प्रणय और कर्तव्य

Gyan Darpan
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रणथंभौर दुर्ग पर अल्लाउद्दीन खिलजी ने पिछले तीन महीनों से घेरा डाल रखा था | उसके बागी सेनानायक महिमाशाही (मुम्मदशाह) को रणथंभौर के शासक हम्मीरदेव चौहान ने शरण दे रखी थी उसी बागी को वापस पाकर दण्डित करने के उद्देश्य से अल्लाउद्दीन ने हम्मीरदेव के किले पर आक्रमण किया और घेर लिया |

किले की पिछोली बुर्ज जो सुरक्षा के लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण थी कारण था पिछोली बुर्ज से ही रनिवास पर हमला किया जा सकता था पर किले के मुख्य सुरक्षा अधिकारी ने वीर लख्खाराव को नियुक्त कर रखा था | वीरवर लख्खाराव हम्मीरदेव का विश्वास पात्र सामंत था | अभी वीर लख्खाराव की शादी हुई ही थी कि किले पर शत्रु सेना का घेरा पड़ गया |

उस रात लख्खा सामंत पिछोली बुर्ज पर पहरा देते हुए बार बार चंद्रमा की और देख रहा था उसकी हालत देखकर लग रहा था कि वह चंद्रमा के छिपने का बेसब्री से इंतजार कर रहा है ,थोड़ी ही देर में चंद्रमा के छिपते ही किसी सुकुमार हाथों ने पीछे से लख्खा की आँखों पर हाथ रखते हुए कहा - " ऐसे ही कोई पहरा दिया जाता है |"
कहते हुए रुपावती पलकें झुकाए लख्खा जी के सामने आ खड़ी हुई |

मशाल के मंद प्रकाश में लख्खा को सामने खड़ी रुपावती अपूर्व सुन्दर लग रही थी | उसके गोरे गाल पर काले केशों की एक लट लटक रही थी | मृग-शावक सी भोली आँखें,नुकीली नाक,छोटे और पतले होंट,सांचे में ढली हुई सी सुघड़ गर्दन,लम्बी और पतली भुजाएँ और पतली कमनीय देह सब कुछ लख्खा को अत्यंत मनोहारी लग रहा था |क्षण भर वह रुपावती के रूप को देखता रहा फिर एकाएक उसे आलिंगन पाश में जकड लिया | थोड़ी देर के लिए दो नव दम्पति दो से एक हो गए | कुछ देर बाद सहसा कुछ टकराने की आवाज हुई | दो जने फिर एक से दो हो गए | लख्खा ने बुर्ज की दीवार से झुक कर नीचे देखा और हाथ से इशारा कर रुपावती को पास बुलाया और सीधा होकर उसके कान में कुछ कहने लगा | रुपावती ने भी बुर्ज से नीचे झांक कर देखा उसे भी कुछ मानव छायाकृतियाँ हिलती सी नजर आई | दोनों में फिर कानाफूसी हुई | लख्खा मना कर रहा था और रुपावती हठ कर रही थी | आखिर हठ की विजय हुई |

रुपावती ने अपने ओढने को कसकर कमर से बाँधा,मशाल पर तेल सींचा और लख्खा की तलवार ले बुर्ज की दीवार से नीचे कूद गयी | पिछोली बुर्ज के नीचे सिर्फ थोड़ी से समतल जगह थी बाकी पहाड़ियां व ढलान थी वहां आना जितना दुरूह था उतना ही वहां आने के बाद भागना | पर उधर से किसी तरह पिछोली बुर्ज से झपटकर रनिवास पर आसानी से हमलाकर किले में आतंक फैलाया जा सकता था | और उस रात किसी भेदिये के बताने पर शत्रु सैनिकों ने उधर से रनिवास पर कब्ज़ा करने की योजना बनाली थी |

