ये है धनकोली गांव | कभी कायमखानी मुसलमानों और मेड़तिया राठौड़ों की जागीर में रहा यह गांव
वर्तमान में डीडवाना कुचामन जिले में मौलासर लोसल रोड़ पर स्थित है, जो मौलासर से 10 किलोमीटर और लोसल से 4 किलोमीटर की दूरी पर है | इस गांव में शासन करने वाले शासकों का एक ऐतिहासिक और
सुन्दर गढ़ बना है, तो दूर
दराज के क्षेत्रों में व्यापार करने वाले सेठों की बड़ी बड़ी और भव्य हवेलियाँ और
प्राचीन बाजार बने हैं| यहाँ बने मंदिर, मस्जिद और देवालय यहाँ के निवासियों की धार्मिक आस्था प्रदर्शित करते हैं
तो कुँए और तालाब यहाँ के उदार और जनकल्याण को सर्वोपरि समझने वाले नागरिकों की भी
याद दिलवाते हैं | धनकोली के अंतिम शासक ठाकुर तेजसिंह जी के ऊंट बड़े
प्रसिद्ध थे | इतने प्रसिद्ध कि
उनके ऊंट की सवारी देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने एवं बाबू
जगजीवनराम ने भी की थी| देश की आजादी के बाद देशी रियासतों का राज ख़त्म होने के
बाद कभी प्रशासनिक कार्यों में व्यस्त रहने वाले गढ़ में वो चकाचौंध और भीड़ भाड़
नदारद हो गई तो पुराने व्यापारिक रूट बंद होने और व्यापार करने के बदले तरीकों के
चलते यहाँ बनी सेठों की हवेलियाँ भी सुनी पड़ी है और यहाँ के मूल निवासी स्वनामधन्य
सेठों के परिजन महानगरों की आर्थिक चकाचौंध में अपने मूल गांव धनकोली को शायद भूल
चुके हैं| "धनकोली आज तक" पुस्तक के लेखक एम. के. आजाद
के अनुसार बेरी गांव के नबाब आसल खां कायमखानी सन 1500 ई. में गद्दी पर बैठे तब
उन्होंने अपने छोटे भाई माखन खां को यह धनकोली गांव जागीर में दिया| एम.के. आजाद लिखते हैं कि माखन खां ने
यह गांव बसाया नहीं, बल्कि पहले से बसा था, यानि धनकोली गांव का सन 1500 ई से पहले अस्तित्व था.माखन खां जी के बाद पहाड़ खां यहाँ के शासक हुये,
जिन्होंने गांव में मुरलीधर जी का मंदिर बनवाया जिसका वर्तमान में
जीर्णोद्धार खेतावातों ने करवाया| पहाड़ खां जी के बाद कानसिंह उर्फ़ कानू खां कायमखानी, लाड खां, दायम खां,
ममूद खां, सलेखां आदि कायमखानी जागीरदार हुए
पर वि. स. 1808 में कुचामन के ठाकुर जालमसिंह मेड़तिया ने क्षेत्र की कई कायमखानी
जागीरों को युद्ध कर अपने अधीन कर लिया औरमारवाड़ नरेश ने भी मेड़तीयों को मान्यता दे दी | इस तरह इस गांव की जागीरदारी कायमखानी सरदारों से
मेड़तिया राठौड़ों के हाथ में आ गई| कुचामन
ठाकुर जालमसिंह जी के पौत्र मालम सिंह जी धनकोली के पहले मेड़तिया जागीरदार हुए
उनके बाद हमीरसिंह जी हुए, हमीर सिंह जी के बादशिवदान सिंह जी हुए, शिवदान
सिंह जी के समय धनकोली ने काफी प्रगति की, व्यापार बढ़ा,
हाट मंडी का निर्माण हुआ, स्थानीय सेठों ने भी
गांव के विकास हेतु निवेश किया, किसानों को राहत दी गई और
कृषि को बढ़ावा दिया गया, शिवदानसिंह जी के आग्रह पर चौधरी
