खींवा और बींजा : दो नामी चोर - भाग-1

Gyan Darpan
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सैकड़ों वर्ष पहले की बात है,मारवाड़ राज्य में खींवा और बींजा नाम ले दो नामी चोर रहते थे | बींजा सोजत में और खींवा नाडोल नगर में | दोनों अपने हुनर में माहिर| नामी चोर,पर आस-पास में कभी चोरी ना करे|
दूर दूर गुजरात और मालवा में जाकर चोरियां करते | उज्जैन और अहमदाबाद के सेठों को ये दोनों चोर सपने में दीखते | इन दोनों के नाम से सेठ-सेठानियों को नींद तक नहीं आती थी | दोनों हाथ सफाई के इतने चतुर कि सोये व्यक्ति के कपड़े उतार ले और सोने वाले की नींद भी ना टूटने दे | चोरी करने चले तो उनके पैर इतने हल्के कि साथ चलने वाले को भी उनके चलने की आवाज ना सुनाई दे, पन्द्रह,बीस फीट ऊँची दीवार एक झटके फांद जाये |पचास कोस पैदल जाकर,चोरी कर सूर्योदय से पहले घर आ जाये | दोनों जनों ने बड़ी बड़ी व अच्छी अच्छी जगह चोरियां की पर कभी पकड़ में नहीं आये | देश-देश की भाषा बोलने में पारंगत,वक्त पड़े वैसा भेष बदलने में माहिर | चोरी की कला में निपुण जैसे खापरिये चोर के अवतार |

दोनों नामी चोर पर कभी आपस में नहीं मिले | दोनों ने एक दुसरे की बहुत तारीफें सुन रखी थी सो दोनों के ही आपस में मिलने की प्रबल इच्छा | पर संयोग की बात कि दोनों को कभी आपस मिलने का मौका नहीं मिला |
एक दिन की बात बींजा ने बैठे बैठे सोचा - " नाडोल में बड़े बड़े सेठ रहते है और इस नगर में मैं एक बार भी नहीं गया,इसलिए नाडोल नगर जाकर किसी बड़े सेठ के घर में हाथ मारा जाय |"

ये सोच बींजा नाडोल नगर में आ गया,एक दो दिन नगर में घूमकर गलियां,रास्ते देखे फिर एक रात मौका देख चोरी करने चला | अमावस्या की अँधेरी रात थी,बरसात के हल्की बूंदा बांदी,बिजलियाँ चमक रही, बींजा ने पगड़ी उतार टोपी पहनी,जांघिया पहना,कमर में कटार बाँधी और चल दिया |संयोग की बात कि बींजा खींवा के घर के पास जा पहुंचा |
खींवा भी थोड़े समय पहले ही कहीं अच्छा हाथ मार कर आया था सो घर बैठकर मौज कर रहा था | बींजे को खींवा के घर से मांस-मदिरा की खुशबु आई तो सोचा कोई दिलदार आदमी है,मालदार भी होगा सो आज इसी के घर के घर चोरी करते है |

