एक वीर जो शादी की रस्में अधूरी छोड़ मातृभूमि के लिए शहीद हो गया

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Bhairon Singh Raotot of Bajava Village

रेवाड़ी के पास माण्डण नामक स्थान पर शाही सेनाधिकारी राव मित्रसेन अहीर कई मुस्लिम सेनापतियों के साथ विशाल शाही सेना लिए शेखावाटी प्रदेश की स्वतंत्रता को कुचलने के लिए तैयार खड़ा था तो शेखावाटी-प्रदेश के शेखावत वीर भी अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता की रक्षार्थ उसके सामने आ डटे| शेखावत सेना को सहयोग देने के लिए जयपुर की कछवाह सेना व भरतपुर की जाट सेना भी हथियारों से सुसज्जित होकर शाही सेना के खिलाफ आ चुकी थी|

इसी समय झुंझुनू परगने के बजावा ग्राम का निवासी एक नवयुवक भैरूंसिंह "रावत का" भुवांणा ग्राम में तंवरों के यहां विवाह करने गया हुआ था। विवाह करके लौटने पर अपने गांव की सीमा पर पहुंचते ही उसे मालूम हुआ कि उसके गांव के समस्त सक्षम-राजपूत योद्धा शाही सेना से युद्ध करने सिंघाणां जाकर शेखावत सेना में शामिल हो चुके हैं। जन्मजात शौर्य और स्वाभिमान से गर्वित वह नवयुवक युद्ध के मैदान में अपने सहजातियों से पीछे कैसे रह सकता था। वधू को बरातियों के साथ ग्राम सीमा पर ही छोड़कर दुल्हे के रूप में सजा सजाया वह वीर युद्ध में शामिल होने चल पड़ा। नव परणीता (नववधु) राजपूत बाला तंवर जी अकेली ने ही स्वसुर गृह में प्रवेश किया। विवाह के अवसर पर गृह प्रवेश के समय सम्पादन किये जाने वाले पैसारा आदि माँगलिक कार्य अधूरे ही रह गये।

6 जून, 1775 ई. शाही सेना व शेखावत सेना के मध्य भीषण युद्ध हुआ| अपने वीर साथियों की भांति भैरूंसिंह भी वीरता से लड़ता हुआ माण्डण के रणक्षेत्र में शहीद हुआ। मृत योद्धा की पाग (पगड़ी) लेकर सांडनी (ऊंटनी) सवार बजावा पहुँचा। पति के सकुशल घर लौटने की प्रतीक्षा में देवता-मनाती वीर पत्नी तंवरजी पर वज्राघात हुआ। किन्तु अपने पति की पाग के साथ चितारोहण करके क्षात्र धर्म के कठोर किन्तु महान् उच्च कर्तव्य का पालन किया। उन बलिदानी वीर बेटी और बेटियों की बदोलत ही राजस्थान का नाम भारतीय इतिहास में अमर है। तभी तो कवि ने मुक्तकण्ठ से कहा है

रजपूतां जामण दहुं रूड़ा कळू कीच मांहै न कळै।
बिजडाँ-धार लडै़ चढ़ बेटा बेटी काठाँ चढे बळै ।

माण्डण युद्ध के झुंझार भैरूसिंह की सती पत्नी के दाह स्थान पर बजावा में स्मारक के रूप में छत्री बनी हुई है। बजावा ग्राम के राजपूतों में तभी से पैसारा आदि वैवाहिक मांगलिक कृत्य जो नववधू के श्वसुर गृह प्रवेश के समय किये जाते हैं- वंर्जित हैं। विवाह करके लौटने पर वहाँ के वर-वधू सती की छत्री पर जाकर अपनी श्रृद्धा के सुमन चढ़ाते हैं।

रावतोत अथवा रावत का राजपूत कछवाहों की कुम्भावत शाखा की एक उपशाखा में हैं। आमेर (जयपुर) के राजा चन्द्रसेनजी के छोटे पुत्र कुम्भाजी से कछवाहों की कुम्भावत शाखा का उद्गम हुआ। उनका मुख्य पाटवी ठिकाना महार था। महार के राव रावतराम से कुम्भावतों की रावतोत अथवा रावत का उपशाखा का विकास हुआ। बिसाऊ के ठा. केशरीसिंह के सम्पर्क से इस खानदान के राजपूत बजावा में आ बसे थे। ऐसा भी कहा जाता है कि कुम्भाजी को रावत का खिताब था इसलिये उनके वंशज रावत का अथवा रावतोत कहलाये। जैसे कि शेखावतों में राव त्रिमल के वंशज रावजी का कहलाते हैं।

ठाकुर सुरजनसिंह जी शेखावत द्वारा लिखित पुस्तक "माण्डण युद्ध" से साभार

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