अधूरा ज्ञान प्रमाणिक इतिहास में बाधक : एक उदाहरण

Gyan Darpan
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अधकचरा यानी अधूरा ज्ञान हमेशा हर जगह नुकसानदायक होता है और यह तब और ज्यादा नुकसान करता है जब अधूरे ज्ञान वाला स्वयंभू ज्ञानी शिक्षक, नेता, साधू के रूप में अपने अधूरे ज्ञान को अपने उद्बोधनों में बांटते फिरते है तथा लेखक आने वाली पीढ़ी के लिए अपने अधूरे ज्ञान के सहारे पुस्तकें लिखकर भ्रांतियां खड़ी कर देते है| वक्ताओं की बात तो ज्यादातर उनके वक्तव्य के बाद ख़त्म हो जाती है, पर किताबों में लिखी अधूरी जानकारी वाली बातें, तथ्य आने वाली पीढ़ियों के ज्ञानार्जन में बाधक बनते है, या उन्हें भ्रमित करते है| साथ ही बिना शोध व प्रमाणिक सन्दर्भों के ऐसे अधकचरे ज्ञान को लेकर लिखी किताबें समाज विरोधियों को उस समाज के खिलाफ दुष्प्रचार की सामग्री उपलब्ध करा देती है, जिस समाज के बारे में वह पुस्तक लिखी हो| आधी अधूरी जानकारी को लेकर यदि इतिहास पुस्तक लिख दी जाय तो सबसे ज्यादा पीड़ा देती है, और वह पीड़ा तब और ज्यादा बढ़ जाती है तब बिना प्रमाणिक तथ्यों के सुनी सुनाई बातों को लेकर किसी जाति का कोई स्वजातीय बंधू ही इतिहास लिख बैठे|

किसी भी जाति का उसी जाति के किसी लेखक द्वारा गलत तथ्यों पर आधारित इतिहास जहाँ विरोधियों को दुष्प्रचार के लिए सन्दर्भ सहित सामग्री उपलब्ध कराते है, वहीं उस जाति की आने वाली पीढ़ी भी अपने स्वजातीय के लिखे झूठे इतिहास पर आसानी से भरोसा कर उसे सच मान बैठती है| क्योंकि उन्हें लेखक की नियत पर कोई संदेह नहीं होता| विरोधी भी उस पुस्तक के गलत तथ्यों का सन्दर्भ देते हुये तर्क देंगे कि यह हम नहीं आपके ही स्वजातीय ने लिखा है| इस तरह की पुस्तकें दूधारी तलवार की तरह वार करती है|

राजपूत जाति का वर्चस्व खत्म करने के लिए उनके विरोधियों ने इतिहास से खूब छेड़छाड़ की, जयचंद जैसे ऐसे कई किरदार घड़ कर बहुत कुछ लिखा गया ताकि आने पीढियां अपने पूर्वजों से घृणा करें और उनका मनोबल ना बढे ताकि आने वाली राजपूतों की पीढ़ी उन विरोधियों को कोई चुनौती ना दे सके| इस तरह एक तरफ राजपूतों के प्रमाणिक इतिहास में वामपंथी व कई कथित सेकूलर लेखक इसे मिशन की तरह बनाकर बाधक बने, वहीं अनजाने में, आधे अधूरे ज्ञान, बिना शोध, बिना प्राचीन इतिहास व साहित्य पढ़े कई स्वजातीय बंधुओं इतिहासकार बनने की चाह, होड़ में कुछ पुस्तकें लिख देते है, जो प्रमाणिक इतिहास में अनजाने ही बाधक बन जाती और आने पीढ़ियों के मन में इतिहास को लेकर भ्रांतियां फ़ैलाने में सक्रीय है|

ऐसे एक पुस्तक का उदाहरण स्वरुप आज यहाँ जिक्र रहा हूँ, जिसमें क्षत्रिय गोत्राचार को लेकर सुनी सुनाई बातें लिखी है, हालाँकि अन्य ऐतिहासिक तथ्य सहेजने में लेखक ने काफी मेहनत की, जिसका मैं आदर करता हूँ| लेखक की इसी मेहनत का सम्मान करते हुए मैं पुस्तक व लेखक का नाम यहाँ नहीं लिख रहा, साथ ही यह भी मानता हूँ कि पुस्तक की सभी जानकारियां गलत नहीं हो सकती, लेकिन मेरे सामने जो बात आई, उस पर अपने विचार अवश्य रखूंगा ताकि उक्त पुस्तक के अगले संस्करण में प्रकाशक संशोधन कर सके या फूटनोट में सही जानकारी जोड़ सके|

उक्त पुस्तक के अनुसार क्षत्रिय गोत्राचार- "प्रत्येक राजकुल की विशेष-विशेष बातें, उसकी धार्मिक मान्यताएं, उस कुल के क्षत्रियों की विद्या व शस्त्र ज्ञान की विशेषताएं आदि को संकलित करके उस कुल के क्षत्रिय की पहचान के लिए विद्वानों ने एक सूत्र तैयार किया जिसे गोत्राचार कहते है| प्रत्येक कुल का एक गुप्त गोत्राचार होता है जिसके आधार पर उस कुल के क्षत्रियों की पहचान की जाती है|"

