घाटवा का युद्ध (१४८८ ई.) - भाग १ : गौड़ शक्ति का राजस्थान में पतन

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लेखक : प्रकाश सिंह राठौड़

भारतीय इतिहास, विशेषकर राजस्थान का मध्यकालीन इतिहास, केवल साम्राज्यों के उत्थान और पतन की कहानी नहीं है, बल्कि यह स्वाभिमान, कुल-गौरव और क्षेत्रीय संप्रभुता के लिए लड़े गए अनगिनत संघर्षों का एक विस्तृत दस्तावेज है। १५वीं शताब्दी का उत्तरार्ध उत्तर भारत में राजनीतिक संक्रमण का काल था।

दिल्ली सल्तनत कमजोर हो रही थी और क्षेत्रीय क्षत्रप अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने के लिए संघर्षरत थे। इसी कालखंड में राजस्थान के उत्तर-पूर्वी भाग में एक महत्वपूर्ण घटना घटी—घाटवा का युद्ध (१४८८ ई.)। यह युद्ध कछवाहा राजवंश की एक उप-शाखा, जो कालांतर में 'शेखावत' के नाम से प्रसिद्ध हुई, और प्राचीन गौड़ राजपूतों के मध्य लड़ा गया था।

इतिहास की मुख्यधारा में प्रायः खानवा, हल्दीघाटी या पानीपत जैसे महायुद्धों को ही प्रमुखता दी जाती है, किंतु क्षेत्रीय इतिहास के दृष्टिकोण से घाटवा के युद्ध का महत्व युगांतकारी है। इस युद्ध ने न केवल एक नए भू-भाग 'शेखावाटी' की सीमाओं को रक्तिम स्याही से निर्धारित किया, बल्कि कछवाहा वंश के भीतर शक्ति के विकेंद्रीकरण को भी जन्म दिया। महाराव शेखा और गौड़ राजपूतों के बीच हुआ यह संघर्ष महज एक सैन्य झड़प नहीं था; यह संसाधनों पर नियंत्रण, व्यापारिक मार्गों की सुरक्षा और सबसे बढ़कर, 'राजपूती आन' की रक्षा का प्रश्न था।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: १५वीं शताब्दी का राजपूताना
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१४८८ ईसवी का समय भारतीय इतिहास में लोदी वंश के शासनकाल (बहलोल लोदी का अंतिम समय) के अंतर्गत आता है। केंद्रीय सत्ता का प्रभाव राजस्थान के आंतरिक भागों में नगण्य था, जिससे स्थानीय सरदारों को अपने राज्य विस्तार की पूर्ण स्वतंत्रता मिल गई थी।
कछवाहा वंश और ढूंढार की स्थिति
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ढूंढार क्षेत्र (आधुनिक जयपुर और दौसा) में कछवाहा राजपूतों का शासन ११वीं शताब्दी से स्थापित था। १५वीं शताब्दी के मध्य में आमेर के शासक राजा चंद्रसेन (१४६७-१५०३ ई. के लगभग) थे। कछवाहा राज्य उस समय एक विशाल साम्राज्य नहीं था, बल्कि यह कई छोटी-बड़ी जागीरों का एक संघ था, जिसमें आमेर के राजा को 'टीकाई' (प्रधान शासक) माना जाता था। इन जागीरों में से एक महत्वपूर्ण जागीर 'अमरसर' थी, जो आमेर के उत्तर में स्थित थी और जिस पर राव मोकल का शासन था। यह शाखा राजा उदयकरण के तीसरे पुत्र राव बालाजी के वंशज थे, जिन्हें 'बालापोता' कछवाहा कहा जाता था ।
गौड़ राजपूतों का इतिहास और 'गौड़वाटी'
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घाटवा के युद्ध में विपक्ष की भूमिका निभाने वाले गौड़ राजपूतों का इतिहास अत्यंत प्राचीन और गौरवशाली है। ऐतिहासिक मान्यता के अनुसार, गौड़ राजपूतों का मूल स्थान बंगाल का 'गौड़' प्रदेश था। वे स्वयं को सूर्यवंशी मानते हैं और भगवान राम के भाई भरत या सूर्यवंशी राजाओं से अपनी उत्पत्ति जोड़ते हैं। १२वीं शताब्दी के अंत में, जब बख्तियार खिलजी ने बंगाल पर आक्रमण किया और लक्ष्मण सेन के साम्राज्य को ध्वस्त किया, तो गौड़ क्षत्रियों का एक बड़ा वर्ग मध्य भारत और राजस्थान की ओर पलायन कर गया ।
