उजळी और जेठवै की प्रेम कहानी और उजळी द्वारा बनाये विरह के दोहे

Gyan Darpan
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करीब ११ वीं-१२ वीं शताब्दी में हालामण रियासत की धूमली नामक नगरी का राजा भाण जेठवा था | उसके राज्य में एक अमरा नाम का गरीब चारण निवास करता था | अमरा के एक २० वर्षीय उजळी नाम की अविवाहित कन्या थी | उस ज़माने में लड़कियों की कम उम्र में ही शादी करदी जाती थी पर किसी कारण वश उजळी २० वर्ष की आयु तक कुंवारी ही थी |

अकस्मात एक दिन उसका राजा भाण जेठवा के पुत्र मेहा जेठवा से सामना हुआ और पहली मुलाकात में ही दोनों के बीच प्रेम सम्बन्ध स्थापित हो गए जो दिनों दिन दृढ होते गए | दोनों के विवाह की वार्ता चलने पर मेहा जेठवा ने उजळी से शादी करने के लिए यह कह कर मना कर दिया कि चारण व राजपूत जाति में भाई- भाई का सम्बन्ध होता है इसलिए वह उजळी से विवाह कर उस मर्यादा को नहीं तोड़ सकता | हालाँकि उजळी के पिता आदि सभी ने शादी के सहमती दे दी थी | पर जेठवा के हृदय में मर्यादा प्रेम से बढ़ी हुई थी इसलिए उसे कोई नहीं डिगा सका , पर जेठवा के इस निर्णय से उजळी का जीवन तो शून्य हो गया था |

कुछ दिनों के बाद मेहा जेठवा की किसी कारण वश मृत्यु हो गई तो उजळी की रही सही आशा का भी अंत हो गया | उजळी ने अपने हृदय में प्रेम की उस विकल अग्नि को दबा तो लिया पर वह दबी हुई अग्नि उसकी जबान से सोरठो (दोहों) के रूप में प्रस्फुटित हुई | उजळी ने अपने पुरे जीवन में जेठवा के प्रति प्रेम व उसके विरह को सोरठे बनाकर अभिव्यक्त किया | इस सोरठों में उजळी के विकल प्रेम, विरह और करुणोत्पादक जीवन की हृदय स्पर्शी आहें छिपी है |
मेहा जेठवै की मृत्य के बाद अकेली विरह की अग्नि में तप्ति उजळी ने उसकी याद में जो सोरठे बनाये उन्हें हम मरसिया यानी पीछोले भी कह सकते है |

उदहारण व आपके रसास्वाद हेतु कुछ उजळी के बनाये कुछ पीछोले (दोहे) यहाँ प्रस्तुत है | इन दोहों का हिंदी अनुवाद व उन पर टिका टिप्पणी स्व.तनसिंहजी द्वारा किया गया है -

जेठ घड़ी न जाय, (म्हारो) जमारो कोंकर जावसी |
(मों) बिलखतड़ी वीहाय, (तूं) जोगण करग्यो जेठवा ||


जिसके बिना एक प्रहर भी नहीं बीतता उसी के बिना मेरा जीवन कैसे बीतेगा | मुझ बिलखती हुई अबला को छोड़कर हे जेठवा तू मुझे योगिन बना गया |

"जोगण करग्यो" में एक उलाहना भरी हृदय की मौन चीत्कार छिपी है | अब मेरा जीवन कैसे चलेगा | यह प्रश्न क्या दुखी हृदय में नहीं उठता ? अपनी अमूल्य निधि को खोकर "बिलखतड़ी वीहाय " कहकर इस बेबसी भरे हाहाकार को "जोगण करग्यो" कहकर धीरे से निकाल देती है |

टोळी सूं टळतांह हिरणां मन माठा हुवै |
बालम बीछ्ड़तांह , जीवै किण विध जेठवा ||

टोली के बिछुड़े हुए हिरणों के मन भी उन्मत हो जाते है फिर प्रियतम के बिछुड़ने पर प्रियतमा किस प्रकार जीवित रह सकती है |

प्रिय वस्तु का नाश संसार से विरक्ति का उत्पादन करता है | उस वस्तु बिना जीवन के सब सुख फीखे लगते है | विशेषतः हिन्दू नारी के लिए पति से बढ़कर जीवन में कोई भी प्रिय वस्तु नहीं , और जब पति की मृत्यु हो जाति है तो नारी भी "जीवै किण विध जेठवा" कहने के अलावा और कह ही क्या सकती है ? जब हिरन जैसे पशु भी विरह की घड़ी आते देख उन्मत हो जाते है फिर कोमल भावनाओं वाली नारी पति बिना किस प्रकार जीवित रह सकती है ?

