मृत्यु का पूर्वाभास : क्रांति के अग्रदूत राव गोपालसिंह खरवा के अद्भुत महाप्रयाण की घटना

Gyan Darpan
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मनुष्य को अपनी मृत्यु के पूर्वाभास होने की कई कहानियां आपने भी अपने आस-पास सुनी होगी | मेरा भी ऐसी कई घटनाओं से वास्ता पड़ा है जिसमे मरने वाले ने अपनी मृत्यु के सही सही समय के बारे में अपने परिजनों व उपस्थित लोगों को बता दिया | पर ऐसी घटनाओं को हम यह सोचकर कि मरने वाले के परिजन अपने पारिवारिक सदस्य को महिमामंडित करने में लगे है भरोसा नहीं करते | अभी पिछले सप्ताह ही जब मैंने राजस्थान में स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति के अग्रदूत रावगोपालसिंह खरवा के बारे हिंदी विकी पर जानकारी जोड़ने के लिए इतिहास की किताबे खंगाल रहा था कि अचानक मेरी नजर उनकी मृत्यु के समय उपस्थित उनके डाक्टर द्वारा उनकी मृत्यु की अद्भुत घटना के बारे में लिखे एक लेख पर पड़ी तो सोचा क्यों न स्वातंत्र्य-समर के इस सेनानी के महाप्रयाण की इस अद्भुत घटना से आपको भी रूबरू करवा दिया जाये जिसे प्रत्यक्षदर्शी उनके डाक्टर अंबालाल शर्मा ने खुद लिखी -

डा.आम्बालाल शर्मा के अनुसार-
"
राव गोपालसिंहजी श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे | पिछले आठ वर्ष उन्होंने वीतराग साधू की भांति कभी पुष्कर में तो कभी खरवा के बाहर बने एकांत स्थान में रहकर भगवत स्मरण में बिताये | अपनी जवानी के दिनों में वे उग्र राजनीति को मानने वाले थे | देश की स्वतंत्रता हेतु वे बलशाली ब्रिटिश गवर्नमेंट से भीड़ गए थे | देशहित में बहुत कष्ट उठाये एवं खरवा के राज्य का भी उन्हें त्याग करना पड़ा | अब उनकी मृत्यु की पुण्यमयी कथा सुनाता हूँ-
मृत्यु से लगभग दो मास पूर्व उनके शरीर में उदर विकार के लक्षण प्रकट हुए | मैंने एक्सरे द्वारा परीक्षा कराई एवं निश्चय हुआ कि उनकी आँतों में केंसर रोग है | वेदना इतनी भयंकर थी कि मार्फीन के इंजेक्शन से भी कोई आराम नहीं मिलता था |किन्तु उस भीषण वेदना में भी मन को आश्चर्यजनक रूप से एकाग्र करके श्रीकृष्ण के ध्यान में वे नियमपूर्वक बैठते थे | एवं जितने समय वे ध्यान में रहते थे, वेदना की रेखा उनके ललाट पर जरा भी नहीं रहती थी | इस बुढ़ापे में 66 वर्ष की आयु में दो महीने तक कुछ न खाकर भी उनमे तेज और साहस की कमी नहीं हुई थी |

मृत्यु के चार दिन पूर्व रोग के विष के कारण उन्हें हिचकी और वमन शुरू हो गयी थी | पिछले चार दिनों में तो एक चम्मच पानी भी उनके पेट में न जा सका,किन्तु श्रीकृष्ण का ध्यान तब भी नहीं छुटा | मृत्यु के पहले दिन सांयकाल के समय मैंने उनसे निवेदन किया कि यदि आपको कोई वसीयत करनी हो तो शीघ्र करलें | विष के कारण आप रात्री में मूर्छा की अवस्था में पहुँच जायेंगे | वे कहने लगे -" यह असंभव है कि गोपालसिंह चोदू(कायर) की मौत मर जाये | मौत से भी चार हाथ होंगे | आप देखते जाईये भगवान् कृष्ण क्या क्या करते है |" उसी समय उन्होंने अपने पास रहने वाले भजन गायक बिहारी को कहा कि डाक्टर साहब को भीष्म प्रतिज्ञा वाला वह भजन सुनाओ |
"आज जो हरि ही न शस्त्र गहाऊं, तो लाजौ गंगा जननी को, शांतनु सुत न कहाऊं |"
कैसा दृढ आत्मविश्वास और कैसी गजब की निष्ठा थी उनमे |
मेरे आश्चर्य की सीमा नहीं रही जब दुसरे दिन प्रात:काल पांच बजे मैं उठा | मैंने उन्हें ध्यान में बैठे देखा | ध्यान पूरा होने के पर वे कहने लगे -" डाक्टर साहब ! आज हिचकी बंद है | दस्त भी स्वत: एक महीने बाद आज ही हुई है | मैं बहुत हल्का हूँ |"
मैंने एक डाक्टर की तरह कहा -" ईश्वर करे आप अच्छे हो जाएँ |" वे कहने लगे कि - "नहीं अब शरीर नहीं रहेगा | किन्तु भगवान् के ध्यान में विध्न न हो,इसलिए श्रीकृष्ण ने ये बाधाएं दूर करदी है |"
करीब दस बजे मैंने आकर देखा कि उनकी नाड़ी जा रही है मैंने कहा- " राव साहब ! अब करीब आधा घंटा शेष है |"
राव साहब कहने लगे- " नहीं अभी तो पांच घंटा समय शेष है,घबराएं नहीं |"

