
गाड़ी तो आई नहीं थी ,पर तुम घबरा रही थी
कुछ इसे ही पलो मे टकराई थी तुम मुझ से
फिर सिलसिला शुरू हुआ मुलाकातों का
ना तुम थी मेरे शहर की, ना मै था तुम्हारे शहर का
मै अपना हक़ किसी और को दे चूका था
और तुम पर हक़ किसी और का था
ना जाने क्यों फिर भी ये दूरियां सिमटने लगी
मै तुमको समझ गया तुम मुझे समझने लगी
एक दूजे की आदत हो गए थे हम
और फिर ना जाने क्यों ये नजदीकियां चुभने लगी
नम आँखों से तुम मुस्कुराती हुई मुड गई थी
तुम ये ना समझना कि मैने साथ छोड़ दिया था तुम्हारा
मै बस कुछ कदम पीछे हट गया था
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आज अरसे बाद तुम फिर मुझे मेरे शहर में क्यों दिख गई
मै बस लिपटना चाहता था एक बार तुमसे
तभी तुम्हारे होंठो ने बुदबुदाया , तुमको मुझ से कुछ काम था
एक बार झूठ ही सही कह देती ,कि रह नहीं पाई बिन मेरे
इसलिए बस मेरे शहर चली आई
बढ़िया रचना
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह आपकी यह रचना भी बढ़िया लगी |
जवाब देंहटाएंगहन अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंkyun aur kaise ? kya ek kadam piche hatker tumne kuch kaha yaa socha ki uski kitni swabhawikta mar jayegi !
जवाब देंहटाएंऔर फिर ना जाने क्यों ये नजदीकियां चुभने लगी
जवाब देंहटाएंनम आँखों से तुम मुस्कुराती हुई मुड गई थी
तुम ये ना समझना कि मैने साथ छोड़ दिया था तुम्हारा
मै बस कुछ कदम पीछे हट गया था
फिर इसके बाद झूठ भी क्यों बोला जाता ... बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ..सच्चाई को बयाँ करती हुई
वाह ………किन लफ़्ज़ो मे तारीफ़ करू……… एक दूसरी ही दुनिया मे ले गयीं…………एक ख्याल ज़हन पर छोड गयीं।
जवाब देंहटाएंकम शब्दों में गहरी अनुभूती |
जवाब देंहटाएंविरहन की अंतर मन की गाथा का संवेदनावो से परुपूर्ण चित्रण किया है आपने उषा राठौर हुकुम !
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