आतम औषध

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मौसम विभाग, भारत के पूर्व महानिदेशक ड़ा.लक्ष्मण सिंह राठौड़ की कलम से....
स्वामी सम्पूर्णानन्द बाल्यकाल से ही शुक्र-ज्ञानी तथा वाकपटु थे| माँ-बाप का दिया नाम कोजा राम था| प्यार से लोग उन्हें कोजिया बुलाते थे| पर वे अपने आप को बचपन से ही सुन्दर व सम्पूर्ण मानते थे| इसलिए शिक्षा में विशेष रूचि नहीं रखते हुए अल्प आयु में ही बोध-ज्ञान मार्ग पर प्रशस्त हो गए थे| आठवीं कक्षा में अन्नुतीर्ण रहने के पश्चात्, वे चौसठ कलाएं सीखने में व्यस्त हो गए| अल्प समय में ही सभी विद्ध्याओं में निष्णात प्राप्त कर ली| परन्तु अति-विशिष्ट बीस एक विद्याओं जैसे कि गान, नृत्य, नाट्य, जल को बांधना, विचित्र सिद्धियाँ दिखलाना, इंद्रजाल-जादूगरी, चाहे जैसा वेष धारण करना, कूटनीति, ग्रंथ पाठन चातुर्य, तोता-मैना बोलियां बोलना, शकुन-अपशकुन जानना, शुभ-अशुभ बतलाना, सांकेतिक भाषा बनाना, नयी-नयी बातें निकालना, छल से काम निकालना, वस्त्रों को छिपाना या बदलना, द्यू्त क्रीड़ा, तंत्र-मन्त्र, विजय प्राप्त करवाना, भूत-प्रेत आदि को वश में करना इत्यादि में वाचस्पति हासिल कर ली| ज्ञान एवं कला की इस प्रतिमा को नासमझ लोग लम्पट समझने लगे| इस प्रसिद्धी के फलस्वरूप सगाई-ब्याह से वंचित रहे| मांस-मदिरा के धुर विरोधी कोजिये की संगत में ऐसे ही अन्य मित्र भी जुट गए| संगत में केवल उन्ही दोस्तों को तरजीह दी जाती जो मांसाहार से परहेज रखते तथा शुद्ध शाकाहारी तत्व जैसे गांजा, अफीम इत्यादि के सेवन द्वारा ही ध्यान साधना करते| जाति धर्म का कोई बंधन नहीं| सदस्यता की पात्रता विचारों के मेल तथा मण्डली के प्रति सत्यनिष्ठा पर आधारित थी| वे कर्म-कांडों के पाखण्ड से दूर, सत्य की खोज तंत्र-ज्ञान द्वारा करने लगे| श्रम से पूर्ण परहेज था अतः आय का साधन नहीं था| फलस्वरूप जीवकोपार्जन कठिन था| घर वालों के तमाम उलाहनों के बावजूद बड़ा दिल रखते हुए उनकी नादानियों का कभी बुरा नहीं मानते थे| बिना श्रम के बना-बनया खाना इत्यादि जो मिल रहा था| परन्तु मुख्य परेशानी मंडल-संगत आयोजन हेतु निरंतर बढ़ते आर्थिक बोझ को लेकर रहती थी|