सवा दो बजे मैं पहुंचा,नमस्ते किया | उनके सेक्रेटरी पास बैठे गीता पढ़ रहे थे | मुझसे से कहा -" आप गीता सुनाईये |" जब वे गीता सुन रहे थे तो उनका मस्तिष्क कितना स्वच्छ था,उस समय भी वे कहीं कहीं किसी पद का वे अर्थ पूछ लेते थे | ठीक मृत्यु से पांच मिनट पहले वे आसन पर बैठ गए -गंगाजल पान किया,तुलसी पत्र लिया,गंगाजी की रेती(मिटटी) का ललाट पर लेप किया एवं वृन्दावन से मंगवाई रज सर पर रखी हाथ जोड़कर ध्यान करने लगे | सहसा बोल उठे -
" डाक्टर साहब ! अब आप लोग नहीं दिखाई दे रहे है | श्रीकृष्ण दिख रहे है | ये श्रीकृष्ण खड़े है मैं इनके चरणों में लीन हो रहा हूँ | हरि ॐ तत्सत -हरि ॐ - बस एक सैकिंड "-महाप्रस्थान हो गया | हम सब विस्फरित नेत्रों से देखते रह गए |
धन्य आधुनिक भीष्म ! धन्य मृत्युंजय ! धन्य तुम्हारी इस मौत पर दुनिया की बादशाहत कुरबान है |

डाक्टर साहब का उपरोक्त लेख कल्याण के गीता तत्वांक में छपा था पर मैंने इसे ठाकुर सुरजनसिंह जी शेखावत द्वारा लिखित पुस्तक "राव गोपालसिंह खरवा" के पृष्ठ स.९४,९५ से लिया है | राव साहब के महाप्रयाण के समय राजस्थान के महान इतिहासकार श्री सुरजनसिंह जी शेखावत भी वहां प्रत्यक्ष तौर पर उपस्थित थे | उन्ही के शब्दों में - "उनकी मृत्यु योगिराजों के लिए ईर्ष्या का विषय थी | उनकी मृत्यु क्या थी ? भगवत भक्ति का सचेतन इन्द्रियों और मन बुद्धि के साथ बैकुंठ प्रयाण था |"


राव साहब के बारे हिंदी विकी पर जानकारी हेतु यहाँ क्लिक करें |

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12टिप्पणियाँ

  1. भीष्म प्रतिज्ञा वाला भजन, दो महीने का उपवास,
    मैं तो यही कहूंगा कि मौत भी भीष्म की तरह ही आयी

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  2. इस लेख से मुझे भक्ती मार्ग सीखने मे बहुत सहायता हॊगी आपका बहुत बहुत आभार निश्चित ही ऐसी ही भक्ती व्यक्ति को मोक्ष प्रदान कर सकती है ।

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  3. ऐसे महात्मा को हमारा शत शत नमन !

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  4. उस महान हस्ती के दृढ आत्मविश्वास को प्रणाम !

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  5. मैंने बताया था आपको मेरी दादी ठाकर सा के किस्से खूब सुनाती थी.कृष्ण भक्ति की ओर मेरा झुकाव बचपन से शायद ठाकर सा और मीरां बाई के किस्सों को सुन कर ही हुआ. करवा थाकुर्साह्ब सचमुच राजयोगी थे.
    दादी एक किस्सा और सुनाती है.'पनघट पर पानी भरते हुए पनिहारिनो को देर हो गई एक पनिहारिन ने दूसरी को कहा जल्दी कर खरवा ठाकर सा पधार गए तो .............'
    'तो क्या उनको मालूम है मेरे भाई नही है.'फलाँ' दिन मेरी बेटी का ब्याह है, मेरा बीरा मायरा ले के आ जायेंगा' कहते हैं उसी समय ठाकुर साहब का उधर से निकलना हुआ.ये बात उनके कानों में पड गई.पूरा गाँव उस समय स्तब्ध रह गया जब उन्होंने देखा उस गाँव की गरीब महिला के घर मायरा लाने वाला और कोई नही 'खरवा ठाकर सा' थे.
    इसमें कितना सच है ये नही मालूम किन्तु आम लोगों में उनकी छवि एक दयालु,चरित्रवान,स्त्रियों का सम्मान करने वाले इंसान के रूप में थी.उनके बारे में दोनों किस्तों को पढा.बहुत अच्छा लगा.जानती हूँ ये दोनों पोस्ट्स आपने मेरे कहने पर लगाई है.यूँ कहूँ खास मेरे लिए...हा हा हा ये मेरा सौभाग्य है रतन बना !