बींजा चोरी करने के उद्देश्य से खींवा के घर की पिछली दीवार पर आकर कान लगाया | उसके दीवार के पास कान लगते ही खींवा को पता चल गया कि दीवार के पीछे जरुर कोई चोर है और घर में घुसेगा सो उसने अपनी पत्नी को चुप रहने का इशारा किया और खूंटी पर टंगी तलवार हल्के हाथ से धीरे से उतारी कि किसी को पता नहीं चले पर तलवार पर एक मख्खी बैठी थी उसके उड़ते ही बाहर बींजा को पता चल गया कि घर मालिक जाग गया है,पर कोई बात नहीं वह बड़े ही हल्के हाथों से दीवार में छेद करने लगा | उधर खींवा उस जगह पर हाथ में नंगी तलवार ले पोजीशन लेकर बैठ गया कि -"चोर जैसे छेद कर घुसने के लिए मुंह डालेगा उसकी गर्दन काट लूँगा | " उधर बींजा ने दीवार में अपने घसने जितना छेद कर लिया और एक डंडे पर काली हांडी रखकर पहले छेद में घुसेड़ी | अन्दर खींवा घर में अँधेरा कर तैयार बैठा था उसने अँधेरे में जैसे हांडी घुसते देखि सोचा चोर की गर्दन है और एक झटके से वार कर डाला | और खट्ट की आवाज के साथ हांडी टूट गयी | हांड़ी टूटते ही बींजा को हंसी आ गयी | खींवा भी हंस पड़ा | दोनों एक दुसरे की चतुराई से प्रभावित हुए |खींवा बोला -
शाबास ,तूं कौन ? ऐसे होशियार चोर का नाम तो सिर्फ बींजा का ही सुना है |"
"धन्य है तूं भी ! ऐसा चतुर व्यक्ति तो सिर्फ खींवा के बारे में ही सुना था |" बींजा ने जबाब दिया |
"खींवा तो मुझे ही कहते है |"
"और बींजा मुझे ही कहते है |"
"हें ? चतुर चोर बींजा जी ! अरे आओ आओ ,पधारो | आपसे मिलने की तो सालों से हसरत थी |"
और दोनों एक दुसरे को बांहों में भरकर गर्मजोशी से मिले | खूब खुश हुए आखिर बिना किसी सुचना के अचानक दोनों चोरों का मिलन हो गया |

खींवा ने अपनी पत्नी को बुलाया ,बताया - " देखती क्या है ? इनकी खातिरदरी कर | आज अपने घर पर ख़ास मेहमान पधारे है | ऐसे मन मिलने वाले मेहमान तो बड़े भाग्य वालों को ही मिलते है |"
खींवा की पत्नी ने बाजोठ (चोकी) लगाया | उस पर दारु की बोतल रखी | बढ़िया खाना परोसा | खींवा और बींजा दारु पीते,खाना खाते बातें करते रहे | अपने आपकी,हाथ सफाई की नई कारीगरी की बातें करते करते कब दिन उग गया उन्हें पता ही नहीं चला |
खींवा ने बींजा को दो चार दिन के लिए घर पर रोक लिया और खूब खातिरदारी की | खूब बाते की | एक दिन दोनों बैठे खाना खा रहे थे,खींवा की पत्नी पंखा झलते हुए बोली -
" आप दोनों नामी चोर हो ,बड़ी बड़ी जगह पर दोनों ने चोरियां की है,अपने हुनर में दोनों होशियार भी हो | पर मनुष्य जब तक कोई ऐसा काम नहीं करे जिससे दुनियां में उसका नाम हो जाये तब तक कुछ नहीं | कोई ऐसा काम करो जिसमे नाम भी हो और माल भी बढ़िया हाथ लगे और दुनियां में नाम हो | कोई ऐसा काम करो जो दुनियां को पता चले कि तुम दोनों मिले हो |"
बींजा ने कहा -" भाभी बात तो आपकी ठीक है | आप बताओ क्या काम करना है | जो आप बतायेंगी वो ही काम करेंगे |"
खींवा की पत्नी बोली- "छोटी-मोटी चोरी तो करने वाले बहुत है | तुम दोनों मिले हो तो ऐसा काम करो कि दुनियां अचम्भा करे | चितौड़ में एक सेठ के पास जय विजय नाम की दो घोड़ियाँ है उनके नाम पर लोग तिजोरियां खाली करने बैठे है | और वे घोड़िया जबरदस्त पहरे में रखी जाती है ,आप वे घोड़ियाँ चुरा कर लावो तब जानुं कि तुम तगड़े चोर हो |"
ये बात सुनते ही खींवा और बींजा खाना छोड़कर उठ गए बोले- " अब तो वे घोड़ियाँ लाने के बाद ही घर में खाना खायेंगे नहीं तो मुंह नहीं दिखायेंगे |"