एक हाथ में नंगी तलवार व दुसरे हाथ में जलती मशाल लिए किले से कूदते रुपावती साक्षात् दुर्गा सी लग रही थी | अचानक एसा दृश्य देख शत्रु सैनिक भयभीत व किंकर्तव्य विमूढ़ हो गए | रुपावती ने नीचे पहुँचते ही खचा-खच वार कर एक के बाद एक शत्रु सैनिकों की मुण्डियाँ काटनी शुरू करदी,ऊपर से लख्खा ने अपने धनुष से स्फूर्ति से तीर चलाते हुए शत्रु सैनिकों को निशाना बनाना शुरू किया | शत्रु सैनिक इधर-उधर भाग कर बचने की जगह तलाशने लगे | दीवार के पास आये तो रुपावती खच्च से सिर काट दे,दीवार से दूर हों तो लख्खा के तीर निशाना बनाकर शरीर छलनी करदे | भागे तो खाई में गिरकर मरना निश्चित |

इसी हलचल में पास वाली बुर्जों के सैनिक भी सतर्क हुए | उन्होंने नीचे देखा साक्षात् मां दुर्गा एक हाथ में खड्ग लिए दुसरे में मशाल ले शत्रुओं का संहार कर रही है | तब तक किले से कुछ और जलती मशालें नीचे फैंक दी गई साथ ही पत्थर वर्षा भी शुरू कर दी गयी | रुपावती ने मशाल दूर फैंकी व तुरंत लख्खा द्वारा लटकाए रस्से के सहारे बुर्ज पर चढ़ अपने कक्ष में चली गयी |

जय चामुंडा,जय दुर्गा का उद्घोष पिछोली दुर्ग के दोनों और से गूंज उठे | बहुत से सैनिकों ने योगमाया को शत्रु संहार करते देखा,बहुतों ने नहीं देखा | जिन्होंने देखा उन्होंने अपने आपको भाग्यशाली माना,जो नहीं देख पाए थे वे मां दुर्गा के दर्शनों के लिए भागकर आये पर तब तक मां दुर्गा अंतर्ध्यान हो चुकी थी | बात की बात में योगमाया के प्रकट होने और शत्रु सैनिकों के संहार करने की बाते पुरे किले में फ़ैल गयी | दुर्गपति भी वहां पहुँच गए | उन्होंने भी योगमाया के प्रकट होने की पूरी बात सुनी | लख्खा को ले पहले दुर्ग के नीचे मशाले फैंक रौशनी कर शत्रु सैनिकों के हताहत होने की संख्या का अनुमान लगाया |
सुबह होते ही रात्री की घटना के बारे में राव हम्मीरदेव को सूचित किया गया | हम्मीर ने लख्खा को बुलाकर पूछा -
" वीरवर लख्खा जी क्या वाकई हमारी रक्षा के लिए मां भगवती प्रकट हुई थी ?"
" महाराज ! मैं बाण चलाने में तन्मय था इसलिए ज्यादा तो नहीं देख सका पर हाँ प्रकाश में एक नारी शत्रु सैनिकों का संहार करते जरुर दिखाई दी थी |" लख्खा ने बात बनाते हुए कहा |
"लख्खा जी ! आपके जैसे वीरों के होते और माँ भगवती की कृपा से ही तो हम्मीर का हठ जिन्दा है |"

किले में सब तरफ योगमाया के प्रकट होने की खबर फ़ैल गयी | महारानियों ने भी यह खबर श्रद्धापूर्वक सुनी | सभी ने सामंत लख्खाराव के भाग्य की प्रसंसा की कि उसकी बुर्ज पर उसकी सहायता के लिए योगमाया प्रकट हुई | किले में रहने वाले सभी नागरिकों व सैनिको में अपार उत्साह का संचार हो गया कि -उनकी सहायता के दैवीशक्ति प्रकट हो चुकी है अब विजय में किंचित मात्र भी संदेह नहीं |

