स्थानीय संस्कृति समझे बिना लिखा इतिहास भ्रामक ही होगा

Gyan Darpan
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कर्नल टॉड ने राजस्थान का इतिहास लिखा, ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़ मरोड़कर लिखने की उसकी मंशा भले ना हो पर उसने बिना शोध किये, सुनी सुनाई बातों पर लिखकर कई ऐतिहासिक भ्रांतियां फैला दी| राजस्थान के मूर्धन्य इतिहासकारों, साहित्यकारों का मानना है कि जब तक राजस्थान की संस्कृति, राजस्थानी साहित्य की जिस व्यक्ति को जानकारी ना हो वो राजस्थान का इतिहास सही मायने में समझ ही नहीं सकता और ना ही बिना इतिहास की जानकारी के राजस्थानी साहित्य को अच्छी तरह से समझा जा सकता है| मतलब साफ़ है राजस्थानी साहित्यकार को इतिहास की व इतिहासकार को राजस्थानी साहित्य की समझ होना आवश्यक है|

कर्नल टॉड ना तो पूरी तरह राजस्थानी संस्कृति जानते थे, ना राजस्थानी साहित्य समझने वे सक्षम थे| अत: लेखन के प्रति वह ईमानदार भी थे तो ईमानदारीपूर्वक लिख नहीं सके| राजस्थान के इतिहास को समझने के लिए राजस्थान की संस्कृति समझना आवश्यक है, यह बात कितनी सही है, यह समझने के लिए आपके सामने एक इतिहास शोधार्थी का उदाहरण प्रस्तुत कर रहा हूँ| मैं जिस शोधार्थी की यहाँ चर्चा कर रहा हूँ, वे राजस्थान के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफ़ेसर थे, अब रिटायर भी हो चुके, जिनका नाम यहाँ देना ठीक नहीं, पर उनसे जुड़ी एक कहानी आपके साथ साझा कर रहा हूँ, ताकि आपको पता चले कि स्थानीय संस्कृति की समझ नहीं रखने वाले लेखक लेखन का कितना बड़ा बेड़ागर्क कर सकते है- इतिहास के उक्त प्रोफ़ेसर अपनी शोध के सम्बन्ध में बीकानेर के एक ग्रंथालय में जहाँ इतिहास की काफी सामग्री उपलब्ध है, शोध कर रहे थे| उनके सामने किसी जागीरदार द्वारा "लास" (असली शब्द- ल्हास) करने के दौरान ख़ुशी मनाने का जिक्र कई बार आया कि - उक्त जागीरदार ने "लास" कर ख़ुशी मनाई| बस शोधार्थी प्रोफ़ेसर साहब इसी "लास" शब्द को लाश समझ बैठे और "लास" करने का मतलब हत्या करना मान उलझते हुए सोच बना ली कि उक्त जागीरदार बड़ा तो निर्दयी था| पहले किसी की लाश करता, मतलब हत्या करता बाद में खुशियाँ मनाता|

इसी दौरान एक दिन उन्होंने एक अन्य शोधार्थी जो राजस्थान के है और एक कालेज के वर्तमान में प्रिंसिपल भी है से जिक्र किया कि- देखिये ये एक जागीरदार लाश करने के बाद खुशियाँ मानता था, मतलब बड़ा क्रूर था| तब प्रिंसिपल साहब ने हँसते हुए कहा कि ऐसा नहीं है आप "लास" का गलत अर्थ लगा रहे है, दरअसल ये "ल्हास" शब्द है जो कृषि कार्यों से जुड़े लोग प्रयोग करते है|मित्रवत व्यवहार रखने वाले किसान मिलकर कृषि कार्य करते हुए एक दुसरे की सहायता करते थे और आज भी कई जगह करते है| जब फसल पक जाती थी तब मित्र किसानों का समूह एक साथ मिलकर एक किसान के खेत की पकी फसल काटते कर एकत्र करते है जिसे स्थानीय भाषा में "लावणी" करना कहते है| जिस मित्र के खेत पर सामूहिक श्रम होता है इसे श्रम विनिमय भी कहा जा सकता है, उस दिन उसी किसान के घर शाम को भोज का आयोजन किया जाता है, उसी भोज को "ल्हास" कहा जाता है, जिसे खुशियाँ मानते हुए सामूहिक तौर पर साथ बैठकर खाया जाता है|

इस तरह प्रिंसिपल साहब ने उक्त शोधार्थी को राजस्थान के कृषकों की संस्कृति समझायी, चूँकि जागीरदार भी कृषि कार्य से जुड़े थे अत: उनके खेतों में भी फसल काटने वाले दिन वे भी "लास" (ल्हास) रूपी भोज का आयोजन कर खुशियाँ मानते थे| समझ आते ही शोधार्थी ने प्रिंसिपल साहब को बताया कि वह इस बात को पिछले दो माह से परेशान थे और उस जागीरदार को बड़ा क्रूर, निर्दयी मान रहे थे|
अब आप समझ सकते है कि यदि उक्त शोधार्थी को समय पर उक्त संस्कृति की जानकारी नहीं मिलती तो वो जिस जागीरदार के बारे में लिखते समय कैसी कलम चलाता यह समझा जा सकता है और एक बार कोई कुछ लिख देता तो उसका सन्दर्भ देकर सामन्ती-काल को कोसने वाले तथाकथित वामपंथी कितने पन्ने काले करते, उसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है|

मित्र किसानों द्वारा इस तरह मिलकर कार्य किये जाने को स्व. आयुवानसिंह जी शेखावत ने अपनी काव्य पुस्तक “हठीलो राजस्थान” में एक सौरठे के माध्यम से इस तरह चित्रित किया है-

जीमण लासां जुगत सूं,
मिल मिल भीतडलाह |
लुल लुल लेवै लावणी,
गावै गीतडलाह ||

इस प्रदेश के किसान आवश्यकता पड़ने पर सब मिलकर एक किसान की मदद के लिए काम करते है व उस दिन उसी के यहाँ भोजन करते है जिसको "ल्हास" कहते है | फसल की कटाई (लावणी) के लिए गांव के मित्रगण "ल्हास" पर जाते है ,प्रेम पूर्वक गीत गाते हुए फसल की कटाई करते है व वहीँ पर भोजन करते है |)

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