स्वधर्म का ज्ञान आवश्यक है

Gyan Darpan
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मनुष्य सदेव ही दूसरे को जानने में लगा रहता है |वह दूसरे के ज्ञान ,दूसरे के धन दूसरे के मान-सम्मान,दूसरे की कार्य प्रणाली ,दूसरे का चाल-चलन और यहाँ तक कि अपना सारा जीवन दूसरे के मन और जीवन को ताकने में लगा देता है |वह सदेव कुछ लोगो की प्रशंसा और कुछ की निन्दा करने में अपना अमूल्य जीवन ,समय और धन व्यतीत करता रहता है |परिणाम होता है उसे केवल शून्य हाथ लगता है, अर्थात उसका सारा प्रयास निरर्थक जाता है क्योंकि ,किसी दूसरे के मन कि थाह लगाना तो अँधेरे में भटकने जैसा है | जितना परिश्रम मनुष्य दूसरे को जानने में करता है यदि उसका थोडासा प्रयत्न भी स्वयं को जानने में कर ले तो निश्चित ही वह अपने को जानने लगेगा |वास्तविकता तो यह है कि मनुष्य स्वयं को उतना भी नहीं जानपता जितना कि वह दूसरो को जान लेता है, परिणाम होता है कि वह सदेव ऐसा कार्य करता है जो स्वयं उसके अहित का होता है |
गीता में श्री कृष्ण ने अर्जुन को कहा है कि "मनुष्य स्वयं ही स्वयं का शत्रु है और स्वयं ही स्वयं का हितेषी भी " |अर्थात हमारे सुख दुःख का कारण कदापि कोई और नहीं होता बल्कि हम स्वयं अपने ही कर्मो के परिणाम स्वरूप फल प्राप्त करते है |जैसा बीज किसान खेत में बोता है, वैसी ही फसल भी प्राप्त करता है |चूँकि हम कभी भी अपने को जानने का प्रयत्न नहीं करते तो फिर हम अपनी हर स्थिति के लिए दोष भी दूसरे को हो देना उचित समझते है |आपको ऐसे बहुत से लोग रोते हुए मिलेंगे जो अपनी हर असफलता के पीछे किसी न किसी और को उत्तरदायी ठहराया करते है |उसका परिणाम भी तुरंत मिलता है ऐसे लोग कभी उन्नति के मार्ग का परिचय नहीं प्राप्त कर पाते है |अब आप यह मानिये कि दूसरे लोग तो एक उपकरण या साधन की भांति है, जो न बुरे है न अच्छे ,अब यह तो उनके उपयोग कर्ता पर निर्भर है न कि वह उससे हानि उठाये या कि लाभ .,,,,,,इस संसार में बिष का अपना महत्व है और अमृत का अपना ,यदि आप बिष-पान करके यह दोष बिष पर मढ़े कि बिष ने हमारी जान लेली तो क्या बिष स्वयं आप के मुहं में आया था ????? कदापि नहीं ,,,,

दरसल जब हम दूसरे को जानने में लगते है तब हम परमुखापेक्षी होते है जबकि यदि हम स्वयं को जानने लगे तो फिर हम परमुखापेक्षी नहीं बल्कि स्वयं अपने को तौलते हुए हर कार्य करेंगे |तब हम पर दूसरे की करनी और रहन सहन ,उसके धर्म उसकी गतिविधियों का उतना प्रभाव नहीं पड़ेगा जितना की आज हमारे जीवन में हावी है |अब हम हमेशा भयभीत रहते है कि हमारे अमुख कार्य का लोगो पर क्या प्रभाव पड़ेगा या लोग क्या कहंगे ? जबकि लोग क्या कहेंगे, उन्हें भी तो आप जैसा ही रोग लगा है कि हमारे कार्यो पर लोग क्या कहेंगे ?यानि आप कुछ भी करो उन्हें इस बात की फुर्सत ही नहीं की क्या कहे और क्या सोचे |क्योंकि जो स्वयं परामुखापेक्षी नहीं उन्हें तो आपके कार्यो पर नजर रखने की आदत ही नहीं और जिन्हें आदत है वे तो स्वयं ही डूबने वाली नाव पर सवार है इसलिए उनकी टिप्पणी कोई मायने ही नहीं रखती है |
अब बात उठती है कि तो आखिर हम करे क्या ????? यह सवाल अक्सर लोगो को सालता रहता है कि जी हम करे क्या ???यह सवाल ही इस बात का धोतक है कि वास्तव में हम कुछ करना ही नहीं चाहते बल्कि कर्म करने से बचने के लिए किसी तर्क की ढाल की खोज करना चाहते है |यह अटल सत्य है कि हमारे जन्म और मृत्यु पर निसंदेह हमारा बस नहीं है |यह निश्चित रूपसे सृष्टि की किसी वैज्ञानिक और अध्यात्मिक प्रक्रिया का परिणाम मात्र है |जब हमारे जन्म पर हमारा अधिकार नहीं तो फिर हमारे स्व-धर्म पर भी हमारा अधिकार नहीं होसकता है |यह भी निश्चित रूप से पहले से ही निर्धारित होचुका होगा | जब हमारा स्व-धर्म पहले से ही निर्धारित है तो उसे चुनने का तो हमे अधिकार नहीं है| क्योंकि हम या तो नास्तिक हो सकते है या फिर आस्तिक ,दोनों एक साथ तो नहीं होसकते न ??? यदि हम आस्तिक है और यह मानते है कि ईश्वर या प्रकृति का कोई नियंत्रक है तो निश्चित रूपसे किसी प्राक्रतिक और अध्यात्मिक कारण से ही हमारा जन्म हमारे माता-पिता के घर हुआ है |जिस प्रकार हमें अपनी जननी और जनक को स्व-माता और स्व-पिता मानने में हर्ष और अनुकूलता महशूश होती है |वैसे ही स्वधर्म में अपने को समर्पित करने में अनुकूलता प्राप्त होती है | इसके लिए गीता के इन श्लोको का उदहारण यहाँ उचित होगा |

