History of Hamirgarh Fort हमीरगढ़ फोर्ट का इतिहास

Gyan Darpan
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History of Hamirgarh Fort : अनगिनत युद्धों में तोपों की मार झेलते झेलते आज यह दुर्ग जीर्ण अवस्था में पहुँच चुका है| मेवाड़ की सुरक्षा के लिए महाराणा कुम्भा द्वारा बनाये 84 दुर्गों में से एक यह दुर्ग मेवाड़ का प्रवेश द्वार है| यही कारण है कि चितौड़ पर होने वाले ज्यादातर आक्रमणों का सबसे पहले मुकाबला इसी दुर्ग ने किया| इस दुर्ग का सामरिक महत्त्व इस बात से भी समझा जा सकता है कि युद्ध अभियान पर जाने के लिए मेवाड़ी सेना पहले इसी दुर्ग में एकत्र होती थी और वापसी में भी मेवाड़ी सेना का पड़ाव यहीं होता था, यही कारण है कि आज भी किले की तलहटी में जहाँ बड़ी बस्ती बस गई है, उस जगह को पड़ाव ही कहा जाता है| मेवाड़ के महाराणा हमीरसिंह द्वितीय के नाम से जाने जाना वाले Hamirgarh Fort का नाम पहले बाकरोल था, जो आज महाराणा उदयसिंह जी के कुंवर वीरमदेवजी के वंशज रावत युग प्रदीपसिंह जी के स्वामित्व में है| वीरमदेवजी के उत्तराधिकारी भोज को घोसुंडे और अठाणे की जागीर मिली थी| भोज के छोटे पुत्र रघुनाथसिंहजी को लांगछ का पट्टा मिला था|

महाराणा अरिसिंह जी के समय दुश्मनों व सरदारों के बीच बिगाड़ हो जाने पर रघुनाथसिंहजी के प्रपोत्र रावत धीरतसिंहजी ने महाराणा का तरफदार होकर माधवराव सिंधिया की सेना व अन्य सरदारों से युद्ध किया| उनकी इसी सेवा के उपलक्ष में महाराणा ने धीरतसिंह जी को 25 हजार रूपये आमदनी की बाकरोल की जागीर दी| बाकरोल में महाराणा कुम्भा के समय का किला बना था, जो युद्ध में क्षत-विक्षत हो चुका था, जिसका रावत धीरतसिंह जी ने जीर्णोद्धार करवाया और महाराणा की आज्ञा लेकर किले का नाम बाकरोल से हमीरगढ़ रखा, तब से बाकरोल को Hamirgarh Fort के नाम से जाना जाने लगा|

सिंधिया के सेनापति आम्बाजी इंगलिया ने Hamirgarh Fort पर चढ़ाई की और सात दिन के भयंकर युद्ध के बाद किले पर अधिकार कर लिया| रावत धीरतसिंह जी सहायता के लिए चितौड़ गए और चुण्डावत सरदारों के साथ 15 हजार सैनिक साथ लेकर फिर हमीरगढ़ पर आक्रमण किया| सिंधिया के सेनापति गणेशपन्त ने घिर जाने पर किले से बाहर निकलकर युद्ध किया, इस युद्ध में रावत धीरतसिंह जी के दो पुत्र अभय सिंह और भवानी सिंह अपनी मातृभूमि को दुश्मन से आजाद कराने के लिए वीरतापूर्वक लड़ते हुए शहीद हो गए| युद्ध में रावत धीरतसिंह जी विजयी हुए और किला फिर उनके अधिकार में आ गया, तब से आजतक उन्हीं के वंशजों के स्वामित्त्व में है| रावत धीरतसिंह जी का निधन में सन 1815 ई. में हुआ और उनके पौत्र वीरमदेव (द्वितीय) उनके उत्तराधिकारी हुए| मेवाड़ के सामरिक महत्त्व वाले इस किले के वर्तमान स्वामी सामाजिक सरोकारों के प्रति प्रतिबद्ध रावत युग प्रदीप सिंह जी मृदुभाषी, सोम्य व शानदार व्यक्तित्व के धनी है| उनके व्यक्तित्त्व को देखते ही दर्शक के मन-मस्तिष्क में महाराणा उदयसिंह व महाराणा प्रताप आदि की छवि स्वत: ही उभर आती है| क्षेत्र में उनकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज भी स्थानीय व आस-पास के गांवों के लोग व प्रशासन किसी भी विवाद में समझाईस के लिए उन्हें ही बुलाते हैं| गांव के बच्चे आज भी उन्हें अपना राजा समझते है और अपने अभिवादन का अपने राजा से मुस्कराकर झुकते हुए प्रत्युतर पाने पर अभिभूत हो जाते हैं|

हमने रावत युग प्रदीप सिंह जी से Hamirgarh Fort का इतिहास बताने का आग्रह किया तो उन्होंने बताया उसे आप वीडियो में यहाँ क्लिक कर सुन सकते हैं|

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