Jamvay Mata History : कछवाहों की कुलदेवी जमवाय माता

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कछवाहों की कुलदेवी जमवाय माता 

जमवाय माता के मंदिर की स्थापना मध्यप्रदेश के नरवर से आकर राजस्थान में कछवाह राज्य स्थापित करने वाले दुल्हेराय कछवाह ने की थी। दुल्हेराय का राजस्थान में आने का समय विभिन्न इतिहासकार सन 1093 से 1123 के बीच मानते है। “अदम्य योद्धा महाराव शेखाजी” पुस्तक के लेखक कर्नल नाथू सिंह अपनी इस पुस्तक में दुल्हेराय का राजस्थान आने का समय वि.स.1125 के आस-पास लिखते है।

मध्यप्रदेश के नरवर के शासक सोढदेव के पुत्र दुल्हेराय का दौसा के पास मोरां के शासक रालण सिंह चौहान की पुत्री के साथ विवाह हुआ था। दौसा पर उस वक्त रालण सिंह चौहान व बड़गुजरों क्षत्रियों का आधा आधा राज्य था। बड़गुजर हमेशा रालण सिंह को तंग किया करते थे, सो उसने अपने दामाद दुल्हेराय को बुलाकर उनकी सहायता से बड़गुजरों को हराकर दौसा पर कब्जा कर लिया और दौसा का राज्य दुल्हेराय को सौंप दिया। उसके बाद दुल्हेराय ने भांडारेज के मीणा शासकों को हराकर भांडारेज भी जीत लिया। भांडारेज जीतने के बाद दुल्हेराय ने मांच के मीणा शासक पर हमला किया पर मांच के बहादुर मीणाओं ने दुल्हेराय को युद्ध में करारी शिकस्त दी। इस युद्ध में दुल्हेराय की सेना को काफी नुकसान हुआ और स्वयं दुल्हेराय घायल होकर मूर्छित हो गए थे। जिन्हें मीणा सैनिक मरा हुआ समझ कर छोड़ गए थे। इतिहासकारों के अनुसार युद्ध भूमि में ही मूर्छित दुल्हेराय को जमवाय माता ने दर्शन दिए व युद्ध में विजय होने का आशीर्वाद भी दिया। देवी की कृपा से दुल्हेराय मूर्छित अवस्था से उठ खड़े हुए और जीत का जश्न मनाते मांच के मीणों पर अचानक आक्रमण कर उन्हें मार भगाया और मांच पर अधिकार कर लिया।

गोविन्द सिंह मुण्डियावास के अनुसार इस संबंध में कपड़द्वारे की ख्यात में लिखा है-‘‘पछै मांची में मीणा को अमल छो। सो मांची पै दुल्हेराय जी चढ़्या। जदि मीणां खबरि पाये। राठकूंडला और सब सिमटि आये। मांचि सूं चढ़्या सो दुल्हेराय जी वां मीणां के मांचि सूं कोस तीन अगाऊ नागा में झगड़ो हुयो सो मीणां को लोग तो मरियो नहीं। अर दुल्हेराय जी घायल होय फोज सुधा खेत पड़्या। जदि मीणा में फतै का ढोल बाज्या। अर मांचि में आय मतवाळ करी। पाछै अरध रात्रि के समै देवी बुढवाय आई अर दुल्हेराय ने कही ‘तू उठ’, जदि दुल्हेराय जी खड़ा होय अरज करी। आप कुण छो? जदि देवी बोली मैं थारी देवी बुढवाय छूं। जदि राजा अस्तुति करी, जदि देवी प्रसन्न होय वरदान दिनों। थारी रण में बिजै होसी। अठी की वसुधा म्हे तोनें दीनी। अब तांई थे देवी बुढवाय कर पूजै छा। आज सूं देवी जमुवाय कर पूजो। अर ई नाका म्हारो मंदिर बीणवावो। थारो अठै राज होसी।’’