जेठा थारै लार ,(म्हे) धोला वस्तर पैरिया |
(ली) माला चनणरी हाथ, जपती फिरूं रे जेठवा ||


हे जेठवा तेरे पीछे (मृत्यु के बाद) मैंने श्वेत वस्त्र धारण कर लिए है और चन्दन की माला हाथ में लेकर मैं जप करती फिरती हूँ |

पति के मरने पर रंग बिरंगे और श्रंगार की अपेक्षा हिन्दू नारी को "(ली) माला चनणरी हाथ,जपती फिरूं रे जेठवा " ही कहना इष्ट है | पति से त्यक्त अभागिनी उजळी के हृदय के करुण रुदन की दुखद हूक इस सोरठे में अदभुत रूप से व्यक्त है |
जग में जोड़ी दोय, चकवै नै सारस तणी |
तीजी मिळी न कोय, जोती हारी जेठवा ||

संसार में दो ही जोड़ी है - चकवे व सारस की | लेकिन हे जेठवा ! मैं खोज खोज कर हारी तो भी तीसरी जोड़ी न मिली |

उजळी को विश्वास था कि चकवे व सारस के बाद जेठवा व मेरी जोड़ी तीसरी जोड़ी है लेकिन उस जोड़ी के टूटने पर और जोड़ी कहाँ प्राप्त हो सकती है |

चकवा सारस वाण, नारी नेह तीनूं निरख |
जीणों मुसकल जाण, जोड़ो बिछड़ यां जेठवा ||

चकवे को, सारस के क्रन्दन को और नारी के नेह को, इन तीनों को देखकर यही प्रमाणित होता है कि जोड़ी के बिछुड़ने पर जीना कठिन है |

मृत्यु को प्राप्त हुए प्रेमी के लिए जीवित प्रेमी का सबसे बड़ा बल अपनी ही मृत्यु है | यहाँ तक कि साधारण दुःख की अवस्था में भी मनुष्य आत्महत्या के लिए प्रस्तुत हो जाते है | विशेषतः एक हिन्दू नारी का विधवा होना उसके जीवन का सबसे बड़ा दुखप्रद क्षण है | उस क्षण में यदि उजळी जैसी भावुक प्रेमिका जेठवा जैसे प्रेमी के लिए "जीणों मुसकल जाण" कह दे तो कोई अतिश्योक्ति नहीं अपितु यथार्थता की चरम सीमा है | जीवन की अनुभूति पर करुणा का आवरण चढ़ाकर उजळी ने अपने दुखी जीवन का कितना मर्मस्पर्शी चित्र खिंचा है |

क्रमशः


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14टिप्पणियाँ

  1. ये है प्रेम की परकाष्ठा |इस सुन्दर पोस्ट के रूप में उजळी और जेठवा की कहानी पढ़ने को पहली बार मिल रही है | आभार |

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  2. बहुत ही सुन्दर वर्णन विरह का। रतन जी तुसी ग्रेट हो। आपकी उजळी ने रुला दिया इस पहलवान को भी।

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  3. sacche pyar ki paribhasha to wahi jane jisne kabhi ye pida sahi ho .......ujali ke doho ne hame bhi jhkjhor diya .........shukriya hukum

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  4. ये दोहे तो बहुत बढ़िया रहे!

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  5. बहुत सुंदर कहानी, आभार आपका.

    रामराम.

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  6. रतन जी,
    प्रेम का अदभुद मार्मिक वर्णन .... उजली के जीवन का बहुत ही मर्मस्पर्शी चित्र ............

    मेरे ब्लॉग सृजन_ शिखर पर " हम सबके नाम एक शहीद की कविता "

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  7. कहानी बहुत अच्छी ओर सुंदर लगी धन्यवाद

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  8. पहली बार यह कहानी पढ़ी..बहुत अच्छी है और प्रेम की पराकाष्ठा

    http://veenakesur.blogspot.com/

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  9. आपकी पोस्ट की रचनात्मक सौम्यता को देखते हुए इसे आज के चर्चा मंमच पर सजाया गया है!
    http://charchamanch.uchcharan.com/2010/12/369.html

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  10. jal pieedho jadeh paba sar re pawtye eye ninakiye nadeye jev na dhapye jethva (im sagar dan charan)

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