राजस्थान में उन्होंने अजमेर, किशनगढ़ और नागौर के सीमावर्ती क्षेत्रों में अपनी सत्ता स्थापित की। १५वीं शताब्दी तक, मारोठ (नागौर) और घाटवा (सीकर) उनके शक्ति के प्रमुख केंद्र बन चुके थे। इस क्षेत्र को उनके प्रभाव के कारण 'गौड़वाटी' कहा जाता था। गौड़ राजपूत एक अत्यंत युद्धप्रिय और स्वाभिमानी जाति थे, जिनका मारोठ के राव रिड़मल जैसे शासकों के नेतृत्व में इस क्षेत्र पर एकछत्र राज था। वे अपनी सीमाओं के विस्तार और बाहरी हस्तक्षेप के प्रति अत्यंत संवेदनशील थे, और यही संवेदनशीलता राव शेखा के उदय के साथ टकराव का कारण बनी ।
महाराव शेखा
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घाटवा के युद्ध के केंद्रीय नायक महाराव शेखा थे।शेखाजी केवल एक योद्धा नहीं थे, बल्कि एक ऐसे स्टेट्समैन (राजनेता) थे जिन्होंने बिखरे हुए कछवाहा सरदारों को एक सूत्र में पिरोया और आमेर की अधीनता से मुक्त होकर एक संप्रभु राज्य की स्थापना की।
राव शेखा का जन्म २४ सितंबर १४३३ (विक्रम संवत १४९०) को हुआ था। उनके पिता राव मोकल और माता रानी निर्वाण थीं। ऐतिहासिक किंवदंतियों और चारण साहित्य के अनुसार, राव मोकल को लंबे समय तक कोई संतान नहीं थी। वे एक धर्मपरायण शासक थे और उन्होंने कई धार्मिक अनुष्ठान किए थे। अंततः, एक मुस्लिम सूफी संत, शेख बुरहान चिश्ती, के आशीर्वाद से उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। संत के सम्मान में बालक का नाम 'शेखा' रखा गया। यह घटना तत्कालीन राजस्थान में सांप्रदायिक सौहार्द और सूफी परंपरा के प्रभाव को दर्शाती है। शेख बुरहान की दरगाह आज भी अमरसर के पास स्थित है और शेखावत राजपूतों द्वारा पूजी जाती है ।
१४४५ ई. में, मात्र १२ वर्ष की अल्पायु में राव शेखा ने अपने पिता की गद्दी संभाली। विरासत में उन्हें बारवाड़ा और नान के २४ गांवों की छोटी जागीर मिली थी। परंतु, उनकी महत्वाकांक्षा और सैन्य कौशल ने जल्द ही इस छोटी जागीर को एक विशाल राज्य में बदल दिया ।
नगरचल और सांभर पर नियंत्रण:
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१६ वर्ष की आयु में उन्होंने सांख्ला राजपूतों के नापा सांख्ला पर अचानक आक्रमण कर नगरचल, साईंवाड़ और मुल्तान जैसे क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया ।
जाटू और कायमखानी शक्तियों का दमन:
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१४७३ से १४७७ ई. के बीच, राव शेखा ने पन्नी पठानों की सहायता से दादरी, भिवानी, हांसी और हिसार तक अपने अभियानों का विस्तार किया। उन्होंने जाटू राजपूतों और कायमखानी नवाबों (जैसे इख्तर खान और हेदा खान) को परास्त कर अपनी सीमाओं को हरियाणा तक फैला दिया ।
आमेर से संघर्ष
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राव शेखा के बढ़ते प्रभाव ने आमेर के राजा चंद्रसेन को आशंकित कर दिया। सामंती प्रथा के अनुसार, शेखाजी को अपने क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले उत्तम घोड़ों के बछड़े (colts) आमेर दरबार में कर (tribute) के रूप में भेजने होते थे। शेखाजी ने १४७१ ई. के आसपास इस प्रथा को मानने से इनकार कर दिया, जो सीधे तौर पर आमेर की संप्रभुता को चुनौती थी।
इसके परिणामस्वरूप आमेर और शेखाजी के बीच कई युद्ध हुए। १४७१ ई. में कोकूस नदी के तट पर हुए निर्णायक युद्ध में शेखाजी ने आमेर की सेना को परास्त कर दिया। अंततः एक संधि हुई जिसके तहत आमेर ने शेखाजी की स्वतंत्र सत्ता को मान्यता दी और घोड़ों के बछड़े भेजने की प्रथा समाप्त कर दी गई। इस विजय ने उन्हें 'महाराव' की उपाधि और एक स्वतंत्र शासक का दर्जा दिलाया, जिससे शेखावाटी महासंघ (Confederacy) की नींव पड़ी ।

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