पृथ्वीराज काल : दिल्ली की स्थिति

Gyan Darpan
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History of Delhi in Hindi
सम्राट पृथ्वीराज चौहान कालीन दिल्ली की स्थिति के इतिहास पर प्रकाश डाल रहे है सिंह गर्जना पत्रिका के संपादक श्री सचिन सिंह गौड़

यूँ तो इतिहासकारों की नजर में पृथ्वीराज चौहान के समय की अधिकांश बातें ही विवादास्पद हैं। उनमें से ही एक है दिल्ली की स्थिति। इसे लेकर कई मत प्रचलित है, जिनमें प्रमुख है चौहानों का दिल्ली पर शासन था। अधिकांश इतिहासकारों ने पृथ्वीराज चौहान को अन्तिम दिल्ली सम्राट, दिल्लीपति आदि आदि घोषित किया है। दिल्ली की स्थिति को लेकर हमें इतिहासकारों के तीन मत मिलते हैं।

1. विग्रहराज चतुर्थ ने हांसी (हरियाणा-दिल्ली) को तोमरों से जीत लिया था और उन्हें अपना सामंत बना लिया था।
2. तोमर दिल्ली के स्वतंत्र शासक थे। इस बात को सर्वप्रथम हरिहरनिवास द्विवेदी ने लिखा था, बाद में डा. महेंद्र सिंह ‘खेतासर’ ने भी इस बात को बल देने का प्रयास किया है।
3. दिल्ली के तोमर कन्नोज के गहड़वालों के सामंत थे, जिन्हें चौहानों ने ना केवल हराया बल्कि अपना सामंत बना लिया। इस बात को मानने वाले इतिहासकार चौहानों और गहड़वालों के बीच संघर्ष या शत्रुता का प्रमुख कारण भी इसी बात को ही मानते हैं। इनमें आर.सी. त्रिपाठी और प्रशांत कश्यप प्रमुख हैं।

आइये हम तीनों मतों का तर्कसंगत विश्लेषण करते हैं। अधिकांश इतिहासकार प्रथम मत से ही सहमत प्रतीत होते हैं और मानते हैं कि विग्रहराज (विसलदेव) चतुर्थ ने तंवरों पर आक्रमण किया और उन्हें पराजित कर दिल्ली को जीत लिया। ये लगभग ऐतिहासिक तौर पर प्रमाणित है और एक सर्वविदित सत्य है कि हरियाणा पर तंवर राजपूतों का अधिकार था, जिनकी राजधानी दिल्ली, ढिल्ली या ढिल्लीका थी। ये भी लगभग सत्यापित होता है कि दिल्ली को लेकर चौहान-तोमरों के संघर्ष प्राचीन समय से चले आ रहे थे, लेकिन सार्वभोम सत्ता प्रतिहारों के कारण उनमें मेल मिलाप बना रहता था। लेकिन राष्ट्रकूटांे के शक्तिशाली आक्रमणों से जब प्रतिहार जर्जर हो गए तब सार्वभोम सत्ता के आभाव में चौहान तोमर संघर्ष उच्च्श्रन्ख्ल हो गये।

दशरथ शर्मा अपनी पुस्तक “चौहान सम्राट पृथ्वीराज तृतीय और उनका युग” (पृष्ठ संख्या 15) में लिखते हैं, “उत्तर की और तंवर राजपूत इनके पड़ौसी थे। उनसे इनका कुछ ना कुछ झगड़ा होता ही रहा। किन्तु चन्दनराज चौहान के समय इनका पारस्परिक संघर्ष और जोर पकड़ गया। तंवर राजा रुद्रेण युद्ध में मारा गया। किन्तु संघर्ष की समाप्ति ना हुयी। अब तक पड़ौसियों में मेलमिलाप करवाने का कार्य सार्वभोम सत्ता करती थी। पर अब प्रतिहार राज्य कमजोर पड़ता जा रहा था। राष्ट्रकूटों के आक्रमणों ने उनकी शक्ति क्षीण कर दी थी।“

ऐसा प्रतीत होता है कि महत्वाकांक्षी चौहान शासक इस क्षेत्र को अपने राज्य में मिलाने के लिये सदैव उत्सुक रहते थे और अधिकांश संघर्ष चौहानों की उच्च महत्वाकांक्षा के कारण हुये। विग्रहराज चतुर्थ से पूर्व उनके पिता अर्नोराज के भी तोमरों से संघर्ष की गाथायें मिलती हैं। जिन्हें अनेक इतिहासकारों ने स्वीकार किया है।

दशरथ शर्मा (पृष्ठ संख्या 20) में लिखते हैं “हरितानक हरियाणे का नाम है। उस पर अर्नोराज के बारे में त्रुटित प्रशस्त से तो केवल इतना ज्ञात होता है कि हरितानक की स्त्रियों के आंसू यमुना नदी में जा मिले थे- जमुना जो उसके सैनिकों के प्रयाण से रजस्वला (गंदली) हो चुकी थी। हरियाणे पर तंवर राजपूतों का राज्य था। इसलिए यही संभव है कि अपने उत्तरी प्रयाण के समय अर्नोराज ने तंवर राजा अनंगपाल पर आक्रमण किया हो। ढिल्ली या दिल्ली उसकी राजधानी थी।“
डॉ. पारसनाथ सिंह भी अपनी पुस्तक “चौहानों की उत्पत्ति और पृथ्वीराज से पूर्व का इतिहास (पृष्ठ संख्या 67) में लिखते हैं “खंडित प्रशस्ति के अनुसार अर्नोराज के सैनिकों ने कालिंदी के जल को कीचड़ से भर दिया तथा हरितानक देश की स्त्रियों के नेत्र अश्रुपूर्ण हो गए, इस प्रदेश पर चौहानों के अधिपत्य से पूर्व तंवर राजपूतों का राज्य था। अतः स्पष्ट है कि अपने अभियान के दौरान अर्नोराज ने दिल्ली के तोमरों से भी संघर्ष किया था। ऐसा प्रतीत होता है कि इस संघर्ष में तोमरों को अत्याधिक हानि नहीं उठानी पड़ी और वे पूर्णरूपेण समाप्त नहीं हो सके, क्यूंकि यह संघर्ष विग्रहराज चतुर्थ के काल में भी चला था।”

