खण्डेला के राजा वरसिंहदेव के निधन के बाद वि.सं. 1720 में उनके ज्येष्ठ राजकुमार बहादुरसिंह खण्डेला की राजगद्दी पर आसीन हुए| राजा वरसिंहदेव का ज्यादातर समय शाही सेना के साथ दक्षिण में बिता था अत: उनकी अनुपस्थिति में खण्डेला राज्य का प्रबंधन राजकुमार बहादुरसिंह के ही हाथों में लंबे समय तक पहले से ही रहा था| खण्डेला की गद्दी पर बैठने के कुछ समय बाद राजा बहादुरसिंह दिल्ली में बादशाह औरंगजेब के दरबार में उपस्थित हुये| बादशाह ने उनकी राजा-पदवी को मान्यता देते हुए एक सोनेहारी साज का घोड़ा, एक हाथी और सिरोपाव के साथ भेंट आदि देकर सम्मानित किया| साथ ही उन्हें शाही सेना में सैन्यधिकारी के पद पर नियुक्त करते हुए दक्षिण में बुरहानपुर भेज दिया| अनुमानत: वि.सं. 1721 में राजा बहादुरसिंह बुरहानपुर चले गए थे| दक्षिण में रहते हुए राजा ने बादशाह के वरिष्ठ सेनापति दिलेरखां और महावतखां के साथ विभिन्न युद्धाभियानों में भाग लेकर वीरता प्रदर्शित कर ख्याति अर्जित की| राजा बहादुरसिंह को शाही सेना में 800 जात और 800 सवार का मनसब प्राप्त था|
औरंगजेब से बगावत
वि.सं. 1729 में बादशाह ने महावतखां की कार्य प्रणाली से असंतुष्ट होकर उसकी जगह बहादुरखां को दक्षिण का सूबेदार नियुक्त किया| वि.सं. 1724 में दक्षिण में मिर्जाराजा जयसिंह आमेर के निधन के पश्चात् औरंगजेब की हिन्दू धर्म विरोधी नीति खुलकर सामने आने लगी| बहादुरखां की नियुक्ति के बाद दक्षिण में हिन्दुओं पर शाही अत्याचार बढ़ गये| राजा बहादुरसिंह जैसे अनेक राजपूत योद्धाओं को शाही सेना का यह कृत्य मंजूर नहीं था, साथ ही शाही सेना से युद्धरत महाराज शिवाजी के प्रति भी वे सहानुभूति रखते थे| जो बहादुरखां जैसे चालाक सेनापति की नजरों से छिपा नहीं रह सका और इन्हीं बातों को लेकर राजा का बहादुरखां से विवाद हुआ और वे बिना आज्ञा लिए शाही सेना छोड़कर खण्डेला आ गये| सम सामयिक रचना "केसरी सिंह समर" के अनुसार बहादुरखां राजा के बहादुरसिंह नाम से भी चिडता था| राजा बहादुरसिंह द्वारा इस तरह बिना सूचित किये व बिना आज्ञा लिए शाही सेना का साथ छोड़ना, औरंगजेब ने अपने खिलाफ बगावत समझा और राजा को दण्ड देने का निर्णय लिया|
राजपूत राजाओं की मुगल बादशाहों के साथ संधियाँ थी, लेकिन जहाँ भी राजाओं के धर्म व स्वाभिमान का सवाल सामने आता तब राजा अपने स्वधर्म व स्वाभिमान को बचाने के लिए बिना किसी भय के बादशाह से विद्रोह कर दिया करते थे| राजा बहादुरसिंह का खण्डेला बहुत छोटा सा राज्य था| उनकी सेनाएं औरंगजेब की सेना की किसी एक टुकड़ी से भी कम थी| फिर भी स्वधर्म और स्वाभिमान के लिए राजा बहादुरसिंह ने भविष्य के किसी भी परिणाम की चिंता किये बगैर बगावत का झन्डा बुलन्द कर दिया| जो साबित करता है कि राजा स्वाभिमान व धर्म के मामले में किसी भी परिणाम की परवाह नहीं करते थे|
खण्डेला पर शाही आक्रमण
राजा बहादुरसिंह संभवत: वि.सं. 1730 के अंतिम दिनों में शाही सेनापति की अवज्ञा करते हुए विद्रोही मुद्रा में खण्डेला आ गए थे| उन्हें सजा देने के उद्देश्य से बादशाह ने सिदी फौलादखां को खण्डेला पर आक्रमण के आदेश दिए| फौलादखां ने अपने भाई सिद्दी विरहामखां के नेतृत्व में एक सेना खण्डेला भेजी| जिसने खण्डेला को घेर लिया| राजा के सेनापति इन्द्रभाण ने किले से बाहर आकर शाही सेना पर आक्रमण किया और शाही सेना के अग्रिम दस्ते का संचालन कर रहे पठान योद्धा मीर मन्नू सूर को द्वंद्वयुद्ध में पछाड़कर उसे लोहे की जंजीरों में जकड़ दिया| सेनापति विरहामखां प्राण बचाकर सेना सहित भाग खड़ा हुआ| इस तरह खण्डेला के वीरों ने शाही सेना को शिकस्त दी|
8 मार्च सन 1679 ई. (वि.सं. 1736) को औरंगजेब ने खण्डेला पर आक्रमण के लिए फिर एक विशाल सेना सेनापति दराबखां के नेतृत्व में भेजी| इस सेना के साथ हाथी व तोपखाना साथ था| दराबखां को खण्डेला व आस-पास के शेखावतों को सजा देने हेतु उस क्षेत्र के मंदिर तोड़ने के भी आदेश दिए गये| नबाब कारतलखां मेवाती और सिद्दी विरहामखां जैसे अनुभवी योद्धाओं को भी दराबखां के साथ भेजा गया|
अपने सलाहकारों की सलाह पर राजा बहादुरसिंह ने खण्डेला नगर खाली करवा दिया और खुद सेना सहित छापामार युद्ध हेतु कोटसकराय के गिरी दुर्ग में चले गए ताकि वहां की पहाड़ियों में मुग़ल सेना को उलझाकर हराया जा सके| खण्डेला खाली करने की खबर शेखावाटी के कुछ योद्धाओं को रास नहीं आई और वे खण्डेला के मंदिरों को बचाने हेतु गांव गांव से खण्डेला पहुँचने लगे| इन वीरों का नेतृत्व सुजानसिंह शेखावत ने किया जो उस वक्त विवाह कर लौट रहे थे| मआसीरे आलमगिरी पृष्ठ 107 पर लिखा है कि "ऐसे 300 योद्धा थे जो सभी के सभी मर गए पर उन्होंने पीठ नहीं दिखाई|"
विशाल मुग़ल सेना का यह आक्रमण भी राजा बहादुरसिंह को झुका नहीं सका और वे वि.सं. 1740 तक मृत्यु पर्यंत औरंगजेब के विद्रोही बने रहे| वि.सं. 1740 में राजा बहादुरसिंह का निधन हो गया| उनके बाद उनके पुत्र केसरीसिंह खण्डेला की गद्दी पर बैठे| राजा केसरीसिंह ने भी औरंगजेब से विद्रोह किया और मुग़ल सेना से सीधी भिडंत कर वीरगति प्राप्त की|
सन्दर्भ पुस्तक : गिरधर वंश प्रकाश (खण्डेला का वृहद् इतिहास एवं शेखावतों की वंशावली)