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  6. रौंगटे खडे करने वाला सच ………… इतनी अनन्य भक्ति हो जाये तो महाप्रयाण तो ऐसा ही होगा ना…………नमन है।

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  7. जो व्यक्ति भगवान की सच्चे मन से भक्ति करता है और समाज हित के कार्य करता है उसकी मृत्यु इसी प्रकार से होती है |

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  8. 'तो क्या उनको मालूम है मेरे भाई नही है.'फलाँ' दिन मेरी बेटी का ब्याह है, मेरा बीरा मायरा ले के आ जायेंगा' कहते हैं उसी समय ठाकुर साहब का उधर से निकलना हुआ.ये बात उनके कानों में पड गई.पूरा गाँव उस समय स्तब्ध रह गया जब उन्होंने देखा उस गाँव की गरीब महिला के घर मायरा लाने वाला और कोई नही 'खरवा ठाकर सा' थे.

    @ इंदु जी आपकी ये बात सौ प्रतिशत सही है राजस्थान का ज्यादातर इतिहास इसी तरह बातों से ही आगे चला है काश ये बाते या कहानियां पुस्तकों में दर्ज हो जाती | शेखावाटी के क्रांतिवीर बलजी-भूरजी ने भी ऐसे बहुत भात भरे है वे भी भात (मायरे) को धार्मिक कार्य समझते थे ,उन्हें भी पता चल जाता कि ब्याह वाले घर की औरत के भाई नहीं है तो वे भाई बनकर भात भरने पहुँच जाते थे |

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  9. मन की द्वारा जीत लिया गया तन का व्यवधान।

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  10. आज इस बात की पुष्टि हो जाने पर मैं कितनी खुश और भावुक हो उठी हूँ आप अनुमान नही लगा सकते.मेरे मन मस्तिष्क पर इन बातों ने बचपन से गहरा असर डाला.रिश्तों को कितनी महत्ता दी जाती थी उस समय में 'भाई' कह देने भर से वे लोग भाई का धर्म निभा लेते थे.आश्चर्य...सुखद आश्चर्य ! मैं एक बेहद मामूली औरत हूँ.कोई विशेषता नही किन्तु मेरी नीव 'इन बातों ...ऐसी घटनाओं ने ही बनाई और आज संतुष्ट हूँ अपने जीवन से.जीवन के इस मोड पर आकर मेरे बचपन की सुनी बातों की पुष्टि होगी मुझे यकीन नही होता.बहुत खुश हूँ की...मैंने कंप्यूटर सीखा.ब्लॉग और बज़ की दुनिया में आई.नही तो बचपन में सुनी कहानियों को कहानियां मान कर ही चली जाती. थेंक्स बना!
    बना का अर्थ जानते हो? राजस्थान से होंगे तो जरूर जानते होंगे. जियो बना ! समय मिले तो मेरे ब्लॉग पर 'काकिसा' को पढ़ना.

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  11. @ इंदु जी
    इस तरह की कहानियां राजपूत शासकों के मानवीय व्यक्तित्व का आईना है , ठाकुर बलजी-भूरजी जो अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत कर बैठे थे वे भी अंग्रेज समर्थित बनियों को लुटते थे और धन गरीबों में बाँट देते थे उन्होंने भी कई गरीब कन्याओं का विवाह किया ,कई मायरे भरे ,उन्हें पता चल जाता कि फलां औरत के भाई नहीं है वे नियत समय पर मायरा लेकर पहुँचते |
    उन्हें आज भी लोग डाकू समझते है उस वक्त भी वे दुर्दांत डाकुओं के रूप में जाने जाते थे पर उनका मानवीय चेहरा अलग था |
    नवलगढ़ के ठाकुर नवलसिंह जी ने भी ऐसे ही रास्ते चलते जो टेक्स का पैसा मुग़ल खजाने में जमा करना था का मायरा भर दिया बाद में उन्हें मुग़ल सेना से इसी बात पर युद्ध करना पड़ा |
    फिर भी आजादी के बाद कांग्रेस के दुष्प्रचार के चलते राजपूत शासकों को लोग शोषणकर्ता मान बैठे यही दुःख और विडम्बना है |

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