ख्यात की इस बात से जाहिर है कि कछवाह वंश पहले बुढवाय माता के नाम से अपनी कुलदेवी की उपासना करता रहा है। लेकिन दुल्हेराय के राजस्थान आने व यहाँ राज्य स्थापित करने के बाद अपनी कुलदेवी की स्थापना के बाद यह देवी जमवाय माता कहलाई। इससे पहले यह देवी बुढवाय माता कहलाती थी। इतिहासकारों के अनुसार दुल्हेराय ने देवी की जो प्रतिमा स्थापित की थी वो वे अपने साथ अपने गृह नगर से लाये थे।   

मांच पर अधिकार के बाद दुल्हेराय ने मांच में एक चबूतरा बनाकर उस पर देवी जमवाय माता की मूर्ति की स्थापना की जो आज भी मंदिर के गर्भगृह में स्थापित है। इसके बाद दुल्हेराय ने मांच का नाम अपने पूर्वज राम व देवी जमवाय के नाम पर जमवा रामगढ़ रख अपनी राजधानी बनाया। मांच विजय के बाद दुल्हेराय ने खोह, गेटोर, झोटवाड़ा आदि मीणा राज्यों को जीतकर अपने राज्य का विस्तार किया व अपनी राजधानी को जमवा रामगढ़ से खोह स्थान्तरित कर दिया। दुल्हेराय की माघ सुदी 7 वि.स.1192 में मृत्यु होने बाद उनका पुत्र कांकिल देव गद्दी पर बैठा। जिसने आमेर के मीणा शासकों को हराकर खोह से अपनी राजधानी आमेर स्थान्तरित की, जो जयपुर की स्थापना तक उनके वंश की राजधानी रही।

सिर्फ आमेर, जयपुर ही नहीं कछवाह वंश के वंशजों ने राजस्थान के और भी बड़े भू-भाग पर अपने अपने कई राज्य यथा- अलवर, खंडेला, सीकर, झुंझनू, खेतड़ी, दांता, खुड़, नवलगढ़, मंडावा आदि स्थापित कर देश की आजादी तक राज्य किया। राजस्थान में दुल्हेराय के वंशज राजावत, शेखावत, नरूका, नाथावत, खंगारोत आदि उपशाखाओं के नाम से जाने जाते है।

देवी जमवाय माता के मंदिर की दुल्हेराय द्वारा स्थापना करने के बाद उनके वंश के विभिन्न शासकों ने मंदिर में समय समय पर निर्माण कार्य करवा कर उसका विस्तार करवाया तथा देवी जमवाय माता को अपनी कुलदेवी के रूप में रूप ने स्वीकार करते हुए इसकी आराधना की। मध्य काल में कछवाहों ने भारत की राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई और माँ जमवाय के आशीर्वाद, उसे स्मरण कर अध्यात्मिक, दृढ़ता, आत्मिक संतोष के साथ शक्ति आत्मसात करने की अनुभूति कर, कछवाह योद्धाओं ने देश के महत्त्वपूर्ण युद्धों में वीरता प्रदर्शित कर, अपने शौर्य, साहस, निडरता की इतिहास में छाप छोड़ी। कछवाह वंश की सभी उपशाखाओं के शासक व आम वंशज जन्म, शादी, पगड़ी दस्तूर के बाद यहाँ जात देने आवश्यक रूप से आते थे, तथा आज भी यह परम्परा सुचारू रूप से जारी है। 

इस तरह यह मंदिर कछवाह वंश के लोगों की अपनी कुलदेवी के रूप में आस्था का केन्द्र तो है ही साथ ही इस पुरे क्षेत्र में एक बहुत बड़ा जन-आस्था का प्राचीन समय से केन्द्र भी है। इस मंदिर की प्राचीनता की पुष्टि इतिहास की पुस्तकों में उल्लेख के साथ बाहर लगा पुरातत्व विभाग का इस मंदिर की प्राचीनता को दर्शाते हुए लगा सूचना पट्ट भी करता है।

देवी के मंदिर में मांस मदिरा चढ़ाना वर्जित है। देवी सात्विक है। जिसके जमवा रामगढ के बाद भौडकी (जिला झुंझनु), महरोली एवं मदनी मंढा (जिला सीकर), भूणास (जिला नागौर) आदि स्थानों पर भी मंदिर बने है।




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