पुलिस की व्यथा

Gyan Darpan
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जब भी कहीं किसी सरकार के खिलाफ कोई जन आंदोलन होता है तब सत्ताधारी दल से पहले पुलिस के माथे पर बल पड़ जाते है| आखिर किसी भी आंदोलन में कानून व्यवस्था व शांति बनाये रखने की जिम्मेदारी पुलिस की जो होती है| सत्ताधारी दल के खिलाफ किसी भी तरह का जन आक्रोश उमड़ते ही सत्ताधारी दल के नेता पुलिस से उम्मीद करते है कि वो आक्रोशित भीड़ को बल प्रयोग कर भगा दे| यही नहीं आक्रोशित लोगों की भीड़ द्वारा सड़कों पर यातायात जाम में फंसे लोग भी आंदोलनकारियों के साथ पुलिस को कोसते है कि आंदोलन करने वालों ने सड़क पर यातायात जाम कर दिया और पुलिस कुछ नहीं कर रही| जाम में फंसे लोगों चाहते है कि जुलुस के साथ मूकदर्शक बन चल रही पुलिस इन्हें डंडे मारकर भगा दे और सड़क खाली करा दे तो उन्हें जाम से निजात मिले|

वहीं आंदोलनकारी चाहते है कि पुलिस उनके आंदोलन को मूकदर्शक बनी खड़ी खड़ी देखते रहे और वे जहाँ मर्जी हो वहां यातायात जाम करदे, जहाँ मर्जी हो बाजार बंद करा दे और जहाँ मर्जी हो जैसा चाहे उत्पात भी मचाते रहे|

अब बेचारी पुलिस किस पक्ष को संतुष्ट करे ! कई बार तो आंदोलनकारी नेता भी पुलिस द्वारा उनके समर्थकों पर बल प्रयोग नहीं करने से दुखी हो जाते है और वे अपने ही आंदोलनकारियों की भीड़ में कुछ उत्पाती तत्व भेज उत्पात करवा देते है ताकि पुलिस को उकसाकर बल प्रयोग करवाया जा सके|
अब आप कहेंगे कि आंदोलनकारी नेता अपने समर्थकों को पुलिस के हाथों क्यों ठुकवायेंगे ? अरे भाई ! पुलिस द्वारा बल प्रयोग करने के बाद ही तो आंदोलन उग्र होगा और उसकी गति बढ़ेगी साथ ही मिलेगी जन-मानस की सहानुभूति और साथ में मीडिया कवरेज फ्री|

बाबा रामदेव व अभी हाल ही में दिल्ली सामूहिक बलात्कार कांड के खिलाफ हुए स्वत: स्फूर्त आंदोलन को दिल्ली पुलिस अपने जूतों तले नहीं कुचलती तो क्या इन्हें इतनी जन सहानुभूति व मीडिया कवरेज मिलती ?

खैर जो भी हो आखिर किसी भी आंदोलन में पुलिस को तो अपने खिलाफ प्रतिक्रिया सुननी ही है भले वो आंदोलनकारियों से सूनने को मिले या आंदोलन की खिलाफत वालों से|
आंदोलनों के समय ही क्यों ? त्योंहारों के समय को भी लीजिए| हमारे लिए बेशक त्योंहार हर्षोलास लेकर आते हो पर पुलिस के लिए तो सिर-दर्दी ही लेकर आते है| हम अपने घरों में आराम से त्योंहार मनाते है और बेचारे पुलिसकर्मी बिना छुट्टी किये हमारी खुशियों में कोई दखल ना पड़े उसके लिए सड़कों पर खड़े यातायात व सुरक्षा व्यवस्था में तैनात खड़े मिलते है| जबकि त्योंहार तो उनके लिए भी होता है| त्योंहारों के समय अराजक तत्वों द्वारा मचाया कोई उत्पात यदि पुलिस नहीं रोक पाती तो उसे जनता के साथ अपने अफसरों व फिर राजनेताओं से खरी खोटी सुनने को मिलती है तो उत्पातियों को पकड़ने के लिए सड़कों पर बैरियर लगाकर वाहनों व आने जाने वालों को रोककर जांच करना भी आम जनता को नहीं भाता और इसके लिए भी पुलिस आलोचना का शिकार बनती है| हर ऐरा-गैरा पुलिस पर आरोप लगा डालता है कि ये सब पुलिसकर्मी अपनी कमाई के लिए कर रहें है| मतलब दोनों ही परिस्थितियों में पुलिस को तो आलोचना झेलनी ही है|