हम्मीरदेव अपने सामंतो के साथ मंत्रणा कर ही रहे थे कि एक अनुचर ने आकर सुचना दी -" अपराध क्षमा करे महाराज ! दासी मांडदे महारानी को उबटन मॉल रही थी कि एक रहस्यमय तीर आकर उसके हाथ में लगा और वह बेहोश हो गयी |"
हम्मीरदेव ने हुक्म दिया कि -" जर्राह को बुलाकर दासी का उपचार कराया जाय |" और हम्मीर अपने सामंतो के साथ उस रहस्यमय तीर पर चर्चा करने लगे | अब तक इस अज्ञात बाण ने कई सैनिकों को घायल कर दिया था,उस बाण के आकार को देखते हुए एसा लगता था जैसे ये बाण किसी इन्सान ने नहीं किसी दैत्य ने चलाया हो | अब तक इस तीन हाथ लम्बे बाण का रहस्य ही नहीं सुलझ रहा था कि इसे कौन चला रहा है किधर से,कहाँ से चलाया जा रहा है | सो महाराज हम्मीरदेव ने एक पान का बीड़ा मंगवाया और अपने सामंतों के आगे रखते हुए कहा -" जो सामंत इस बाण के रहस्य को मालूम कर इसे चलाने वाले का वध कर सके वह बीड़ा उठाले |"

ऐसे दुष्कर कार्य को करने में किसी की हिम्मत नहीं हो रही थी | कुछ समय के लिए राजदरबार में सन्नाटा छा गया,सभी सामंत एक दुसरे का मुंह ताकने लगे | तभी लख्खा अपने स्थान से खड़ा हुआ और आगे बढ़कर बीड़े को उठा लिया |
" भगवान् शंकर की जय हो ,हठी हम्मीर महाराज की जय हो ,कह कर लख्खा ने पान के बीड़े को मुंह में रख लिया | और इस कार्य के लिए महाराज हम्मीर से दो दिन का समय मांग अभिवादन कर बाण हाथ में ले सीधा रनिवास की उस जगह गया जहाँ दासी के बाण लगा था | उस स्थान पर अपने अनुचर को खड़ाकर लख्खा उन सभी स्थितियों का निरिक्षण व अध्ययन करने लगा | उसने बाण की लम्बाई,उसका वजन आदि देखकर उस बाण को चलाने वाले की शारीरिक क्षमता व उसकी धनुर्विधा का आंकलन किया ,अचानक उसके चेहरे पर प्रसन्नता झलक पड़ी,लग रहा था लख्खा को बाण के रहस्य का पता चल गया |