क्षत्रियों के गोत्राचार के सूत्र के बारे में जहाँ तक मैंने अपने बुजुर्गों से जाना है और कई विद्वानों के विचार पढ़े है, उनके अनुसार क्षत्रियों के गोत्र उन गुरुजन ऋषियों, पुरोहितों के नाम के सूचक है, जिनके सानिध्य में क्षत्रिय शिक्षा-दीक्षा लेते थे अत: क्षत्रियों के जो भी गोत्र है वे उनके पुरोहितों व ऋषियों के नाम पर ना कि किसी कुल की धार्मिक मान्यताओं, अस्त्र-शस्त्र प्रयोग या विद्या के आधार पर| साथ ही आजतक गोत्राचार कभी गुप्त नहीं रहे और ना ही किसी कुल की पहचान मात्र गोत्राचार के आधार पर रही है| क्षत्रियों की पहचान उनके कुल के आधार पर ही रही है क्योंकि किसी भी कुल का कोई एक गोत्र कभी नहीं रहा, यदि एक व्यक्ति की चार संतानों ने चार पुरोहितों या ऋषि के आश्रम में शिक्षा ली तो एक ही पिता के चारों पुत्रों का गोत्र अलग अलग होगा| अत: किसी कुल की पहचान बनाने हेतु गोत्राचार बनाने के सूत्र की कल्पना ही गलत है|

क्षत्रियों के गोत्राचार के बारे में क्षत्रिय इतिहास के विद्वान गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने अपनी पुस्तक "उदयपुर का इतिहास" भाग-1 के पृष्ठ 201 से 206 पर इस सम्बन्ध में काफी शोधपूर्ण तथ्य प्रस्तुत किये है| ओझा के अनुसार भी क्षत्रियों के गोत्र और प्रवर पुरोहितों के गोत्र और प्रवर समझने चाहिए| ओझा ने "उदयपुर का इतिहास" में कुछ प्राचीन उद्दरण भी दिए है, उनके अनुसार-

वि.स. की दूसरी शताब्दी के प्रारंभ में अश्वघोष नामक प्रसिद्ध विद्वान और कवि हुआ, जिसने अपने सौदरनंद काव्य के प्रथम सर्ग में क्षत्रियों के गोत्रों के संबंध में विस्तृत विवेचन किया है, उसका सारांश निम्न है-
"गौतम गोत्री कपिल नामक तपस्वी मुनि अपने माहात्म्य के कारण दीर्घतपस के समान और अपनी बुद्धि के कारण काव्य (शुक्र) तथा अंगिरस के समान था| उसका आश्रम हिमालय के पार्श्व में था| कई इक्ष्वाकु-वंशी राजपुत्र मातृद्वेष के कारण और अपने पिता के सत्य की रक्षा के निमित्त राजलक्ष्मी का परित्याग कर उस आश्रम में जा रहे| कपिल उनका उपाध्याय (गुरु) हुआ, जिससे वे राजकुमार, जो पहले कौत्स-गोत्री थे, अब अपने गुरु के गोत्र के अनुसार गौतम-गोत्री कहलाये| एक ही पिता के पुत्र भिन्न-भिन्न गुरुओं के कारण भिन्न भिन्न गोत्र के हो जाते है, जैसे कि राम (बलराम) का गोत्र "गाग्र्य" और वासुभद्र (कृष्ण) का "गौतम" हुआ| जिस आश्रम में उन राजपुत्रों ने निवास किया, वह "शाक" नामक वृक्षों से आच्छादित होने के कारण वे इक्ष्वाकुवंशी "शाक्य" नाम से प्रसिद्ध हुये| गौतम गोत्री कपिल ने अपने वंश की प्रथा के अनुसार उन राजपुत्रों के संस्कार किये और उक्त मुनि तथा उन क्षत्रिय-पुंगव राजपुत्रों के कारण उस आश्रम ने एक साथ "ब्रह्मक्षत्र" की शोभा धारण की|"

वि.स. 1133 और 1183 के बीच दक्षिण (कल्याण) के चालुक्य (सोलंकी) राजा विक्रमादित्य (छठे) के दरबार में पंडित विज्ञानेश्वर ने "याज्ञावल्क्यस्मृति" पर "मिताक्षरा" नाम की विस्तृत टीका लिखी, जिसका अब तक विद्वानों में बड़ा सम्मान है और जो सरकारी न्यायालयों में भी प्रमाणरूप मणि जाती है| उस टीका में लिखा है है कि-"राजन्य (क्षत्रिय) और वैश्यों में अपने गोत्र (ऋषिगोत्र) और प्रवरों का अभाव होने के कारण उनके गोत्र और प्रवर पुरोहितों के गोत्र और प्रवर समझने चाहिए| साथ ही उक्त कथन की पुष्टि में आश्वलायन का मत उद्धृत करके बतलाया है कि राजाओं और वैश्यों के गोत्र वही मानने चाहिये, जो उनके पुरोहितों के हों|"

गोत्राचार के बारे में ओझा जी का विस्तृत विवेचन यहाँ क्लिक कर पढ़ा जा सकता है|

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