव शेखा के लिए यह अब केवल भूमि का विस्तार नहीं था; यह 'धर्मयुद्ध' था।
शरणागत की रक्षा और नारी के सम्मान के लिए युद्ध करना राजपूत आचार संहिता (Rajput Code of Conduct) का सर्वोच्च सिद्धांत था। शेखाजी ने तुरंत युद्ध की घोषणा कर दी और अपनी सेना को घाटवा की ओर कूच करने का आदेश दिया।
घाटवा का युद्ध (१४८८ ई.):
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वैशाख शुक्ल तृतीया (आखा तीज), विक्रम संवत १५४५ (१४८८ ईसवी) घाटवा का युद्ध हुआ जो घाटवा, खोंतिया तालाब के समीप (वर्तमान सीकर जिला) लड़ा गया ।
कछवाहा (शेखावत) पक्ष का नेतृत्व महाराव शेखा कर रहे थे जिनके प्रमुख सेनानायक उनके पुत्र—कुंवर दुर्गा, कुंवर पूरनमल, कुंवर रत्ना थे ।
सहयोगी बल के रूप में पन्नी पठान (शेखाजी के पुराने सहयोगी थे) और उनके अन्य वफादार कछवाहा सरदार थे ।शेखाजी की सेना अनुभवी थी और ५० से अधिक युद्धों में तप चुकी थी ।
इधर गौड़ पक्ष का नेतृत्व कोलराज गौड़ (घाटवा का शासक) कर रहे थे जिनके प्रमुख योद्धा: नवलराज (कोलराज का पुत्र) थे ।
सहयोगी के रूप में राव रिड़मल (Rao Ridmal) ऑफ मारोठ। राव रिड़मल राठौड़ वंश की एक शाखा से थे और गौड़ गठबंधन के शक्तिशाली नेता थे, जिनकी धनुर्विद्या और सैन्य सूझबूझ प्रसिद्ध थी ।
घाटवा की भौगोलिक स्थिति सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण थी। अरावली की पहाड़ियों की तलहटी में स्थित यह क्षेत्र रक्षात्मक युद्ध के लिए उपयुक्त था। गौड़ सेना ने संभवतः तालाब के ऊंचे किनारों (Embankments) पर अपनी स्थिति मजबूत की थी, जिससे उन्हें हमलावर कछवाहा सेना पर ऊंचाई से तीर बरसाने का लाभ मिल सके। राव शेखा की रणनीति आक्रामक (Offensive) थी—वे जानते थे कि एक लंबा घेराबंदी युद्ध उनके संसाधनों को निचोड़ सकता है, इसलिए उन्होंने सीधे मैदानी युद्ध (Pitched Battle) का विकल्प चुना।
युद्ध का प्रारंभ भीषण कोलाहल और ईष्ट देवताओं तथा कुलदेवियों के जयकारों के साथ हुआ। यह संघर्ष केवल सैनिकों के बीच नहीं, बल्कि नेतृत्वकर्ताओं के बीच व्यक्तिगत द्वंद्वों का भी साक्षी बना।
प्रथम चरण: अग्रिम पंक्ति का संघर्ष
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शेखाजी ने अपने पुत्रों, कुंवर दुर्गा और कुंवर पूरनमल, के नेतृत्व में हरावल (Vanguard) दस्ते को आगे बढ़ाया। उनका उद्देश्य गौड़ सेना की रक्षात्मक पंक्ति को तोड़ना था। गौड़ सेनापति नवलराज ने अद्भुत वीरता का प्रदर्शन किया। दोनों पक्षों के बीच भयंकर तलवारबाजी हुई। इस प्रारंभिक चरण में, गौड़ सेना की संख्यात्मक श्रेष्ठता और नवलराज के कौशल के कारण कछवाहों को भारी क्षति उठानी पड़ी।
द्वितीय चरण: शेखावत राजकुमारों का बलिदान
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युद्ध की भीषणता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि राव शेखा के दो वीर पुत्र—कुंवर दुर्गा (जिनसे 'तकनेत' शाखा चली) और कुंवर पूरनमल—शत्रु सेना को चीरते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। नवलराज ने इन राजकुमारों का वध किया । अपने पुत्रों की मृत्यु का समाचार सुनकर राव शेखा का क्रोध सातवें आसमान पर पहुंच गया।
तृतीय चरण: महाराव शेखा का शौर्य ———————————————
६५ वर्ष की आयु में भी, राव शेखा ने अदम्य उत्साह के साथ रणभूमि में प्रवेश किया। प्रत्यक्षदर्शी वृत्तांतों (चारण साहित्यों) के अनुसार, उन्होंने अपनी तलवार से शत्रु दल में ऐसा विनाश किया कि गौड़ सैनिकों के पैर उखड़ गए। उन्होंने नवलराज का सामना किया और अपने पुत्रों की मृत्यु का प्रतिशोध लिया। गौड़ सेना का मनोबल टूटने लगा।
चतुर्थ चरण: राव रिड़मल का तीर और निर्णायक क्षण
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जब गौड़ सेना बिखर रही थी, तब मारोठ के राव रिड़मल ने एक सुरक्षित दूरी से मोर्चा संभाला। रिड़मल एक निपुण धनुर्धर थे। उन्होंने देखा कि राव शेखा युद्ध के मैदान में असुरक्षित हैं। उन्होंने शेखाजी को निशाना बनाकर घातक बाणों की वर्षा की। एक (या अधिक) विषैले या तीखे बाणों ने राव शेखा को भेद दिया, जिससे वे गंभीर रूप से घायल हो गए ।
घायल होने के बावजूद, शेखाजी और उनकी सेना ने युद्ध जारी रखा और अंततः गौड़ सेना को मैदान छोड़ने पर मजबूर कर दिया। घाटवा पर कछवाहों का अधिकार हो गया, लेकिन यह विजय कच्छवाहो को बहुत महंगी साबित हुई।
युद्ध समाप्ति के तुरंत बाद, गंभीर रूप से घायल राव शेखा को उनके सरदारों ने पालकी में बिठाकर अमरसर की ओर ले जाने का प्रयास किया।
रलावता में अंतिम पड़ाव
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घाटवा से कुछ ही दूरी पर स्थित रलावता (Ralawta) गांव के पास शेखाजी की स्थिति बिगड़ने लगी। उन्हें आभास हो गया कि उनका अंत समय निकट है। उन्होंने काफिला रोकने का आदेश दिया।
उत्तराधिकारी का चयन
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अपने अंतिम क्षणों में, राव शेखा ने राजनीतिक दूरदर्शिता का परिचय दिया। उनके कई पुत्र युद्ध में मारे जा चुके थे। उन्होंने अपने जीवित पुत्रों में से सबसे योग्य, राव रायमल (Raimal), को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया और सरदारों को उनकी वफादारी की शपथ दिलाई। यह निर्णय शेखावाटी राज्य की स्थिरता के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण था ।
मृत्यु और स्मारक
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विक्रम संवत १५४५ की वैशाख शुक्ल तृतीया (१४८८ ई.) को राव शेखा ने अंतिम सांस ली। जिस स्थान पर उनका निधन हुआ, वहां बाद में एक भव्य छतरी (Cenotaph) का निर्माण किया गया। यह छतरी आज भी रलावता में मौजूद है और शेखावत राजपूतों के लिए एक तीर्थ स्थान के समान है। यह स्मारक स्थापत्य कला का भी एक नमूना है, जो उस काल की स्मारक-निर्माण शैली को दर्शाता है ।
घाटवा युद्ध के परिणाम और दूरगामी प्रभाव
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घाटवा का युद्ध केवल एक दिन का रक्तपात नहीं था; इसने राजस्थान के इतिहास की धारा को मोड़ दिया। इसके परिणाम तात्कालिक और दीर्घकालिक, दोनों रूपों में अत्यंत गहरे थे।
शेखावाटी महासंघ (Confederacy) का सुदृढ़ीकरण
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इस युद्ध ने यह सुनिश्चित कर दिया कि शेखावाटी क्षेत्र अब आमेर या गौड़वाटी का हिस्सा नहीं, बल्कि एक स्वतंत्र राजनीतिक इकाई है। राव शेखा के बलिदान ने उनके वंशजों में एकता और स्वाभिमान की भावना भर दी। उनके बाद राव रायमल (१४८८-१५३७) ने गद्दी संभाली और राज्य को और मजबूत किया ।
गौड़ शक्ति का पतन और विस्थापन
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घाटवा की पराजय गौड़ राजपूतों के लिए विनाशकारी सिद्ध हुई। शेखावाटी क्षेत्र में उनका वर्चस्व समाप्त हो गया और आने वाले समय में अधीनस्थ की भूमिका में आ गए ।
क्षेत्रीय संकुचन:
गौड़ शासक मारोठ और घाटवा से धीरे-धीरे बेदखल होने लगे या उनकी शक्ति सीमित हो गई। कालांतर में यह क्षेत्र पूरी तरह से शेखावतों के नियंत्रण में आ गया।
शक्ति का संतुलन:
इस युद्ध ने उत्तर-पूर्वी राजस्थान में शक्ति संतुलन को गौड़ों से छीनकर शेखावतों के पक्ष में कर दिया ।
कछवाहा वंशावली का विस्तार और 'ठिकाना' प्रणाली
राव शेखा के १२ पुत्र थे, और घाटवा के युद्ध के बाद हुए राज्य बंटवारे ने शेखावाटी के प्रसिद्ध 'ठिकानों' (Thikanas) को जन्म दिया। यह विकेंद्रीकृत सामंती व्यवस्था शेखावाटी की विशेषता बन गई।
राव शेखा के प्रमुख पुत्रों और उनसे उत्पन्न वंश/खांपों का विवरण इस प्रकार है :
राव रायमल- रायमलोत- अमरसर
कुंवर दुर्गा (तकनेत)
कुँवर रत्ना (रत्नावत)
कुँवर पूरणमल (निसंतान)
कुँवर भारमल (खेजडोली)
कुँवर त्रिलोक (मिल्कपुरिया)
-PRAKASH SINGH
स्रोत संदर्भ (Bibliography & References):
बांकीदास री ख्यात (ऐतिहासिक वृत्तांत)
कर्नल जेम्स टॉड कृत एनल्स एंड एंटिक्विटीज ऑफ राजस्थान (पश्चिमी दृष्टिकोण और वंशावली)
शेखावाराजपूत वंशावलियां (इंडियन राजपूत और अन्य वंशावली वेबसाइट्स)
शेखावाटी का इतिहास (सुरजगढ़ और अन्य स्थानीय अभिलेख)
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