एक दिन शुभ-घड़ी में घर वालों की अज्ञानता व गाँव वालों की हेयता को क्षमा प्रदान कर, मुफ्त मिल रही तमाम सुविधओं का त्याग कर, सिद्धि प्राप्ति हेतु बोध-मार्ग पर चल पड़े| बाहरी आवरण बदल कर सुदूर एक पर्वतीय वन में अवस्थित एक मठ में शरण ली| चूँकि चिलम भरने की कला में पारंगत थे, अल्प अवधि में ही वहां स्थान पक्का हो गया| दुखी जनों की मानसिक कमजोरियों को भांपने की विशिष्टता तथा वाक पटुता के माध्यम से मेहर बरसाने की दक्षता, उन्होंने मठ में आने वाले साधकों पर प्रयोग करते हुए प्राप्त की| धीरे-धीरे इनके आशीर्वचन से कई लोगों को आर्थिक एवं स्वास्थ्य लाभ होने लगा| कौशल प्राप्ति के प्रारंभिक लाभार्थी उनकी अपनी मण्डली के गण ही थे| इन उपलब्धियों का झूठा-सच्चा परन्तु अच्छा प्रचार-प्रसार किया गया| एकाध सटीक टोटके के कारण लोग फंसने लगे तथा कुछ समय पश्चात् नामचीन हो गए| अब कोजा राम, स्वामी सम्पूर्नानद के नाम से विख्यात हो गए| मजमा दिनों-दिन बढ़ने लगा| प्रसिद्धी का विकास क्रम तेजी से उत्कर्ष उन्मुख होने लगा| परन्तु असली प्रसिद्धि दो एक निसंतान दम्पतियों को औलाद सुख प्रदान करने से हुआ| एक बार एक आस्थाशील साधिका को बिना मांगे पुत्र-प्रसाद देने के फेर में काफी हील हुज्जत हुयी| बाद में सिद्ध कर दिया गया कि महिला ही चरित्रहीन थी| तदुपरांत दुःख निवारण सदकार्य काफी संभल कर करने लगे| अब वे प्रवचन व चौमासा करने लगे थे| कुछ ही दिनों में शास्त्र पठन-वमन करते-करते अपना अलग मठ स्थापित कर स्वयं महंत बन गए| चेलों की फौज तैयार करली| धन बहने लगा व महंत जी तैरने लगे| अब पैसा साधकों का, लंगर महंत जी का| दिन रात का भंडारा चल निकला| एक स्थानीय नेता जो राज्य सरकार में मंत्री थे, वे भी मत्था टेकने आते थे|

आश्रम के पडोसी गाँव में अवधेश नमक युवक रहता था| विलक्षण बुद्धि का धनी अवधेश पढाई में हमेशा अव्वल आता था| जब नौकरी हेतु रोजगार बाजार में उतरा तो असफलता हाथ लगी| उसके अधिकांश सहपाठी अपना व्यवसाय अथवा रोजगार प्राप्त कर अपने घर बसा चुके थे| कुछ एक सहपाठी जो पढाई में अत्यंत कमजोर थे, सरकारी नौकरियां शीघ्र प्राप्त कर उच्च पदों पर आसीन हो चले थे| अपने से कम प्रतिभाशाली साथियों की उपलब्धियां इस बेरोजगार युवक को कुंठा प्रदान कर गयी| फलस्वरूप वह उलटे-सीधे हाथ मरने लगा| मजबूरी-वश गलत रास्ते पर उन्मुख हो गया| पर हर वक्त संस्कार आड़े आ जाते थे, सो निराशा बढती गयी| हताशा व निराशा की जकड में आकर किये गलत कार्यो के कारण परिवार-प्रतिष्ठा पर लगने वाले बट्टे के कारण उसे अपने आप से ग्लानी होने लगी| कालन्तर पश्चात् संयोग से युवक अवधेश, भूले से स्वामी सम्पूर्णानन्द की झोली में आ फंसा| मुंडन पश्चात नाम-दान प्रदान कर अवधेशानंद में रूपांतरित कर दिया गया| अपने गुरु की असीम सिद्धियों से प्रभावित युवा सन्यासी उनमें इश्वर की छवि देखता था| ऊम्र, जाति अथवा लिंग से परे, विरक्ति के अनेकों-अनेक कारण बड़े विचित्र होते हैं| कभी सुख-सम्पन्नता तो कभी दुःख-दरिद्रता| सुख त्याग कर मोक्ष मार्ग पर चलने वाले सभी लोग बुद्ध-महावीर नहीं बने तो भी समाज में सुख शांति हेतु अच्छे कार्य किये| ऐसे सन्यासियों के ठीक उलट, लम्पट योगी-गण भोले-भाले जन की भावनाओं का व्यापर करते हैं, जिससे लोगों का धर्म से विश्वास कम होता है| अवधेश पर गुरु-पाश प्रभावी अवश्य था, पर आश्रम के कार्य-कलाप उसे अक्सर परेशान करते थे| अतः वह यहाँ भी खुश नहीं था|