आजकल नेता बने अपराधियों की सुरक्षा में लगने के लिए पुलिस आम जनता की आलोचना के निशाने पर रहती है पर पुलिस की आलोचक जनता अपने गिरे-बां में झाँक कर नहीं देखती कि अपराधी को नेता वही जनता ही बनाती है पुलिस नहीं| यही नहीं अपराध की दुनियां से राजनीति में आये नेताओं की सुरक्षा व्यवस्था में लगे पुलिसकर्मियों की मानसिकता पर कोई ध्यान नहीं देता| जिस अपराधी को पकड़ने के लिए पुलिसकर्मी उसके पीछे भाग रहे होते थे उसी के नेता व मंत्री बनने पर उसकी सुरक्षा में तैनात उन पुलिसकर्मियों की मानसिकता पर क्या असर पड़ता होगा समझा जा सकता है| जिस अपराधी को पकड़कर जेल में डालना था उसे ही सेल्यूट करना शायद ही कोई पुलिसकर्मी पसंद करे पर बेचारों की मज़बूरी कि ये सब उन्हें न चाहते हुए भी करना पड़ता है साथ ही सुननी होती है जनता द्वारा आलोचना और ऐसा ही कोई अपराधी से नेता बना व्यक्ति किसी विरोधी गैंग द्वारा मारा जाता है तो वही जनता पुलिस की आलोचना करती है कि वह उनके नेता को बचा नहीं सकी|

किसी भी आतंकी घटना के बाद पुलिस जाँच कर किसी आतंकी गतिविधि में शामिल किसी शख्स को पकड़ती है तो उस समुदाय के लोग पुलिस की आलोचना करना नहीं भूलते साथ ही उस समुदाय के वोटों की लालची पार्टी को तो सम्बंधित समुदाय के किसी भी अपराधी को पकड़ना ही नागवार गुजरता है| और पुलिस कोई कार्यवाही नहीं करे तो उस आतंकी घटना के पीड़ित उसे पानी पी पीकर कोसते है| दिल्ली में बाटला हाउस मुटभेड़ का मामला आपके सामने है| पुलिस ने अपराधियों को पकड़ने के चक्कर में अपना एक अधिकारी खोया फिर भी उसकी नियत पर उसी सत्ताधारी दल के कुछ नेताओं ने सवाल उठा दिए जिस दल की सरकार ने पुलिस को आतंकियों को जल्द पकड़ने के लिए कड़े आदेश दिए थे| पर वोटों की राजनीति के लिए जो बयान आये वे पुलिस का मनोबल तोड़ने के लिए और मन में हीनभावना पैदा करने के लिए क्या पर्याप्त नहीं थे ?

घरों व बाजारों में चोरियां नहीं रुकने के लिए भी पुलिस को आलोचना का शिकार होना पड़ता है| पर जब पुलिस रात्री गश्त करते हुए कॉलोनी में देर रात को घुसते किसी वाहन चालाक से पूछताछ करती है तो वह उसे नागवार गुजरता है| बाजार में बाइक सवारों द्वारा महिलाओं के पर्स व गले की चैन छिनने की वारदातों पर अंकुश लगाने के लिए पुलिस बाइक सवारों को रोककर जाँच करती है और उसी जाँच में किसी का नाबालिग बेटा नियम विरुद्ध बाइक चलाता धर लिया जाता है तब उसके माँ बाप को इस तरह बाइकस रोककर जाँच करना एकदम नागवार गुजरता है और वे पुलिस की कड़े शब्दों में आलोचना करते है| कुल मिलाकर अपराधों को रोकने की कोशिश करे तो आलोचना, ना करे तो आलोचना| दोनों ही सूरत में बेचारी पुलिस को तो आलोचना झेलनी ही है|

