कैसी अद्भुत थीं यहाँ की मातृभूमि-प्रेम की वे वीरोचित परम्पराएँ ? उनका विशद् विवेचन तो एक स्वतंत्र ग्रंथ का ही विषय है। इतिहास के कीर्तिपृष्ठों में वे शतशः बिखरी पड़ी है। यहाँ केवल एक झलक देख लीजिए । मृत्यु के अनन्तर मृतक को उसके पुत्रों द्वारा पिण्डदान दिए जाने का विधान तो प्रायः सभी हिन्दुओं में है परन्तु युद्धस्थल में घावों से घायल हो जाने पर स्वयं अपने ही शरीर का रक्त, मांस और मजा तथा युद्धभूमि की मिट्टी ले, जीते जी अपनी भूमि-माँ को पिण्डदान देने का यह रोमांचक विधान तो वीरभूमि राजस्थान के वीर पुत्रों के सिवा और कहीं शायद ही देखने को मिले । खंडेला के रणक्षेत्र में उस दिन कुछ ऐसा ही अद्भुत दृश्य घटित हुआ।
महाप्रतापी राव शेखा के वंशज शुराग्रणी केसरीसिंह खंडेला अजमेर के सूबेदार सैयद अब्दुल्ला की सेना से लड़ते हुए अगणित घावों से घायल हो, रणक्षेत्र में खून से लथपथ बेहोश पड़े थे। उनके रोम-रोम से रुधिर की धाराएँ फूट रही थीं। काफी देर बाद जब उन्हें कुछ होश आया तो उन्होंने भूमि माँ को अपना रक्तपिण्ड देने हेतु अपना हाथ बढ़ाया तथा युद्धभूमि से कुछ मिट्टी ले उसमें अपना रक्त मिलाने के लिए अपने घावों को दबाने एवं उनसे रक्त निकालने की असफल चेष्टा करने लगे। परन्तु वहाँ रक्त था ही कहाँ, जो निकले? वह तो सारा ही रस-रिसकर बह चुका था। इस पर वीर केसरीसिंह ने तलवार ले अपनी क्षत-विक्षत देह से मांस के टुकड़े काटने शुरू किए किन्तु फिर भी रक्त नहीं निकला। यह देखकर उनके समीप खड़े उनके काका अलूदा के मोहकमसिंह ने पूछा-‘यह आप क्या कर रहे हैं ?’ केसरीसिंह ने उस अर्द्धमूर्च्छित दशा में ही उत्तर दिया-‘‘मैं धरती माँ को रक्तपिण्ड अर्पित करना चाहता हूँ परन्तु मेरे शरीर में रक्त नहीं रहा’’-यह कहते-कहते उनके मुँह से एक क्षीण निश्वास निकल गई! यह सुन मोहकमसिंह ने गलदश्रु होकर कहा-‘आपके शरीर में रक्त नहीं रहा तो क्या हुआ, मेरे शरीर में तो है। आपकी और मेरी धमनियों में एक ही खून बह रहा है। लीजिए ………..’’ और यह कहते हुए उन्होंने अपना रूधिर उसमें मिला दिया, जिसके पिण्ड बनाते-बनाते ही वीर केसरीसिंह ने दम तोड़ दिया।
आसन्न मृत्यु के क्षणों में भी जिस धरती के लाल माँ-वसुन्धरा को अपना रक्त-अर्ध्य अर्पित करने की ऐसी उत्कट साध अपने मन में सैंजोये रखते हों, उसके एक-एक चप्पे के लिए यदि उन्होंने सौ-सौ सिर निछावर कर दिए हो तो इसमें आश्चर्य क्या है ?
अपनी भूमि के प्रति यह अनन्य अनुराग, असीम ममता और अगाध मातृभाव यहाँ की जीवन-दृष्टि किंवा सांस्कृतिक चेतना का अंगीभूत तत्त्व रहा है, जिसकी परम्परा अनादि काल से अक्षुण्ण एवं अव्याहत चली आ रही है। यह मातृ-भावना ही यहाँ पद-पद पर हुए अगणित युद्धों का हेतु तथा असंख्य गीतों-काव्यों के सृजन की प्रेरणा रही है और इनके उपजीव्य रहें है वे युद्ध, जो मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए लड़े गए हैं।
संदर्भ : ठाकुर सुरजनसिंह जी शेखावत की पुस्तक “मांडण युद्ध” से साभार
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