कूँपाजी राठौड़

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कूँपाजी मेहराज (अखैराजोत) के पुत्र थे। इनका जन्म वि.सं. १५५६ को मार्गशीर्ष सुदि १२ को हुआ था। अखैराज ने अपने छोटे भाई का राजतिलक बगड़ी में किया था तब राव जोधा ने बगड़ी अखैराज को दी। नैणसी ने अपनी ख्यात में चूण्डासर बताया है जहाँ पहली बार राव जोधा का राजतिलक हुआ। राव जोधाजी का राजतिक दो बार हुआ था। दूसरी बार मण्डौर पर अधिकार हो जाने पर, मण्डौर में राजतिलक हुआ था। राजस्थान के योद्धाओं में अपराजित कहे जाने वाले चन्द नाम ही गिनाए जा सकते हैं जिन्होंने कोई युद्ध हारा नहीं। उनमें कूँपाजी राठौड़ का भी एक अनुपम नाम है जिन्होंने अपने जीवन में ५४ युद्ध लड़े व किसी भी युद्ध में पराजित नहीं हुए।

राव सूजाजी की मृत्यु के बाद राव गाँगा (कुं. बाधा का पुत्र) मारवाड़ की गद्दी पर बैठे। वीरम सूजावत को सोजत परगना मिला। बगड़ी सोजत परगने में होने के कारण कूँपाजी वीरम के यहाँ सेवा में थे। राव गाँगा जोधपुर की गद्दी पर बैठे, इससे वीरम और शेखा दोनों नाराज थे। राव गाँगा वीरम पर हमले करते थे लेकिन वीरम के पक्ष में कूँपाजी थे इसलिए सफलता नहीं मिल रही थी। राव गाँगा ने जैताजी की सहायता से कूँपाजी को अपनी सेवा में बुलवा लिया। इस तरह से सोजत को आक्रमण करके अपने अधिकार में लिया। राणा साँगा के बड़े भाई पृथ्वीराज (उड़ना राजकुमार) की पासवान (अविवाहित पत्नी) का पुत्र बणवीर चित्तौड़ का शासक बन गया था, उसे हटाकर उदयसिंह को राणा बनाने के लिए युद्ध हुआ। मारवाड़ से उदयसिंह की सहायता के लिए जो सेना भेजी गई थी उसमें अखैरोज सोनगरा व कूँपाजी भी थे। बणवीर और उदयसिंह के बीच माहोली (मावली) में युद्ध हुआ, जिसमें उदयसिंह की जीत हुई। इस प्रकार उदयसिंह को चित्तौड़ का शासक बनाने में कूँपाजी का विशेष सहयोग रहा।

वि.सं. १५८६ (ई.स. १५२६) में राव गाँगा के काका शेखा (पीपाड़) ने नागौर के शासक दौलत खाँ की सहायता से जोधपुर पर चढाई की। दोनों के मध्य सेवकी में युद्ध हुआ। रावजी की सेना में कूँपाजी भी थे। इस युद्ध में शेखा वीरगति को प्राप्त हुआ दौलत खाँ युद्ध से जान बचाकर भाग गया। राव गाँगा की मृत्यु के बाद राव मालदेव मारवाड़ के शासक बने। मालदेव ने विशाल साम्राज्य स्थापित किया। मालदेव के सभी सैनिक अभियानों में कूँपाजी ने वीरता प्रदर्शित की। इस युद्ध में वीरमदेव मेड़तिया और राव जैतसी बीकानेर भी राव गाँगा की सहायता के लिए आए थे। इस युद्ध के कारण एक बखेड़ा हो गया। जिसके कारण वीरमदेव और मालदेव के बीच शत्रुता हो गई। इस युद्ध में दौलत खाँ का एक हाथी लूट लिया था वह हाथी मेड़ता की तरफ आ गया। उस हाथी को लेने के लिए वीरम और कुं. मालदेव के बीच खींचतान चली।

वि.सं. १५९१ (ई.स. १५३५) में वीरमदेव ने मुसलमानों से अजमेर छीन ली। जब राव मालदेव को पता लगा तो उसने वीरमदेव को कहा कि यह नगर हमें दे दो। परन्तु उसने इस बात को नहीं मानी। इससे राव जी अप्रसन्न हो गए और जैता और कूँपा के नेतृत्व में मेड़ता पर सेना भेजी। मेड़ता पर राव मालदेव का अधिकार हो गया। वि.सं. १५९८ (ई.स.१५४२) में राव मालदेव ने बीकानेर पर चढ़ाई की। राव जैतसी बीकानेर रण खेत रहा। युद्ध में मालदेव की विजय हुई। इसके बाद झुंझुनू पर भी अधिकार कर लिया। इन युद्धों में राठौड़ कूँपाजी ने खास तौर पर भाग लेकर वीरता दिखलाई थी। इससे प्रसन्न होकर राव मालदेव ने झुंझुनू की जागीर के साथ बीकानेर के प्रबन्ध का अधिकार भी कूँपाजी को दे दिया।

वीरमदेव और कल्याणमल बीकानेर अपना खोया हुआ राज्य प्राप्त करने के लिए शेरशाह को मारवाड़ पर आक्रमण करने के लिए ले आए। वि.सं. १६०० में शेरशाह सूरी एक विशाल सेना लेकर मालदेव पर आक्रमण करने के लिए चला। इसकी सूचना जैता और कूँपा ने डीड़वाना से आकर राव मालदेव को दी। सूचना पाते ही राव मालदेव भी अपनी सेना तैयार कर अजमेर की तरफ आगे बढे। उस समय रावजी के पास अस्सी हजार वीर योद्धा थे। जब इस प्रकार तैयार होकर सम्मुख रणाँगण में प्रवृत्त होने का समाचार शेरशाह को मिला, तब उसका उत्साह ठंडा पड़ गया और वह मार्ग में से ही लौट जाना चाहता था। लेकिन वीरमदेव ने शेरशाह का उत्साह बढ़ाया।

सुमेल-गिरी के पास दोनों सेनाओं ने मोरचे बन्दी कर, आमने-सामने पड़ाव डाला। करीब एक मास तक सेनाएँ आमने-सामने पड़ी रही। समय-समय पर छुटपुट लड़ाई होती रही, परन्तु वीर राठौड़ों के सामने शेरशाह की एक न चली। उसने हताश होकर एक बार फिर लौट जाने का विचार किया। यह देख वीरम ने बहुत समझाया। लेकिन शेरशाह युद्ध के लिए राजी नहीं हुआ तब राव वीरम ने कपट जाल फैलाया। उसने मालदेव के बड़े-बड़े सरदारों के नाम कुछ झूठे फरमान लिखवा कर राव मालदेव की सेना में भिजवा दिए। इन फरमानों को देखकर राव मालदेव को अपने सरदारों पर सन्देह हो गया कि ये लोग शेरशाह से मिल गए हैं। सरदारों के काफी समझाने पर भी रावजी का सन्देह दूर नहीं हुआ। वह युद्ध क्षेत्र से लौट जाना चाहते थे। जैताजी, कूँपाजी और अखैराज सोनगरा युद्ध क्षेत्र से जाने के लिए राजी नहीं हुए। इन सरदारों ने कहा कि अजमेर आपने जीती सो आपके हुक्म से पीछे आ गए, हमें कोई आपति नहीं परन्तु यहाँ से पीछे का देश आपके और हमारे पूर्वजों का विजय किया हुआ है, इसलिए यहाँ से हटना हमें किसी भी प्रकार से अंगीकार नहीं हो सकता। इस पर भी मालदेव का उनके कथन पर विश्वास नहीं हुआ और वह रात्रि में ही जोधपुर के लिए लौट गये। राठौड़ों की सेना छिन्न-भिन्न हो गई।
यह देख कूँपाजी, जैताजी, अखैराज सोनगरा और अन्य सरदारों ने अपने ऊपर लगे विश्वासघात के कलंक को मिटाने के लिए शेरशाह से युद्ध करने का निश्चय किया। सरदारों ने विचार किया कि राव मालदेव ने हमारे ऊपर बहम कर बड़ा कलंक लगाया है। अगर हम यहाँ से बिना लड़े चले गए तो मारवाड़ में किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं रहेंगे। यह बात सोच कर शेरशाह से लड़कर मर मिटने का संकल्प किया। दिन उगने की बाट भी नहीं देखी, रात में ही अपने बारह हजार सैनिकों के साथ शेरशाह पर आक्रमण के लिए कूच किया। परन्तु भाग्य की कुटिलता से ये लोग अंधकार में मार्ग में भटक गए, अतः प्रातःकाल के समय लगभग पाँच-छः हजार योद्धा ही युद्ध क्षेत्र में पहुँचे। यद्यपि ऐसे समय में पाँच-छ: हजार राजपूत सैनिकों का अस्सी हजार पठान सैनिकों से भिड़ जाना बिलकुल अनुचित था, तथापि वीर राठौड़ों ने इसकी कुछ भी परवाह नहीं की और अपनी मर्यादा की रक्षा के लिए शत्रु सेना में घुसकर वह तलवार बजाई कि एक बार तो पठानों के पैर ही उखड़ गए। शेरशाह ने भी अपनी पराजय से दुखी हो भागने की तैयारी कर ली। परन्तु इतने में ही उसका एक सरदार जलाल खाँ अपने सुरक्षित दस्ते को लेकर आ गया। उस को रोकने के लिए राजपूत वीर घोड़ों से उतर कर दुश्मन के चारों तरफ फिर कर भयंकर मार-काट करने लगे। जलाल खाँ के घेरा डालकर जैसा भाटी (लवेरा) ने कटारी से घात कर उसे मार दिया। पत्ता कानावत लडता-लड़ता बादशाह के पास तक पहुँच गया। शेरशाह की जंगी फौज ने राजपूतों के चारों तरफ घेरा दे दिया, लेकिन उनकी पास में जाकर हमला करने की हिम्मत नहीं हुई। तीर कमाणों से तीरों की झड़ी लगा दी। कँपाजी, जैताजी, अखैराज सोनगरा, खींवकरण उदावत, जैसा भाटी (लवेरा), पंचायण करमसोत आदि प्रमुख योद्धा बहादुरी से लड़ते हुए रणखेत रहे। वि.सं. १६०० पोष सुदि११ (ई.स. १५४४ जनवरी ५) को सुमेल-गिरी की रक्तरंजित लड़ाई समाप्त हुई। जब विजय का समाचार शेरशाह के पास पहुँचा तो उसके मुँह से निकला-“ खुदा ने रहम किया वन एक मुट्ठी बाजरी के लिए मैं दिल्ली की सल्तनत खो बैठता।”

जिस समय मालदेव को अपने सरदारों की इस वीरता और स्वामिभक्ति का सच्चा समाचार मिला, उस समय वह बहुत दुःखी हुआ। परन्तु समय हाथ से निकल चुका था। साथ ही युद्ध से मारवाड़ की बहुत बड़ी क्षति हुई। लगभग पाँच हजार योद्धा रणखेत रहे। और मारवाड़ के प्रधान-प्रधान सरदार इस युद्ध में काम आए। मारवाड़ में शोक की लहर छा गई। कूँपाजी ने स्वामिभक्ति का जो परिचय दिया है वह मारवाड़ के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित है। कँपाजी के वंशज कूँपावत राठौड़ कहलाते हैं। इनका प्रमुख ठिकाना आसोप है। कूँपावत राठौड़ों ने मारवाड़ के लिए समय-समय पर सेवाएँ दी हैं। कूँपावत मारवाड़ में प्रमुख सरदार हैं।
लेखक : छाजूसिंह, बड़नगर

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