परमार राजवंश और उसकी शाखाएँ : भाग-1

Gyan Darpan
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परमार अग्नि वंशीय हैं। श्री राधागोविन्द सिंह शुभकरनपुरा टीकमगढ़ के अनुसार तीन गोत्र हैं-वशिष्ठ, अत्रि व शाकृति। इनकी शाखा वाजसनेयी, सूत्र पारसकर, ग्रहसूत्र और वेद यजुर्वेद है। परमारों की कुलदेवी दीप देवी है। देवता महाकाल, उपदेवी सिचियाय माता है। पुरोहित मिश्र, सगरं धनुष, पीतध्वज और बजरंग चिन्ह है। उनका घोड़ा नीला, सिलहट हाथी और क्षिप्रा नदी है। नक्कारा विजयबाण, भैरव कालभैरव तथा ढोल रणभेरी और रत्न नीलम है।
परमारों का निवास आबू पर्वत बताया गया है। क्षत्रिय वंश भास्कर के अनुसार परमारों की कुलदेवी सिचियाय माता है, जिसे राजस्थान में गजानन माता कहते हैं। परमारों के गोत्र कहीं गार्ग्य, शौनक व कहीं कौडिल्य मिलते है।

उत्पति- परमार क्षत्रिय वंश के प्रसिद्ध 36 कुलों में से एक हैं। ये स्वयं को चार प्रसिद्ध अग्नि वंशियों में से मानते हैं। परमारों के वशिष्ठ के अग्निकुण्ड से उत्पन्न होने की कथा परमारों के प्राचीनतम शिलालेखों और ऐतिहासिक काव्यों में वर्णित है। डा. दशरथ शर्मा लिखते हैं कि ‘हम किसी अन्य वंश को अग्निवंश माने या न माने परन्तु परमारों को अग्निवंशी मानने में कोई आपत्ति नहीं है।’ सिन्धुराज के दरबारी कवि पद्मगुप्त ने उनके अग्निवंशी होना और आबू पर्वत पर वशिष्ठ मुनि के अग्निकुण्ड से उत्पन्न होना लिखा है। बसन्तगढ़, उदयपुर, नागपुर, अथूणा, हरथल, देलवाड़ा, पारनारायण, अंचलेश्वर आदि के परमार शिलालेखों में भी उत्पति के कथन की पुष्टि होती है।

अबुलफजल ने आइने अकबरी में परमारों की उत्पति आबू पर्वत पर महाबाहु ऋषि द्वारा बौद्धों से तंग आने पर अग्निकुण्ड से होना लिखा है।

प्रश्न उठता है कि अग्निवंश क्या है? इस प्रश्न पर भी विचार, मनन जरूरी है ? इतिहास बताता है कि ब्राह्मणवाद के विरुद्ध जब बौद्ध धर्म का विस्तार हुआ तो क्षत्रिय और वैश्य भी बौद्ध धर्मावलम्बी बन गये। फलतः वैदिक परम्परा नष्ट हो गई। कुमारिल भट्ट (ई.700) व आदि शंकराचार्य के प्रयासों से वैदिक धर्म में पुनः लोगों को दीक्षित किया जाने लगा। जिनमें अनेकों क्षत्रिय भी पुनः दीक्षित किये गये। ब्राह्मणों के मुखिया ऋषियों ने वैदिक धर्म की रक्षा के लिए क्षत्रियों को पुनः वैदिक धर्म में लाने का प्रयास किया, जिसमें उन्हें सफलता मिली और चार क्षत्रिय कुलों को पुनः वैदिक धर्म में दीक्षित करने में सफल हुए। आबू पर्वत पर यज्ञ करके बौद्ध धर्म से वैदिक धर्म में उनका समावेश किया गया। यही अग्निवंश का स्वरूप है।

जिसमें परमार वंश अग्नि वंशी कहलाने लगा। छत्रपुर की प्राचीन वंशावली वंश भास्कर का वृतान्त, अबुलफजल का विवरण भी बौद्ध उत्पात के विरुद्ध बौद्ध धर्म से वैदिक धर्म में पुनः लौट आने व यज्ञ की पुष्टि करते हैं। आबू पर्वत पर यह ऐतिहासिक कार्य 6 ठी व 7 वीं सदी में हुआ था। आज भी आबूगिरी पर यज्ञ स्थान मौजूद है।

मालवा के प्रथम परमार शासक- मालवा पर परमारों का ईसा से पूर्व में शासन था। हरनामसिंह चौहान के अनुसार परमार मौर्यवंश की शाखा है। राजस्थान के जाने-माने विद्वान ठाकुर सुरजनसिंह झाझड़ की भी यही मान्यता है। ओझा के अनुसार सम्राट अशोक के बाद मौर्यों की एक शाखा का मालवा पर शासन था। भविष्य पुराण भी मालवा पर परमारों के शासन का उल्लेख करता है।

मालवा का प्रसिद्ध राजा गंधर्वसेन था। उसके तीन पुत्रों में से शंख छोटी आयु में ही मर गया। भर्तृहरि जी गद्दी त्याग कर योगी बन गये। तब तीसरा पुत्र विक्रमादित्य गद्दी पर बैठा। भर्तृहरि गोपीचन्द के शिष्य बन गये जिन्होंने श्रृंगार शतक, नीति शतक और वैराग्य शतक लिखे हैं। गन्धर्वसेन का राज्य विस्तार दक्षिणी राजस्थान तक माना जाता है। भर्तृहरि के राज्य छोड़ने के बाद विक्रमादित्य मालवा के शासक बने। राजा विक्रमादित्य बहुत ही शक्तिशाली सम्राट थे। उन्होंने शकों को परास्त कर देश का उद्धार किया। वह एक वीर व गुणवान शासक थे जिनका दरबार नवरत्नों से सुशोभित था। ये थे-कालीदास, अमरसिंह, वराहमिहीर, धन्वतरी वररूचि, शकु, घटस्कर्पर, क्षपणक व बेताल भट्ट। उनके शासन में ज्योतिष विज्ञान प्रगति के उच्च शिखर पर था। वैधशाला का कार्य वराहमिहीर देखते थे। उज्जैन तत्कालीन ग्रीनवीच थी जहां से प्रथम मध्यान्ह की गणना की जाती थी। सम्राट विक्रमादित्य का प्रभुत्व सारा विश्व मानता था। काल की गणना विक्रमी संवत् से की जाती थी। विक्रमादित्य के वंशजों ने 550 ईस्वी तक मालवा पर शासन किया।

लेखक : Devisingh, Mandawa

क्रमशः………….

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