"श्रेयानाम स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्टितात !

स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह : !! 35!! तीसरा अध्याय


भली प्रकार आचरण किये गए दूसरे के धर्म ,गुण रहित अपना कल्याणकारी है |अपने धर्म का पालन करते हुए तो मरना भी कल्याणकारक है ,जबकि दूसरे का धर्म तो भय को देने वाला होता है |

"श्रेयानाम स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्टितात !

स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम !!४७!!अठारहवा अध्याय


भली प्रकार आचरण किये गए दूसरे के धर्म ,गुण रहित अपना कल्याणकारी है |स्वभाव से नियत किये हुए कर्म अर्थात वर्नाधार्मानुसार नियत कर्म कर्ता हुआ ,मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त होता है |

"सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत !

सर्वारम्भा हि दोषेण धुमेनाग्निरिवावृता !!४८!!अठारहवा अध्याय


हे अर्जुन दोषयुक्त भी जन्म के साथ उत्पन स्वधर्म को नहीं त्यागना चाहिए !,निश्चित ही धुवाँ से अग्नि की भांति सभी कर्मो का आरंभ तो दोष से ढका हुआ है !

अब हम जिस वर्ण में पैदा हुए है उसके अनुसार हमारा जो भी कर्म है ,वास्तव में यही हमारा स्वधर्म है और इसका ज्ञान हमारे लिए अति आवश्यक है |हम स्वधर्म के बिना जी भी सकते है, किन्तु वह जीवन सफल नहीं कहा जासकता ठीक वैसे ही जिस प्रकार अपनी जननी के बगेर बालक का पालन पोषण हो तो जाता है ,किन्तु स्वमाता तो आखिर स्व-माता ही होती है |विमाता भले ही कितना ही ऊँचे दर्जे का स्नेह और ममता से पालन करले किन्तु शिशु में जो पालन अपनी जननी के द्वारा होता है उसकी तुलना तो नहीं ही की जासकती न !

इसलिए हम सभी का यह परम कर्तव्य है की हम सर्वप्रथम अपने धर्म को पहिचाने जो निश्चित है और उसका ज्ञान प्राप्त करे ताकि हमारा जीवन सार्थक होसके |

"जय क्षात्र-धर्म "

कुँवरानी निशा कँवर नरुका

श्री क्षत्रिय वीर ज्योति

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8टिप्पणियाँ

  1. अपने धर्म का निर्वहन बहुत चुनौती पूर्ण है..

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  2. बहुत सुंदर लेख, अगर हम अपने आप को ही अच्छी तरह जान जाये तो जीवन ही सफ़ल हो जाये, आप के लेख से सहमत हे जी,धन्यवाद

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  3. बहुत सुंदर आलेख, शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  4. स्वधर्म को खोजकर उसका पालन ही असली धर्म है।
    लेख अच्छा लगा।

    प्रणाम

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  5. सभी धर्मावलंबियों के लिए आवश्‍यक है इस स्‍वधर्म का पालन.

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  6. बहुत सही जी! अपनी नैसर्गिक क्वालिटीज का अहसास होना ही चाहिये। व्यक्ति तदानुसार कृत्य करे।

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