लख्खा भोजन करने के बाद अपने कक्ष में आ गया,रात्री की थकान और नींद के बावजूद उसे आज नींद नहीं आ रही थी | रह रह कर उसके मस्तिष्क में रुपावती का चेहरा आ रहा था | आज रुपावती के प्रति उसका वासनामय प्रेम श्रद्धा और सम्मान में बदल गया था | रात्री का दृश्य याद कर रुपावती की वीरता उसे रोमांचित कर रही थी ऐसी वीर पत्नी पाकर वह अपने आपको धन्य मान रहा था | तभी उसे अपनी प्रतिज्ञा याद आई | सोचने लगा काश दो दिन के बजाय ज्यादा समय मांग लेता तो रुपावती से ज्यादा वियोग नहीं सहना पड़ता | इस तरह करवटे बदलते,सोचते लख्खा की आँख गयी |
रात्री हुई और लख्खा पिछोली बुर्ज पर पहुँच गया आज फिर वह चंद्रमा के अस्त होने का इन्तजार करने लगा,आखिर चन्द्रमा के अस्त होते ही जौहर कुण्ड की और से आती हुई एक आकृति उसे नजर आई वह समझ गया कि रुपावती आ रही है,थोड़ी देर में रुपावती उसके सामने थी |
"आज देवी की कृपा देर से हुई ?"
"भक्त के हृदय में भक्ति की कमी आ गयी होगी |" कहते हुए रुपावती बुर्ज की सीढियाँ चढ़ गयी | फिर दो प्रेमी मन,वचन और कर्म से एक हो गए | आज लख्खा के व्यवहार में कुछ विचित्रता सी थी | कोई बात उसकी जुबान तक आती और रुक जाती | वह रुपावती को एक क्षण भी अलग होने देना नहीं चाह रहा था |
"प्रतिज्ञा पूर्ण करने के लिए अब केवल एक दिन शेष है |" याद दिलाते हुए रुपावती महल की और प्रस्थान कर गयी |
दुसरे दिन चंद्रमा अस्त होने से पहले ही रुपावती पिछोली बुर्ज पर आ पहुंची उसके हाथ में आरती की थाली देख लख्खा ने पूछा -" ये क्या है ?"
" अपने नाथ को प्रतिज्ञा-पालन के लिए विदा करने आई हूँ ,यह आरती की थाली है, शुभ कार्य में देरी क्यों कर रहे है नाथ ? आपकी प्रतिज्ञा तो हम्मीर के हठ व रणथंभौर दुर्ग की दृढ़ता की तरह दृढ होनी चाहिए |"
और रुपावती ने लख्खा की आरती कर,उसके शस्त्र बाँध,चरण छूकर उसे विदा दी | लख्खा लटकते हुए रस्से की और गया ,पर लग रहा था उसका अभी जाने का मन नहीं कर रहा ,थोड़ी देर में वह वापस बुर्ज पर आ गया |
"वापस कैसे लौट आये प्राणनाथ ?"
" ओह कटार बांधना भूल गया था |
लख्खा ने कटार ले, रुपावती को गले लगा फिर रस्से के सहारे बुर्ज के नीचे उतरा और थोड़ी देर में वापस आ गया | कहने लगा " तरकस में बाण कम थे लेने आ गया |
बाण ले फिर लख्खा रस्से के सहारे बुर्ज के नीचे उतरा और वापस आ गया , इस बार आते ही उसने रुपावती का रोद्र रूप देखा और तुरंत रस्से के सहारे फिर झूल गया | रुपावती उसकी परिस्थितिजन्य दुर्बलता समझ चुकी थी ,सो उसने बुर्ज पर चढ़ कर नीचे झांकते हुए कहा -
" नाथ ! ठहरिये | अपना दुपट्टा फैलाईये मै ऊपर से एक ऐसी वस्तु गिराउंगी जिससे निश्चित ही आपकी विजय होगी | एक सिद्ध मणि आपको भेंट करुँगी |" कहती हुई रुपावती हंस पड़ी |
ऊपर से एक भारी सी वस्तु आकार लख्खा के दुपट्टे पर गिरी जिसे देखकर वह चोंका और कुछ क्षण उसे सहमते हुए देखता रहा फिर दुपट्टे में बाँध हृदय को लगा लख्खा आगे बढ़ गया | सहसा उसे किसी के आने की आहट सुनाई दी,वह एक चट्टान के सहारे छुप गया ,उसने देखा दो व्यक्ति दुर्ग की और बढ़ रहे है और कुछ दूर आकार एक चट्टान पर बैठ गए है | लख्खा ने भी बिना कोई आहट किये एक चट्टान पर जाकर अपना मोर्चा जमा लिया | सांस रोककर वह उन दोनों की गतिविधियों पर नजर रखने लगा |

प्राची में अरुणोदय हो चूका था प्रकाश की हल्की आभा व्याप्त हो चुकी थी ,लख्खा ने देखा एक भीमकाय व्यक्ति दुर्ग की और मुंह करके खड़ा है फिर उसने घुटने टेक धनुष हाथ में ले बाण चढ़ा दुर्ग की और निशाना साधा फिर बिना बाण छोड़े ही वह बैठ कर इन्तजार करने लगा | उसके निशाना साधने की दिशा देख लख्खा उसका मंतव्य समझ गया कि यह दैत्य आज उदित होते सूर्य को अर्ध्य देते हुए महाराज हम्मीर का वध करना चाहता है |

