शौर्य, भक्ति व कला का संगम एक सामंत

Gyan Darpan
1
Nagridas of Kishagarh History in Hindi, Maharaja Savant Singh Story in Hindi
शौर्य, भक्ति कला का संगम महाराजा सावंतसिंह (नागरीदास)

वि.स. 1766 (1709 ई.) का एक दिन दिल्ली में बादशाह का एक हाथी बिगड़ कर महावतों के काबू से बाहर हो रास्ते पर दौड़ता चला जा रहा था| लोग हाहाकार मचाते, चिल्लाते रास्ता छोड़कर भाग रहे थे| उसी रास्ते में एक 10 वर्षीय क्षत्रिय बालक बेकाबू हाथी की परवाह किये बिना खड़ा था| लोगों ने चिल्लाकर उसे हटने को कहा पर वह बालक एक इंच नहीं हटा| बेकाबू हाथी जैसे ही पास आया, उस 10 वर्षीय बालक ने अपनी तलवार से ऐसा वार किया कि हाथी चिंघाड़ता हुआ पलट कर भाग खड़ा हुआ| उपस्थित लोग उस बालक के साहस और शौर्य को देख चकित रह गये|

वि.स. 1771 में यही बालक दिल्ली दरबार की सभा में अपने पिता सहित, कोटा नरेश भीमसिंह, श्योपुर के राजा राजसिंह, महाराजा गोपालसिंह भदौरिया आदि कई नरेशों के साथ बैठा था कि अचानक एक विषधर सांप उस बालक के पायजामे में घुस गया| बालक ने उस विषधर का फन पकड़कर पायजामे में ही मसल दिया और चुपचाप सभा से बाहर आकर उस सांप को फैंक दिया, पास बैठे लोगों को भनक तक नहीं लगने दी| 20 वर्ष की आयु में इसी बालक ने अकेले सिंह का शिकार किया|


वि.स. 1789 (1732 ई.) में राजस्थान की आचार्यपीठ सलेमाबाद के नवनीतपुरा गांव के गोचर में एक सिंह आ गया| उस गोचर में आचार्यपीठ की गायें चरा करती थी साथ ही वहां से लकड़ियाँ एकत्र की जाती थी| उस गोचर भूमि में शिकार पर पूर्ण प्रतिबंध था, गायें सिंह के हिंसक उपद्रव का शिकार हो रही थी फिर भी आचार्यपीठ के प्रमुख सिंह के शिकार की किसी को अनुमति नहीं दे रहे थे, पर सिंह से गायों की रक्षा भी चाहते थे| आखिर पीठ प्रमुख श्रीवृन्दावन देवाचार्य ने उपरोक्त बालक जो अब 23 वर्ष का युवा हो चुका था को बुलाकर सिंह के साथ द्वन्द-युद्ध कर गायों की रक्षा करने की आज्ञा दी| गुरुदेव की आज्ञा मिलते ही वह क्षत्रिय युवा प्राणों की परवाह किये बिना गौ-रक्षा हेतु उस खूंखार सिंह से भीड़ गया और उसे पछाड़ कर मार डाला|

इस तरह का अदम्य पराक्रम प्रदर्शित करने वाला वह क्षत्रिय युवक और कोई नहीं कृष्णगढ़ (किशनगढ़) के महाराजा राजसिंह के राजकुमार सावंत सिंह थे| जिनका जन्म पौष सुदी द्वादशी, वि.सं. 1756 को हुआ था| राजकुमार सावंतसिंह ने 13 वर्ष की अल्पायु में ही अकेले बूंदी के हाड़ा जैतसिंह को मार डाला था| अपने पिता के निधन के बाद बैसाख सुदी चतुर्थी, वि.सं. 1805 को पिता राजसिंह जी के द्वादशे के दिन दिल्ली में ही आपका राज्याभिषेक हुआ और आप किशनगढ़ व रूपनगर राज्य के विधिवत शासक बन गद्दी पर बैठे| उस काल में मराठा सरदार राजस्थान में उपद्रव मचाकर राजाओं से चौथ वसूलते थे| मराठा सरदार मल्हार राव और बाजी राव ने वि.सं. 1792 (1735 ई.) में महाराजा सावंतसिंह से भी मिलकर चौथ मांगी किन्तु इन्होंने कोई चौथ नहीं दी और रूपनगर से मराठा सरदार को खाली हाथ लौटाया|

आपकी अनुपस्थिति में आपके भाई बहादुरसिंह द्वारा जोधपुर के महाराजा की सहायता से राज्य पर कब्ज़ा कर लेने गृह युद्ध की स्थिति पैदा हो गई| राज्य के लिए भाई के साथ छिड़ी गृहकलह से बचपन से ही कृष्ण भक्त महाराजा सावंतसिंह के मन में विरक्ति के भाव पैदा हो गए और वे सब कुछ छोड़कर वृंदावन चले गए और वहाँ विरक्त भक्त के रूप में रहने लगे और भक्ति व काव्य जगत में नागरीदास के नाम से प्रसिद्ध हुए। आप बहुत अच्छे कवि थे अत: अपनी उस समय की चित्तवृत्ति का उल्लेख इन्होंने इस प्रकार किया है -

जहाँ कलह तहँ सुख नहीं, कलह सुखन को सूल।
सबै कलह इक राज में, राज कलह को मूल।।

विश्व में बणी ठणी के नाम व राजस्थान की मोनालिसा के नाम से मशहूर विष्णु-प्रिया जिससे वे असीम प्रेम करते थे आपकी उपपत्नी के रूप में वृन्दावन में आपके साथ रही| कई काव्य रचनाएँ लिखकर हिंदी काव्य क्षेत्र में आप नागरीदास के नाम से प्रसिद्ध हुए, जिनमें 73 पुस्तकें कृष्णगढ़ (किशनगढ़) में संग्रहीत हैं| आपकी भावुकता और श्रृंगारप्रियता ने कविता के रूप में कृष्ण भक्ति की जो रस धारा प्रवाहित की उसे किशनगढ़ के चित्रकारों ने जिस अंदाज व खूबसुरत शैली के साथ कूंचीबद्ध किया आज वह शैली विश्व की अन्य चित्र शैलियों की सरताज है|
इस तरह महाराजा सावंतसिंह जी के जीवन को शौर्य, भक्ति और कला का संगम कहा जाये तो कोई अतिश्योक्ति नहीं|

सन्दर्भ : सभी तथ्य डा. अविनाश पारीक द्वारा लिखित "किशनगढ़ का इतिहास" पुस्तक से साभार लिए गए है|

Kishangarh Paintings Story in Hindi, Kishangarh Maharaja Nagridas ki kahani hindi me, Bhakt Nagridas ki kahani, Bani Thani ki story

एक टिप्पणी भेजें

1टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें