राजा जवाहरसिंह भरतपुर एवं महाराजा माधोसिंह जयपुर के मध्य मावंडा मंडौली युद्ध

Gyan Darpan
2
Battle of Maonda and Mandholi fought was between the Jat ruler of Bharatpur Raja Jawahar Singh and the Rajput ruler Maharaja Madhosingh of Amer Jaipur in 1767, Full story in Hindi

राजस्थान के इतिहास में भरतपुर के जाट राजा सूरजमल, जवाहरसिंह आदि का नाम वीरता और शौर्य के लिए प्रसिद्ध रहा है| सूरजमल के पिता बदनसिंह ने भरतपुर का राज्य अपने चचेरे भाई चूडामण के पुत्र से जयपुर के महाराजा जयसिंह की सहायता से हासिल किया था| यही कारण था कि बदनसिंह जिसे महाराजा जयसिंह ने मुग़ल सल्तनत से राजा के तौर पर मान्यता दिलवाई का बड़ा अहसान मानते थे और अपने आपको जयपुर का सामंत समझते थे| बदनसिंह के निधन के बाद उनके पुत्र सूरजमल भरतपुर के राजा बने और उन्होंने जीवन पर्यंत जयपुर के साथ रिश्ते निभाये और स्वयं को जयपुर के एक सामन्त से अधिक नहीं माना।

सूरजमल अपनी वृद्धावस्था तक दशहरा के दिन जयपुर नरेश को उपहार भेंट करने आते थे| जब कभी जयपुर नरेश डीग या भरतपुर से गुजरते तो वह एक सामन्त की तरह उनकी हाजिरी में उपस्थित होते और अपने किले की चाबियाँ उसके सामने रखकर कहते थे, यह सब आपका ही है। सवाई जयसिंह की ओर से भी उन्हें पुरस्कार में कई क्षेत्र मिले थे। किन्तु जवाहरसिंह ने बदन सिंह के समय से चली आ रही परम्परा तोड़ दी। जवाहरसिंह यह मानते थे कि वह साधारण किसान न होकर राजा के पुत्र है, क्योंकि सूरजमल को सफदरजंग ने राजा ब्रजेन्द्र बहादुर की पदवी दे दी थी। साथ ही जवाहरसिंह ने अपने राज्य का विस्तार करना शुरू कर दिया था जो जयपुर की पूर्वी सीमाओं के लिए खतरा बन रहा था। जवाहरसिंह की नज़र कामा पर थी और कामा शाहजहाँ द्वारा जयपुर घराने को दिया गया था। जवाहर सिंह को अपने खजाने व शक्ति का घमण्ड था| उसकी सेना के 15 हजार अश्वरोही, 25 हजार पदातिक तथा 30 तोपों व गोलाबारूद की असीमित आपूर्ति उसके गर्व को और बढ़ाते थे| इस शक्ति के चलते जवाहरसिंह को जयपुर की अधीनता रास नहीं आ रही थी। जवाहर सिंह को नजीबुद्दौला से अपने पिता की हत्या का बदला लेना था, जिसमें वह फ़रवरी 1766 तक व्यस्त रहे और भारी व्यय ओर मराठा और सिखों की सहायता के बावजूद पूर्णतः असफल रहे। उसकी सेना में कई जाट सामन्त ऐसे थे जिनसे जवाहर सिंह की पटरी नहीं बैठती थी और जाटों से छुटकारा पाने के लिए उन्होंने वाल्टर राइन हार्ड द्वारा यूरोपियन पद्धति से प्रशिक्षित सिपाही भरती किये। इससे उनका हौसला और बढ़ गया।

जवाहरसिंह के सौतेला भाई नाहरसिंह धौलपुर के शासक थे| नाहरसिंह की पत्नी अत्यन्त रूपवती थी और जवाहरसिंह की उस पर कुदृष्टि थी। उसने मराठों सिखों और गोहद के राणा की सहायता से नाहरसिंह को युद्ध में हरा दिया, जिसने शाहपुरा में विषपान द्वारा आत्महत्या कर ली (6 दिसम्बर 1766)। जवाहरसिंह ने विजेता के रूप में नाहर सिंह की विधवा और उसके खजाने की माँग की, जिसे जयपुर के महाराजा माधोसिंह ने अनुचित माना। नाहरसिंह की विधवा ने आत्महत्या करके स्वयं को ग्लानि से बचाया। इसी प्रकरण को लेकर जवाहरसिंह महाराजा माधोसिंह पर क्रोधित हुआ|

जवाहरसिंह के सिख छापामार जयपुर राज्य में भी घुसपैठ कर रहे थे। माधोसिंह ने भरतपुर के खिलाफ़ भरतपुर के दुश्मनों का मोर्चा बनाने की असफल चेष्टा भी की। जवाहरसिंह ने मराठों और बुन्देलों पर विजय से तृप्त होकर अपने गोरों द्वारा प्रशिक्षित जाट सवारों के साथ पुष्कर की ओर जयपुर क्षेत्र में होते कूच किया| 6 नवम्बर 1767 को पुष्कर सरोवर के तट पर जोधपुर के महाराजा विजयसिंह की जवाहर सिंह से भेंट हुई। दोनों पगड़ी बदल कर भाई बने और एक ही जाजम पर बैठकर चर्चाएं कीं। फिर उन्होंने माधोसिंह को भी वहाँ आने का निमंत्रण भेजा। चूँकि माधोसिंह जवाहरसिंह द्वारा जयपुर राज्य की सीमाओं में घुसपैठ से पहले से नाराज थे सो नहीं आये और विजयसिंह को उत्तर दिया कि उसने एक किसान के बेटे को अपना पगड़ी बदल कर भाई बनाकर अपने राठौड़ कुल को कलंकित किया है। इस पत्र की जानकारी मिलने के बाद जवाहरसिंह आगबबूला हो गया। वह लौटते हुए तबाही और कत्ले आम करता हुआ जयपुर की ओर आया। तबाही की सूचना मिलते ही जयपुर राज्य सेना ने जवाहरसिंह की सेना पर आक्रमण कर किया| नीमकाथाना के पास तंवरावाटी में मावंडा नामक स्थान पर युद्ध हुआ| जिसमें कछवाह सेना के सामने अपनी सैन्य शक्ति पर इतराने वाले जाट राजा जवाहरसिंह की वीरता और शौर्य धरा रह गया और उन्हें जान बचाकर कायरों की तरह भागना पड़ा|

इस युद्ध के बारे इतिहासकार चंद्रमणि सिंह अपनी पुस्तक "जयपुर राज्य का इतिहास" के पृष्ठ 95,96 पर लिखती है-"जवाहरसिंह अपनी भारी भरकम सेना और तोपखाने के साथ जब नारनौल से 23 मील दूर मांवडा पहुँचा तो 14 दिसम्बर को पीछे से आ रही कछवाहा सेना ने उस पर आक्रमण किया। यहाँ सामने की ओर एक तंग घाटी थी। उन्होंने अपना सामान आगे भेज कर पीछे सैनिक बल रखा। राजपूत घुड़सवारों का खुले मैदान का पहला आक्रमण जाटों ने विफल कर दिया और उनकी ओर जवाबी हमला किया। इस पहली सफलता से निश्चिन्त होकर जाटों ने अपनी सेना तंग घाटी से घुसा दी। किन्तु जयपुर के घुड़सवार आगे बढ़कर इस तंग घाटी में उनसे जा भिड़े। आगे मुड़कर जाटों ने मुकाबला किया और तोपों के मुँह खोल दिये। कछवाहा घुड़सवारों ने गोलों की परवाह किये बिना तलवारें खींच लीं और जाटों पर टूट पड़े। जाटों में भगदड़ मच गयी और वे गोलाबारूद और साज सामान छेड़ कर भाग छूटे। राजपूत फिर लूटपाट में लग गये। किन्तु जवाहरसिंह को भागने में सहायता की। दोनों ओर के लगभग 5000 लोग मारे गये, जिनमें आधे से अधिक जाट सैनिक थे। जवाहर सिंह ने अपने बचकर भाग आने को ही अपनी जीत माना। किन्तु जाटों की तकदीर फिर चुकी थी। वे लुटेपिटे हार कर आये थे।
माधोसिंह ने इस जीत के बाद लड़ाई जारी रखी और 16 हजार सैनिकों के साथ भरतपुर राज्य में प्रवेश किया, वे कामा आ कर रुके जहाँ 29 फरवरी 1768 को उसने फिर जवाहरसिंह को हराया, उसके 400 सैनिक और सेनापति दानसिंह को घायल कर दिया। जब 20 हजार सिखों की नयी सेना भरतपुर की सहायता के लिए आयी तो राजपूत अपने राज्य में लौट गये।
माधोसिंह की यह अंतिम लड़ाई थी, 15 मार्च 1768 को मालवा में उनकी मृत्यु हो गई और चार माह बाद जवाहरसिंह अपने ही किसी आदमी के हाथों यमलोक पहुँच गया| इस युद्ध के हताहतों की सूची जयपुर के पोथीखाने में उपलब्ध है| इसके अनुसार जयपुर के 986 सैनिक मारे गए और 227 घायल हुए|"

मावंडा के इसी प्रसिद्ध युद्ध के बारे इतिहासकार देवीसिंह मंडावा अपनी पुस्तक "राजस्थान के कछवाह" के पृष्ठ- 82,83 पर लिखते है- "ईस्वी सन 1767 में जवाहर सिंह पुष्कर आया तथा जोधपुर के विजयसिंह जी भी पुष्कर आये हुए थे. पुष्कर में जवाहरसिंह और विजयसिंह जी दोनों धर्म-भाई बने| विजयसिंह जी ने माधोसिंह जी को भी पुष्कर बुलाया परन्तु वे नहीं आये| कामा पर जवाहर सिंह के अधिकार करने की नाराजगी के कारण माधोसिंह जी ने एक सेना वापिस लौटते जवाहरसिंह पर हमला करने भेजी| इस सेना का नेतृत्व धूला के राव दलेलसिंह राजावत कर रहे थे| दलेलसिंह ने बीचून के बनेसिंह को 500 सवारों सहित आगे भेजा| उसका भरतपुर की बड़ी सेना में गगवाने में मुकाबला हुआ जो जयपुर की ओर आ रही थी|

बनेसिंह 500 सवारों के साथ जवाहरसिंह की सेना से युद्ध करते हुये मारा गया| उसका भी काफी नुकसान हुआ, जवाहरसिंह ने अपना रास्ता बदल लिया और जयपुर के उत्तर से होकर जाने लगा| दलेलसिंह ने उसका पीछा किया और तंवरावाटी के मावंडा मंढोली में उसे पकड़ा| भरतपुर की सेना ने मावंडा में थी और जयपुर की सेना मंढोली में. प्रतापसिंह नरुका माचेड़ी पर महाराजा माधोसिंह जी ने नाराज होकर उसकी जागीर जब्त करली थी| तब से वह भरतपुर जवाहरसिंह के पास चला गया था| परन्तु जब जवाहरसिंह ने जयपुर पर चढ़ाई का इरादा किया तब प्रतापसिंह उसे छोड़ जयपुर की तरफ आ गया था| वह भी इस युद्ध में शामिल था| शेखावतों की सेना का संचालन नवलसिंह नवलगढ़ कर रहे थे| दिनांक 14 दिसंबर 1767 को मावंडा-मंढोली का प्रसिद्ध हुआ| जयपुर के सेनापति राव दलेलसिंह राजावत की तीन पीढियां वहां काम आई| भरतपुर की पराजय हुई तथा उसके तोपखाने के अध्यक्ष फ़्रांसिसी समरू जवाहरसिंह को युद्ध स्थल से बचाकर निकाल ले गया| जयपुर की सेना ने फिर भरतपुर पर हमला किया. दिनांक 29 फरवरी 1768 ई. को कामा के युद्ध में फिर भरतपुर की हार हुई|"
History Battle of Maonda and Mandholi in hindi, Battle of Maonda and Mandholi history in hindi

एक टिप्पणी भेजें

2टिप्पणियाँ

  1. पूर्ण रूप से गलत जानकारी दी गई है।ऐसा लगता है कि ये ज्ञान दर्पण किसी जातिवादी इंसान का है।यही कारण है कि आज हिन्दुत्व बिखर रहा है।
    वीरो का सम्मान करना सीखो।
    वो महाराजा जवाहर सिंह ही थे जिन्होंने एक मुल्ले की अजान सुनते ही उसकी जीभ कटवा दी थी।
    जोर वो कट्टर हिन्दू जवाहर सिंह ही थे ज्

    जवाब देंहटाएं
  2. वो कट्टर हिन्दू महाराजा जवाहर सिंह ही थे जिसने आगरा की जामा मस्जिद खाली करवाकर वहां अनाज मंडी लगवा दी थी।उनके और उनके पिता समय में गौहत्या मुगलो के दरबारों में भी पूर्णतया प्रतिबंधित थी।
    ओर इन्होंने ही लाल किला जीता था।
    और इनके साथ धोखा किया था जिन राजाओं की आप तारीफ कर रहे है उन्होंने।और उन राजाओं पर पहले भी इन्होंने विजय प्राप्त की थी।

    ओर इनको मेवों ने धोखे से मारा था क्योंकि ये बिलकुल कट्टर हिन्दू थे।

    जवाब देंहटाएं
एक टिप्पणी भेजें