और दुसरे ही क्षण रणथंभौर दुर्ग के सबसे बलिष्ठ हाथों ने भी अपना धनुष उठाया,उस पर एक अर्धचंद्राकार बाण रखा,उसे कान तक खिंचा,"विध्नहरण गणेशाय: नम:" का जाप कर आत्म-विश्वास बटोरा और भगवान् शंकर का ध्यान करते हुए बाण छोड़ दिया | उस विशालकाय व्यक्ति का सिर कट कर जमीन पर आ गिरा | लख्खा प्रसन्नता से उछल पड़ा | इतने में दूसरा व्यक्ति झाड़ियों की ओट लेता हुआ भाग खड़ा हुआ | लख्खा लपककर उस चट्टान पर गया,उस भीमकाय व्यक्ति का सिर उठाया,उसका धनुष और शुलाकार बाण उठाये और वहां से दुर्ग की और चल पड़ा | उसके चहरे की क्षणिक प्रसन्नता फिर गंभीरता और विषाद में बदल गयी |
पिछोली बुर्ज पर रस्से के सहारे चढ़ उसने सूर्य को अर्ध्य देकर नीचे उतरते महाराज हम्मीर के चरणों में कटा हुआ वह सिर और उसका धनुष और बाण रख दिए |
" आपके जैसे श्रेष्ठ वीरों के कारण ही हम्मीर का हठ और इस रणथंभौर दुर्ग की दृढ़ता कायम है लख्खा जी |" कहते हुए महाराज ने खून से लथपथ लख्खाराव को सीने से लगा लिया |
"मैं आपका अपराधी हूँ | महाराज !"
"कैसा अपराध ?"
" मैंने दुर्ग के अनुशासन को भंग किया है,आपकी अवज्ञा की है और आपके साथ मिथ्या भाषण किया |"लख्खा ने महाराज से कहा |
" मैं आपकी बात समझा नहीं लख्खा जी |"

और लख्खा ने कर्तव्य के दौरान बुर्ज पर अपनी प्रणय-लीला,देवी के प्रकटीकरण और अंत में मोहलिप्त होने की पूरी कहानी महाराज हम्मीर को सुनादी और दुपट्टे में बंधा हुआ रुपावती का सिर महाराज के सम्मुख रख दिया |
महाराज हम्मीरदेव ने रुपावती के कटे मस्तक को देखा | क्षण भर में वे गंभीर हो गए, उन्होंने अपने नेत्र बंद कर लिए | उनके हृदय में कर्तव्य के दृढ निश्चय की एक भाव तरंग उठी,जो आँखों के मार्ग से दो मोतियों के रूप में प्रकट हुई और महाराज के कपोलों को स्पर्श करते श्रद्धांजली के बतौर रुपावती के उज्जवल भाल को धोकर उसे और अधिक दैदीप्यमान बना दिया |

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8टिप्पणियाँ

  1. इन जांबाजों के दम पर ही देश की आन-बान-शान कायम रह सकी।
    सुन्दर प्रसंग के लिए आभार
    राम राम

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  2. वाह क्या वीरता त्याग अभिमान और सम्मान से मिश्रित कहानी है धन्य ऐसी महिलाये

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  3. आदरणीय शेखावत जी...ऐसी वीरता वाली कहानी सुनाने के लिए आपका आभार...
    वैसे मैं भी राजस्थान का रहने वाला हूँ...इतिहास की ऐसी बहुत सी कहानियां सुन चूका हूँ किन्तु यह किस्सा पहली बार सुना है...
    राजस्थान के राजपुताना परिवार पर हमे गर्व है...

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  4. अद्भुत रोमांचपूर्ण वर्णनं -मानो सारा इतिहास साकार हो गया हो !

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  5. सचमुच प्रणय से कर्तव्य बड़ा होता है |

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  6. अद्वितीय त्याग व शौर्य वाला प्रसंग है! हार्दिक आभार!

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  7. अद्भुत वीरता, निसन्देह भारतवर्ष में वीरों की कमी नहीं थी। कमी थी तो चालाकी की तथा अधिक उदारता एवं नैतिकता की जिसके कारण बाहरी आक्रमणकारियों का गुलाम होना पड़ा।

    इस अद्भुत प्रसंग में आपकी वर्णन शैली ने चार चाँद लगा दिये। काश ऐसे प्रसंगों पर कोई फिल्मकार धारावाहिक बनाता।

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