इस वक्त मैं जोधपुर में हूँ और यहाँ रोज अख़बारों में चित्र के साथ खबर देखता हूँ कि फलां सड़क पर बेतरतीब यातायात के चलते अव्यवस्था फैली है तो फलां चौराहे पर पुलिसकर्मियों की नाकायाबियों के चलते जाम लग जाता है और अखबार में खबर पढकर हर कोई उद्वेलित कोसते हुए इस सबके लिए पुलिस को जिम्मेदार ठहराते है तो उसी अखबार के दूसरे पन्नों पर खबर पढता हूँ कि फलां चौराहे पर एक वाहन चालक को जब लाल बत्ती जम्प करते हुए पुलिस ने रोका तो वाहन चालक ने सिपाही को गालियाँ देनी शुरू करदी और विरोध करने पर सिपाही के साथ हाथापाई कर डाली| और थोड़ी ही देर में उस वाहन चालक के समर्थन में उसके मोहल्ले वालों ने हंगामा खड़ा कर दिया और बेचारा पुलिसकर्मी अपनी बेईज्ज्ती के खिलाफ रिपोर्ट भी दर्ज नहीं करा पाया| क्योंकि उसके अधिकारियों ने इस आशंका से कि कहीं मामला ज्यादा ना बिगड़ जाय उसे समझा बुझाकर चुप करा दिया| अब दूसरे दिन वह पुलिसकर्मी किसी भी चौराहे पर क्यों किसी को रोक कर यातायात जाम को रोकने की कोशिश कर अपनी बेईज्ज्ती करवायेगा ?

कुल मिलाकर हम किसी मामले में जिसमे पुलिस शामिल है पुलिस की कार्यप्रणाली की आलोचना ही करते है| कभी यह नहीं सोचते कि किसी पुलिस जाँच में हमें जो असुविधा हो रही है वह हमारी सुरक्षा व हमारे लिए अच्छी व्यवस्था के लिए ही हुई है| पुलिस को उसके कार्य में सहयोग देने के बदले हम सिर्फ उसकी आलोचना में ही लगे रहते है|

ऐसा नहीं कि पुलिस में हरामखोर व बेईमान नहीं है! है, बेईमानों व हरामखोरों की शिकायत कर उसे दण्डित करवाएं और अच्छा काम करने वाले पुलिसकर्मी की प्रशंसा कर उसे अपने कर्तव्य निभाने को प्रेरित व प्रोत्साहित करें|

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10टिप्पणियाँ

  1. पुलिस बँधी है शक्ति करों में,
    कोई करे कठपुतली खेला।

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  3. सही कहा है कि पुलिस की भी अपनी मज़बूरी हैं...पर आम जनता के साथ उनके व्यवहार में भी सुधार की ज़रुरत है...

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  4. कड़वा सत्य या वास्तविकता

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  5. अब क्या करें जब उनकी लाठी - गोली स्वयं ही चल पड़े तो.

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  6. पुलि‍स की ज़ि‍म्‍मेदारि‍यां तो बहुत हैं पर यह बात भी सही है कि‍ पुलि‍स में जो भी भर्ती होता है वो या तो मज़बूरी में होता है या उसकी जीभ्‍ा से नोट कमाने की लार टपक रही होती है. इस नौकरी में आम सि‍पाही के लि‍ए न तो इजज्‍त का पैसा है न इज्‍़जत इसलि‍ए वो इसे बुचड़खाने की नौकरी जैसा पाता है. इसमें आमूल-चूल परि‍वर्तन की आवश्‍यकता है पर न इसमें कि‍सी राजनेता की रूचि‍ है न देश के पास साधन इसलि‍ए ये सब यूं ही चलता रहेगा.

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  7. Hamari policing angarejo ke jamane ki hai. Sarkare ise angrejo ki tarah apne tarike se istamal karti hai jisse loktantar kahi raha nahi jata or srakare raja rajwaro jaise vartaw karti hai. Supreme court, kendra or rajya sarkar ko police reform ke liye adesh de chuki hai lekin sarkare police ko apne hisab se istamal karna chati hai.

    http://www.humanrightsinitiative.org/index.php?option=com_content&view=article&catid=54%3Aprogrammes&id=199%3Asupreme-court-directives-on-police-reform&Itemid=98

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  8. पुलिस को तो कठपुतली बना रखा है। यही हाल बड़े बड़े IAS ऑफिसर्स का है , वो भी बेचारे कहाँ अपने अधिकारों के औरे पावर का इस्तेमाल कर पाते हैं।

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