खीवां ने एक लंगड़े बाबा का भेष बनाया और चितौड़ में विजयदास सेठ के घर के आगे बैठ गया |बाबा पैरों से लंगड़ा,फटे चीथड़े हुए कपड़े पहने,आने जाने वालों को भी दया आये,कोई रोटी का टुकड़ा दे दे तो खाले व देने वाले आशीष दे दे | बाबा ने सेठ की घोड़ियों की पूरी जासूसी कर ली एक दिन रात को बींजा आया तो उसे पूरी जानकारी दी -
" बींजा जी ! परकोटे के अन्दर सातवीं कोठरी में जय विजय घोड़ियाँ बंधी है | सात ताले लगा सेठ चाबियां अपने सिरहाने रख मुख्य दरवाजे के आगे चारपाई लगाकर सोता है |"
"खीवां जी ! तैयार रहना ,कल इसी वक्त आऊंगा |"
दुसरे दिन बींजा उसी वक्त आ गया,परकोटा लांघ अन्दर गया,देखा सेठ दरवाजे के आगे चारपाई लगा सो रहा है उसने अपने सधे हुए हाथों से चारपाई उठाई और दरवाजे से दूर रखदी | सेठ के सिरहाने से चाबियाँ निकाली,घुड़साल के एक के बाद एक सात ताले खोले उसमे से एक घोड़ी खोली उसके लगाम लगा,काठी लगा घोड़ी ले बाहर आया,घोड़ी खींवा को पकड़ाते हुए बोला -
'खींवा जी घोड़ी पकड़ना अभी वापस आता हूँ |"
बींजा वापस परकोटे में गया,घुड़साल के सातों ताले लगाये,चाबियाँ सेठ के सिरहाने रखी,परकोटे का दरवाजा वापस बंद किया,सेठ की चारपाई वापस दरवाजे के आगे रखी और परकोटा फांद बाहर आ घोड़ी पर बैठते हुए बोला- " खींवा जी मेरे हिस्से की घोड़ी तो मैं ले जा रहा हूँ , आप अपने हिस्से की दूसरी घोड़ी लेते आना |"
और बींजा तो सेठ की जय नामक घोड़ी लेकर पार हुआ |

