Devas and Dhar ke Parmar देवास और धार के परमार राजवंश का इतिहास

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देवास और धार के परमार राजवंश का इतिहास 

ये परमार मालवा के परमार वंशजों मे से हैं। इनकी एक शाखा मालवा से मुसलमान अधिकार के समय जगनेर (आगरा के पास) चली गई जहाँ से । अशोक मेवाड़ चला गया जिसे बिजौलिया की जागीर मिली। इसका छोटा भाई शम्भूसिंह सन्तुष्ट न था अतः कुछ साथियों के साथ आगे चल पड़ा। जिसने पूना और अहमद नगर के पास के इलाके पर कब्जा कर लिया किन्तु इसे पड़ौसी शासक ने धोखे से मार दिया। इसके बाद इसका पुत्र कृष्णाजी शिवाजी महाराज की सेवा में पहुँच गया। इनका अफजलखाँ के पुत् फजलखाँ से पंडरपुर के नजदीक युद्ध हुआ। कृष्णाजी परमार और मोरापंथ ने शिवाजी से बैर लेने वाले को बुरी तरह परास्त किया। कृष्णाजी के तीन पुत्र थे। बुआजी,रामजी और कैरीजी। इन तीनों परमार बन्धुओं ने शिवाजी के पुत्र राजाराम को मराठा साम्राज्य के विस्तार व सुरक्षा में उल्लेखनीय योगदान दिया जिससे प्रसन्न हो छत्रपति राजाराम ने इन्हें विश्वासराव व सेना सप्त सहस्त्रों की उच्च उपाधियां प्रदान की। बुआजी पंवार के दो पुत्र कालोजी न सम्भाजी थे। कालोजी के वंशज देवास व सम्भाजी के वंशज धार राज्यों के स्वामी बने।

देवास- देवास शासकों में तुकोजी परमार ने कई मरहठा अभियानों में भाग लिया तथा उल्लेखनीय सफलता व ख्याति प्राप्त की। तुकोजी ई. 1753 में मारवाड़ युद्ध में मारे गये। तुकोजी के बाद उनके भाई के पौत्र कृष्णाजी व उसके बाद तुकोजी द्वितीय उत्तराधिकारी बने। पेशवा ने तुकोजी को वैलेजली की सहायतार्थ भेजा। पिडारी युद्ध में भी इन्होंने अंग्रेजों की मदद की।

धार- संभाजी मरहठों के मालवा विजय अभियान में साथ गये थे। जीजी के घेरे में दिखाए पराक्रम से उनका दर्जा बड़ा दिया गया। मालकम ने लिखा है कि मरहठों का मांडवगढ़ पर अधिकार सम्भाजी पंवार के पुत्र उदाजी के ही प्रयत्नों से हुआ था। उदाजी दिल्ली अभियान में सेना के प्रमुख सरदारों में थे जिन्होंने सैयद बन्धुओं की मदद की। इनके भाई आनन्द राव पंवार का भी मरहठा साम्राज्य विस्तार में महत्वपूर्ण हाथ रहा था। आनन्दराव पंवार के बाद उनके पुत्र यशवंतराव ने काफी ख्याति प्राप्त की। पानीपत के तीसरे युद्ध में यशवंत पंवार वीरगति को प्राप्त हुए। इस समय तक धार राज्य विस्तार पा चुका था।

सन् 1918-19 में देवास व धार राज्य की अंग्रेजों से संधी हो गई और दोनों पंवार राज्य अंग्रेजों के आधीन चले गए।

देवीसिंह मंडावा द्वारा लिखित पुस्तक "क्षत्रिय राजवंशों का इतिहास" से साभार 


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