राम के पुत्र कुश के वंशजों ने किया था इस किले का निर्माण

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रोहतासगढ़ किले से सम्बन्धित 12 वीं सदी से पहले का कोई शिलालेख तो नहीं मिलाता, लेकिन विभिन्न इतिहासकारों के मुताबिक इस किले पर कभी कछवाह क्षत्रिय वंश का शासन था और इसी वंश के रोहिताश्व ने इस किले का निर्माण करवाया था। रोहिताश्व के नाम पर इस किले का नाम रोहतासगढ़ पड़ा। इतिहासकार देवीसिंह मंडावा अपनी पुस्तक राजपूत शाखाओं का इतिहास के पृष्ठ- 219 पर लिखते है- ‘‘सूर्यवंश में अयोध्या का अंतिम शासक सुमित्र था। जिसे लगभग 470 ई.पूर्व मगध देश के प्रसिद्ध शासक अजातशत्रु ने परास्त करके अयोध्या पर अधिकार कर लिया। अयोध्या पर शासन समाप्त होने के बाद सुमित्र का बड़ा पुत्र विश्वराज पंजाब की ओर चला गया। छोटा पुत्र कूरम अयोध्या क्षेत्र में ही रहा। इसी के नाम से इसके वंशज कूरम कहलाये। बाद में कूरम ही कछवाह कहलाने लगे। इसी वंश का महीराज मगध के शासक महापद्म से युद्ध करते हुए मारा गया था। मगध के कमजोर पड़ने पर कूरम के वंशजों ने रोहितास पर अधिकार कर लिया। रोहितास का प्रसिद्ध किला इन्हीं कूरम शासकों का बनवाया हुआ है।’’ कर्नल टॉड लिखते हैं कि ‘‘महाराजा कुश के कई पीढ़ी बाद उसी के किसी वंशधर ने शोणनद (सोन नदी) के किनारे रोहतास नामक दुर्ग का निर्माण कराया था।’’

बांकीदास की ख्यात में लिखा है- ‘‘कछवाह रो राज थेटू पूरब में रोहितासगढ़, उठा सूं नरवर बासिया।’’ कर्नल टॉड कृत राजस्थान का पुरातत्व एवं इतिहास, भाग-3, पृष्ठ 59 पर लिखा है- ‘‘कछवाह या कछुवा जाति वाले अपनी उत्पत्ति राम के द्वितीय पुत्र कोसल नरेश कुश से मानते है। उनकी राजधानी अयोध्या थी। कुश और उनके पुत्रों के बारे में कहा जाता है कि वे अपने पैतृक स्थान छोड़कर अन्यत्र चले गए थे और उन्होंने रोहिताश्व-रोहतास का प्रसिद्ध दुर्ग बनवाया था। ‘‘राजस्थान के विख्यात और प्रथम इतिहासकार नैणसी ने अपनी पुस्तक नैणसी री ख्यात, भाग-2, पृष्ठ 23 पर कछवाह राजवंश की वंशावली में उदृत किया है- ‘‘राजा हरिचंद त्रिशंकु का, राणी तारादे कुंवर रोहितास, रोहितासगढ़ बसाया।’’

किले में लिखा एक शिलालेख, जो 1169 का है, से पता चलता है कि जपिला के खैरवालवंशी प्रताप धवल ने रोहतासगढ़ तक एक सड़क का निर्माण कराया था। 1223 के लाल दरवाजे के पास मिले शिलालेख में प्रताप धवल के वंशजों का वर्णन है। इससे स्पष्ट है कि 12 वीं व 13 वीं सदी में यह गढ़ प्रताप धवल के वंशजों के अधिकार में था। यही नहीं 16 वीं सदी में शेरशाह सूरी द्वारा यह किला हिन्दू राजा से धोखे द्वारा लिए जाने तक इस पर हिन्दू राजाओं का अधिपत्य रहा। दीनानाथ दूबे के अनुसार 16 वीं सदी में शेरशाह सूरी के अधीन होने पर उसके विश्वस्त सेनापति हैबत खान ने 1543 में तीन गुम्बद वाली जामी मस्जिद का निर्माण कराया, जिसके पास एक मकबरा भी है। अकबर के बादशाह बनने व बंगाल व बिहार पर उसका अधिपत्य के होने बाद यह किला मुगल साम्राज्य के पूर्वी सूबे सदर मुकाम बना। आमेर के राजा मानसिंह जब यहाँ के सूबेदार बने तो इस किले का भाग्य फिरा और इसने अपना खाया वैभव पुनः प्राप्त किया। राजा मानसिंह के पूर्वज कछवाहों द्वारा निर्मित होने के कारण राजा मानसिंह को इस किले से बेहद लगाव था। साथ ही किले के सामरिक महत्त्वपूर्ण को देखते हुए राजा मानसिंह ने इस किले को अपना मुख्यालय बनाया और किले की मरम्मत कराने के साथ ही अपनी शान के अनुरूप यहाँ कई महल, मंदिर आदि बनवाये। अकबर के शासन में इस दुर्ग में डेढ़ लाख से ऊपर सैनिक और 4550 घुड़सवारों का रिसाला रखा जाता था।

शाहजादा खुर्रम ने, जो बाद में शाहजहाँ के नाम से बादशाह बना, नूरजहाँ के षड़यंत्रो से व्यथित होकर 1621 में अपने पिता जहाँगीर के खिलाफ बगावत की और इस काल में अपनी बेगम मुमताज-महल के साथ रोहतासगढ़ में शरण ली थी। औरंगजेब के काल में यह किला एक तरह से यातना शिविर में बदल गया था। 1736 तक यह किला नबाब मीर कासिम के हाथ में रहा, पर अंग्रेजों के साथ बक्सर की लड़ाई हारने पर मीर कासिम भाग गया और किले पर अंग्रेजी प्रभुत्व कायम हुआ। अग्रेजी प्रभुत्व में इस दुर्ग को सर्वाधिक नुकसान ब्रिटिश सैनिकों ने पहुँचाया।

1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के दौरान रोहतासगढ़ स्वतंत्रता सेनानियों का केंद्र रहा। स्वतंत्रता संग्राम को कुचलने के लिए यहाँ अपनी हार से बौखलाए अंग्रेजों ने इस किले को तहस नहस करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। किले के चारों का और का घना जंगल भी अंग्रेजों ने कटवा दिया। तब यह किला वीरान पड़ा है।

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