कानाराम ने कुआं खुदवाया, उससे पहले चौधरी कानाराम के पिता
हरजीराम में पेयजल के लिए एक तालाब खुदवाया था. कुएं पर आज भी हरजीराम की छ:
खम्भों वाली स्मारक रूपी छतरी बनी है | शिवदान सिंह जी ने वि. सं.1847 से 1880 तक गांव पर शासन
किया. उनके बाद ठाकुर हुकम सिंह वि. सं. 1880 से 1891, ठाकुर पृथ्वीसिंह वि.सं. 1891 से 1905,
ठाकुर सतीदानसिंह वि. सं. 1905 से 1930, ठाकुर
पाबुदानसिंह, 1930 से 1970, ठाकुर
गोविन्दसिंह 1970 से 1973, ठाकुर अमरसिंह 1974 से 1983,
ठाकुर अमरसिंह निसंतान थे अत: ठाकुर तेजसिंह गोद आकर गद्दी पर बैठे|
जो देश की आजादी तक धनकोली के शासक रहे | ठाकुर तेजसिंह जी की विशेष प्रसिद्धि उनके प्रशिक्षित
ऊँटों के कारण हुई, ऊंट
उन्हें बेहद प्रिय थे और देश भर के पशु मेलों में उनकी बड़ी धूम थी । जाजम बिछा कर
उस पर ऊँट को फेरना और कपड़े में सलवट तक नहीं पड़ना दर्शकों को हैरानी में डाल
देने वाला दृश्य होता था । मेलों में वह उत्साह उमंग के साथ भाग लिया करते थे । दो अक्टूबर सन् 1959 में पंचायत राज के उद्घाटन अवसर पर
जब देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू नागौर आए तो धनकोली ठाकुर के
ऊंट की सवारी का लोभ संवरण नहीं कर पाए। बाबू जगजीवन राम ने भी ऊंट की सवारी की । धनकोली के इन प्रशिक्षित ऊंटों ने पशु मेलों में कितने
पुरस्कार जीते इसका हिसाब मुश्किल हैं। ये जहां भी गए अद्वितीय रहे। सजावट भी इनकी
कमाल की होती थी । छेवटी, गोरबंध,
कूची, मोहरा, गहने और ऊंट
की कोराई का जवाब न था । आपको बता दें मेड़तिया राठौड़ों ने कायमखानी सरदारों से
जागीर छीन लेने के बावजूद कायमखानियों से बन्धुत्त्व के भाव का व्यवहार रखा और
उन्हें मुसाहिब जैसे पदों पर नियुक्त रखा और मान सम्मान दिया, जिससे दोनों समुदायों में आपसी सहयोग,
प्रेम और सामंजस्य बना रहा| इन नामों में अली
खां जी का विशेष है, अली खां जी की गुवाड़ी में नीम का बड़ा
पेड़ होने के कारण वह नीम वाली कोटड़ी कहलाई । अली खां जी ब्राह्मणों का बड़ा सम्मान
करते थे और अक्सर ब्रह्म भोज का आयोजन करते थे । धनकोली गांव में बनी सेठों की बड़ी बड़ी हवेलियाँ और
प्राचीन बाजार की दुकाने देखकर आप सहज अनुमान लगा सकते हैं कि रियासत काल में यह
एक व्यापारिक केंद्र था और यहाँ कई बड़े बड़े व्यापारिक घराने निवास और व्यापार करते
थे, इन व्यापारिक घरानों में सोमानी,
खेतावत, अग्रवाल, मूंधड़ा,
बियाणी, सारडा, तापड़िया,
मोर (गोयल), निमोदिया, पटवारी,
लाहौटी प्रमुख थे। इनका व्यापार दूर दूर तक फैला था, जिसे आप आयात निर्यात कह सकतें है
।पर समय के साथ व्यापार करने के तरीके
बदले तो इन परिवारों को भी गांव छोड़ बड़े शहरों की ओर रुख करना पड़ा और आज इन सेठों
की हवेलियाँ सूनी पड़ी है । इन व्यपारिक घरानों ने धनकोली में विकास के कई काम करवाए
और आज भी करवाते रहते हैं |