आश्रम के पास के एक अन्य गाँव में भोम सिंह का किसान-परिवार रहता था| कुल पच्चीस बीघा जमीन थी सो नाम भी सार्थक था| प्रगतिशील एवं मेहनती किसान होने के बावजूद माली हालत जर्जर ही थी| परिवार में पत्नी के अलावा एक पुत्र व एक पुत्री थी| बेटे ने गाँव के ही स्कूल से दसवीं कक्षा अच्छे अंको से उत्तीर्ण की| खेल कूद में भी अव्वल था| आगे पढना चाहता था पर गाँव से बाहर की पाठशाला में भेजने का मतलब, अतिरिक्त आर्थिक बोझ| यह परिवार के आर्थिक सामर्थ्य के बाहर का विषय था| खेती से गुजारा मुश्किल हो रहा था, सो तय पाया की नौकरी ढून्ढ़ी जावे| होम गार्ड में भर्ती निकली हुयी थी| स्वजातीय नेता ने निस्वार्थ मदद का भरोसा दिलाया| नेताजी ने बताया की उन्हें कुछ नहीं चाहिए, पर ऊपर जो देना होता है, उसके बिना काम नहीं बनने वाला| भारतीय किसान के पास कोई बचत तो होती ही नहीं, सो भोम सिंह पर कहाँ होती| पैसे के नाम पर उसके पास अन्य किसानों की भांति ऋण मात्र था| मोटी अक्ल वाले किसान को समझाया गया कि थोडा और उधार ले कर बच्चे का भविष्य बनालो| ऐसे मौके बार बार नहीं आते| दो साल की तनख्वाह से भरपाई हो जावेगी| सो एक साहूकार से रकम कर्ज ली गयी और दूसरे को दे दी गयी| नेताजी जानते थे कि यह परिवार नोट तो एक ही बार देगा, परन्तु वोट हमेशा ही देगा| सो पूरी साहूकारी से सहायता की| इस प्रकार दो साहूकारों की कृपा से बालक होम गार्ड में भर्ती करा दिया गया|

किसान के भाग्य का मौसम से सीधा सम्बन्ध होता है| अभी पिछले साल के अकाल की छाया से उबरे नहीं थे की इस साल पाला पड़ गया| उसका दुर्भाग्य सच्चे दोस्त की भांति साथ छोड़ने को तैयार ही नहीं था| एक अहिंसक आंदोलन में हुयी पत्थर बाजी से भोम सिंह के पुत्र का सर फूट गया व परिवार टूट गया| उसकी नयी नौकरी थी सो ना तो पेंशन, ना ही अन्य बचत| ले-दे कर मृत्यु ग्रेचुयअटी से मिले पैसों से रिश्वत हेतु लिया कर्ज उतार कर हिसाब बराबर किया|

परिवार की माली हालत और जर्जर हो गयी| चूँकि जमीन का मालिक था सो भूमीहीनों या लघु किसानों को मिलने वाली सहयता प्राप्त करने का भी अधिकारी नहीं था| बेटी के ब्याह की समस्या अलग| उस गाँव का सरपंच बड़ा दयालु था| उसने भोम सिंह को सुझाव दिया कि मनरेगा में नाम लिखा कर अस्सी दिन घर बैठे मजदूरी दे दूंगा| सरपंच जी अपने ट्रेक्टर से विकास कार्य करते हुए निश्चित मजदूरी का एक तिहाई भोम सिंह को घर-बाहर की थोड़ी बहुत बेगारी के बाद दे देते| जीवट व इच्छा शक्ति के धनी राजस्थानी किसान की संघर्ष क्षमता बहुत थी| अन्यथा उसे मौसम की मार, महंगे खाद-बीज सहित ऊँची लागत तथा उत्पाद के अनुचित मूल्य का गणित पता था| पर अन्य विकल्प भी नहीं थे| सो अन्नदाता बने रहने की मजबूरी धारण किये रखी| आर्थिक संकट से उबरने के लिए पत्नी व पुत्री के साथ दिन रात खेत में खपता रहता| परन्तु फसल के अंत में अपने को जीवित-मात्र रख सकने वाले घर खर्च के बाद की बची धन-राशि से बैंक के ऋण कि किश्त मात्र चुका पा रहा था|