सुबह होते ही सेठ घुड़साल के ताले खोल घोड़ियों को पानी पिलाने गया तो देखा एक घोड़ी गायब | सेठ को अपनी आँखों पर भरोसा नहीं | सातों ताले उसको वैसे ही लगे मिले जैसे वह लगाकर सोता है,परकोटा का दरवाजा भी अन्दर बंद और उसकी चारपाई भी दरवाजे से अड़ी हुई | अब घोड़ी कहीं गयी तो कैसे गयी ? सेठ अचम्भे में पड़ गया | बिना रास्ते घोड़ी गयी तो कहाँ और कैसे ?
पुरे नगर में खबर फ़ैल गयी, लोग इकट्ठे हो गए कोई कहने लगा -
" घोड़ी में दैवीय शक्ति थी सो अंतर्ध्यान हो गयी |" दुसरे ने पहले की हां में हाँ मिलाई -"बात तो सही है,ना कोई सुरंग,ना ताले टूटे,ना परकोटे का दरवाजा खुला, घोड़ी को ले तो नहीं जा सकता |"
घर घर में चर्चा होने लगी | अब सेठ ने विजय नामक घोड़ी पर पहरा कड़ा कर दिया ,कहीं ये भी न चली जाय | पांच सात दिन बाद दोपहर में वह लंगड़ा बाबा सेठ के पास आया कहने लगा -
" सेठ जी घोड़ी अंतर्ध्यान तो नहीं हुई , उसे तो चोर चुराकर ले गया |"
सेठ ने उसकी मजाक उड़ाते हुए कहा- " बाबा वो तो देवलीला थी ,देवासु घोड़ी थी जैसे आई वैसे ही चली गई | ऐसी घोड़ी को कोई चोर ले जा सकता है क्या ?"
"सेठ जी ! उसे तो चोर ले गए आप मानो या ना मानो |" बाबा आत्मविश्वास के साथ बोला |
" चोर किस तरह ले जा सकता था | क्या हवा में उड़ाकर ले गया ?"
" सेठ जी आप कहो तो आपकी दूसरी घोड़ी दोपहर को निकाल कर बता दूं तो | " बाबा ने कहा |
" ठीक है बता |"
" आप चलिए,ताले लगाईये,परकोटे के दरवाजे के आगे चारपाई लगाकर मुंह ढक कर सो जाईये यदि आपको लगे कि चोर आ गया है तब ही मुंह से चादर हटानी है |"
सेठ ने सोचा ये भी करके देख लेते है | घुड़साल के सातों किवाड़ों पर सात ताले लगाये,परकोटा बंद किया,दरवाजे पर चारपाई लगायी और चाबियाँ सिरहाने रख चादर ओढ़ सो गया |
अब बाबा बना खींवा आया,परकोटा को फांद अन्दर घुसा,सेठ की चारपाई दूर सरकाई,चाबियाँ सिरहाने से निकाली,घोड़ी निकाली | सेठ को खबर ही नहीं पड़ी कि किसी ने उसकी चारपाई सरकाई,चाबियाँ निकाल घोड़ी भी निकाल ली | सेठ तो सोच रहा कि लंगड़ा बाबा आये तो उसे पूछूं चोर कहाँ गया ? आया ही नहीं |
तभी आवाज आई -" सेठ जी राम राम ,आपकी विजय घोड़ी चुराकर लेकर जा रहा हूँ |"
सेठ ने चादर फैंक कर देखा तो जाती हुई घोड़ी की पीठ दिखाई दी | सेठ जी तो हाथ मलते ही रह गए | और खींवा ने नाडोल पहुँच बींजा से राम राम की |

खींवा की पत्नी खूब खुश हुई | इन अमोलक घोड़ियों को बेचने से खूब धन मिला | खींवा ने बींजा को कुछ दिन के लिए अपने घर पर मेहमान बना और रोक लिया | अब दोनों मौज करे,राग रंग करे |
दारुड़ा पीवै और मारूड़ा गावै | " सूलां रहिया साट पै, कूंपा मद भारियाह |"
दोनों खावै पीवै संगीत सुने और मौज करे, खींवा की पत्नी प्याला भर भर दे, ढोली मांढ गाये और जांगड़ दोहे | दोनों को पता ही न चले कि कब दिन उग गया और कब दिन छिप गया |
क्रमश:............

अगली कड़ी में इनके द्वारा की गयी एक और जोखिम भरी चोरी की कहानी और फिर दोनों में श्रेष्ठ कौन ? का मुकाबला |

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21टिप्पणियाँ

  1. लगता है चोर्य कार्य में पी एच डी कर चुके हो भाई जी :-)
    अगर यह लेखमाला जारी रही तो .... :-)
    बहुत रुचिकर लेखमाला ...
    शुभकामनायें !!

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  2. @ सतीश जी
    चोर्य कला में भी चतुराई चाहिए इसलिए बड़े बुजुर्ग चोरों की चतुराइयों की कहानियां बच्चों को सुनाते थे ताकि वे भी जीवन में चतुराई सीख सके,चतुराई का महत्त्व समझ सके |
    वैसे चोरों की कहानियों की यह श्रंखला इस कला में शोध करने वालों की बड़ी सहायता करेगी :)

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  3. मजा आ गया दूसरी भी जल्दी लगाओ भाई आपने तो मुझे अमली बना दिया हर दिन आपकी कहानिया पढ़ने की तल्ब होती है

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  4. @ रतन सिंह शेखावत,
    यक़ीनन यह संकलन बहुत बढ़िया है ...
    यह कहानियां बचपन में गाँव में बहुत सुनता था ...वे धुंधली यादें आपकी पोस्ट से ताज़ा हो गयी ! आभार आपका !

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  5. शेखावत जी,
    कहानी बाद में पढ़ूंगा। पहले आप को टोकना चाहता हूँ। आप हिन्दी टाइप करते समय पूर्णविराम के पहले स्पेस देते हैं। यह गलत कायदा है। किसी भी विराम चिन्ह के पहले कोई स्पेस नहीं होता वह शब्द के तुरंत बाद होना चाहिए। विराम चिन्हों के बाद एक स्पेस होनी चाहिए जब कि पूर्णविराम के बाद दो स्पेस। आप ने यहाँ विराम चिन्हों के पहले जो स्पेस दी है उस के कारण बहुत से विरामचिन्ह अगली पंक्ति में चले गए हैं और घोर असुंदर लग रहे हैं। इस से ऐसा लगता है कि विराम चिन्ह पंक्ति की समाप्ति के बाद नहीं अपितु पंक्ति के आरंभ के पहले लगाया जाता है।

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  6. @ दिनेश राय द्विवेदी,
    आपकी यह सीख अच्छी लगी, कृपया मुझपर भी यह कृपा बनाये रखें !
    मैं बैरी सुग्रीव ... :-)
    सादर

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  7. मस्त कहानी है । अगली कड़ी का इन्तज़ार रहेगा । .......☺☺☺☺☺☺☺☺☺

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  8. वाकई बहुत ही मनोरंजक और शिक्षादायक कहानियों की श्रंखला आपने शुरू की है, अपने कार्य को पूरे होशोहवाश और मनोयोग से करने पर कोई पाप पाप नही रह जाता और ना कोई पुण्य पुण्य ही रह जाता है. वो सिर्फ़ एक कृत्य रह जाता है, वैसे भी चोरी करना "चौर्य कला" मानी गई है जो कि ६४ कलाओं में से एक कला है. श्री कॄष्ण इस कला के भी पारंगत थे इसी लिये सिर्फ़ वही ६४ कला निधान कहलाये. इसे जारी रखियेगा.

    रामराम.

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  9. @ दिनेश जी
    अब विराम चिन्ह के बाद स्पेस देने वाली आदत अब से ही सुधारी जाएगी|

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  10. आदरणीय श्रीशेखावत जी,


    आपने मेरी माताजी की याद दिला दी,सन-१९५८ से लेकर सन-१९७० तक, वह भी हररोज़ शाम को,घर में, समूह प्रार्थना के बा,द ऐसी ही, पौराणिक और बोधकथाएं सुनाती थी,जिनमें से कुछ मैंने भी अपने ब्लॉग पर पोस्ट की है।

    आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।

    मार्कण्ड दवे।
    http://mktvfilms.blogspot.com

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  11. बहुत रोचक...आगे इन्तजार है.

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  12. वाह काफी रोचक कहानी है...अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी...

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  13. बहुत रोचक एक ही सांस में खत्म कर दी।
    ताऊजी बहुत दिनों बाद आए स्वागत तथा उनसे सहमत हूं।

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  14. बचपन में सुनी इन कहानियों को यहां पोस्ट कर आप सांस्कृतिक संपदा का सकंलन करने का काम कर रहे हैं। आज कल कितनी दादियों और नानियों को मौका मिलता है ऐसी कहानियां सुनाने का। कहानी बहुत रोचक है। अगली कड़ी का इंतजार है। मुझे लगता है बींजा इस कहानी में मुंह की खायेगा, इतने लंबे समय तक मेहमान बन दूसरे के घर नहीं रहना चाहिए,है न?

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  15. बहुत ही रोचक और मज़ेदार लगी ये कहानी, और जिस प्रकार से सोजत और नाडोल का उल्लेख हुआ है इससे तो सत्यकथा का आभाष होता है...

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  16. सोच रहा हूँ कि ये पोस्ट ही चुरा ले जाऊं.. :)

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  17. अत्यन्त रोचक, अगली कड़ी का इन्तजार है।

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