इधर कुछ दिनों से ख़बरों में सुर्खियाँ थी कि शहरों में सब्जियां ऊँचे दाम पर बिक रही थी| अतः इस बार कुछ अधिक कर्ज लेकर सब्जियां लगाई| ईश्वर की कृपा से मौसम ने इस बार भरपूर साथ दिया| फसल जब पकी तो मन हर्षित हो गया| छोटा सा परिवार खुशियों के सपने देखने लगा| कुछ योजनायें भी बना डाली, जिनमें छप्पर की मरम्मत, दहेज़ का सामान खरीदना इत्यादि को प्राथमिकता दी गयी| टमाटर की भरपूर फसल हुयी| परन्तु क्षेत्र में ज्यादा उत्पादन होने के कारण बाज़ार मंदा हो गया| पचास पैसे प्रति किलो से भी कोई व्यापारी सूंघने को तैयार नहीं हुआ| अगली फसल के लिए खेत खाली करना था, सो हार कर सड़कों पर फेंकना पड़ा| सारा खर्च माथे पड़ गया, मेहनत बेकार गयी सो अलग| अतः बैंक का डिफाल्टर बन गया| कीट-नाशकों का छिडकाव करने के दौरान गले में होने वाली ख़राश बढ़ कर फेफड़े लील करने लगी, पर पैसे के अभाव से दवा संभव नहीं थी| सरकारी अस्पतालों के चार-पांच चक्कर पश्चात् मिलने वाली दवाइयां कारगर सिद्ध नहीं हुयी| भोम सिंह असाध्य रोग से ग्रस्त हो गया| तन व धन से वह पूर्णतया टूट गया| खाट पकड़ ली पर हिम्मत नहीं छोड़ी| तमिलनाडु के किसानों द्वारा मल-मूत्र सेवन करने, छतीसगढ़ के भाइयों द्वारा सड़कों पर सब्जियां बिछाने, तेलंगाना वालों द्वारा मिर्चें जला देना, महाराष्ट्र में दूध सड़कों पर फ़ैलाने की ख़बरें सुन कर उसे लगता था कि वह अकेला नहीं है| परन्तु अनेक राज्यों में आत्महत्या कर रहे किसानों से वह खुश नहीं था| उन्हें कायर व कमजोर मानता था, वरना खुद कि पहाड़ जैसी परेशानियों से आजिज, कीट नाशक फसल पर छिडकने की बचत कर खुद मुक्ति पा लेता| हिम्मत नहीं हरी सो नहीं हारी| हाँ शारीर की व्याधि उसके बस से बाहर थी|

भोम सिंह की इच्छा के विपरीत उसकी पत्नी उसे स्वामी सम्पूर्णानन्द के आश्रम रोग निवारण हेतु लेकर आई| स्वामी जानते थे कि रोगी और भोगी को ठगना बहुत आसन काम है| यह भी जानते थे कि उसके पास देने को पैसा नहीं होगा| पर सोचा कमजोर मनोदशा में उसकी पुत्री अपने पिता के साथ आश्रम में रह कर सेवा करेगी| भोम सिंह की पत्नी ने स्वामी से निवेदन किया-
“काया को जो कष्ट है उसे सह्यो नहीं जाय, माया मो पर है नहीं स्वामी करो उपाय“ |

स्वामी जी के आश्रम में काया का महत्व माया से कम नहीं था| सो उसने किसान की पत्नी व पुत्री को ठगने के प्रपंच से मन्त्र विद्या द्वारा भोम सिंह को रोग कष्ट-मुक्ति का ढाढस दिया| किसान का अनुभव-ज्ञान स्वामी जी के समग्र ज्ञान व ठग-लकड़ी से अधिक दर्शनपूर्ण था| वह भली भांति जनता था कि रोगी को आशा-उपचार के लालच में अक्सर ठगा जाता है, एवं स्वामी की गिद्ध-दृष्टि कहाँ है| कमजोर मनोदशा पर ठग-पाश का फंदा तुरंत प्रभाव से जकड़ता है| पर वह कमजोर नहीं था, सो उसने एक उपेक्षा भरी मुस्कान के साथ स्वामी को कहा-
“काया है तो कष्ट है अर कष्ट तज्यो नहीं जाय, मुक्ति की औषध नहीं एहिरो आतम ज्ञान उपाय” |


स्वामी जी अज्ञानी किसान की बात का बुरा मान गए, सो उस नास्तिक का उपचार करने से मना कर दिया| परन्तु नास्तिक किसान के अज्ञान से अवधेशानन्द का उपचार हो गया| वह पुनः अवधेश बन कर जीवन श्रम में जुट गया|

लेखक- डॉ लक्षमण सिंह राठौड़, पूर्व महानिदेशक, मौसम विभाग, भारत

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