अपनी बात को बल देने के लिए डॉ. सिंह भंडारकर की इंस्क्रिप्शंस ऑफ नॉरदन इण्डिया तथा वाष्प-वारिणीकालिनिदी हरितानक दृयोशिताप्र के सन्दर्भ देते हैं।
गोविन्द प्रसाद उपध्याय के अनुसार, “अजयराज का उत्तराधिकारी अर्नोराज (लगभग 1133 ई.) एक महत्वपूर्ण शासक हुआ। उसने अजमेर के निकट सुल्तान महमूद की सेना को पराजित किया। उसने बुंदेलखंड, दिल्ली और पंजाब के कुछ हिस्से जीत लिए।”
उपाध्याय की बात से स्पष्ट है कि अर्नोराज ने दिल्ली पर आक्रमण किया और कुछ भाग अपने प्रभाव में ले लिया था (यहाँ एक बात और हमें पता चलती है कि चौहान सत्ता पहले से ही बुंदेलखंड पर भी अपना प्रभाव जमाना चाहती थी और वहां आक्रमण करते रहते थे)।

डॉ. विंध्यराज चौहान अपनी पुस्तक दिल्लीपति पृथ्वीराज चौहान एव उनका युग (पृष्ठ 52-53) में लिखते हैं चौहान प्रशस्ति (पंक्ति 14) से सिन्धु सरस्वती तथा 17 वीं पंक्ति से हरितानक अभियान तथा बिजोलिया शिलालेख (श्लोक 17) से कुश (कन्नोज) और वारण (बुलंदशहर) पर की गयी सैनिक अभियानों की चर्चा है। अर्नोराज का यह दिग्विजय अभियान था। तुर्क बहराम शाह का गर्वगंजन करने के बाद इन्होंने अवन्ती का अधिकांश भाग पर अपना नियंत्रण स्थापित किया। तदन्तर इनकी सेनायें उत्तर की और प्रयाण करती पीलू (बीकानेर डिविजन) होती हुयी आगे बढीं। ऐसा ज्ञात होता है कि ये अभियान गजनवी शासकों के विरुद्ध ही था।“

लेखक के अनुसार अर्नोराज की सेनायें यहाँ विकामपुर से और भी सतलुज नदी तट पर स्थित उच्छ तक पहंुच गयी थीं। सिन्धु दोआब से यह सेना पूर्वी दिशा से मुड़कर सरस्वती नदी के प्रवाह पथ पकड़ कर भटनेर के बाद तोमरों के राज्य हरितानक में प्रवेश किया गया होगा।
“हरितानक प्रदेश पर आक्रमण का समाचार सुन कर वहां की स्त्रियाँ रोने लगीं। इस विवरण से यह आभास प्राप्त होता है कि उस समय अर्नोराज की सैनिक श्रेष्ठता की धाक चारों और प्रसिद्धि प्राप्त कर चुकी थी। उस समय हरितानक प्रदेश की राजधानी थी धिल्लिका, जो यमुना नदी के किनारे बसी हुयी थी।
दिल्ली के तंवरों (तोमरों) को पराजित करके जब गंगा घाटी स्थित कुश्वरण पर आक्रमण किया होगा तब उन सेनाओं को यमुना पार करना पड़ा होगा, तब यमुना उस प्रयाण से रजस्वला (गंदली) हो गयी थी।” (पृष्ठ संख्या 53-54)।

“लेकिन हरितानक वारण पर अर्णोंराज द्वारा किये गये सैनिक अभियान का कोई राजनैतिक लाभ सपालदक्ष साम्राज्य को प्राप्त होता दिखाई नहीं देता, क्यूंकि हम फिर उन्हीं शक्तियों से लड़ते हुये विग्रहराज चतुर्थ और उसके बाद पृथ्वीराज को पाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि वह सैनिक अभियान कोई भौतिक सम्पदा प्राप्त करने के लिए नहीं, अपनी प्रभुता मनवाने के लिये था। “दिल्लीपति पृथ्वीराज चौहान एव उनका युग (पृष्ठ 54)

इन तथ्यों से स्पष्ट हो जाता है कि अर्नोराज ने हांसी और दिल्ली पर आक्रमण किये लेकिन वह आंशिक रूप से ही सफल रहा। लेकिन अनेक इतिहासकार इसे मानते हैं कि विग्रहराज चतुर्थ ने हांसी को पूर्णरूपेण विजित किया।
गोविन्द प्रसाद उपाध्याय भी लिखते हैं “विग्रहराज चतुर्थ (लगभग 1153-63) असाधारण क्षमता का कुशल शासक था। उसने गुजरात के कुमारपाल को हराकर अपने पिता का बदला लिया। इस शक्तिशाली शासक ने दिल्ली पर पुनः अधिकार करके हांसी को भी जीत लिया। तुर्कों के विरुद्ध भी उसने अनेक युद्ध किये और उन्हें आगे बढ़ने से रोकने में समर्थ रहा। उसके साम्राज्य में पंजाब, राजपुताना तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश (आधुनिक) के अधिकांश भाग शामिल थे। उसने अपनी योग्यता एवं कार्यकुशलता से चौहानों को उत्तरी भारत की महत्वपूर्ण शक्तियों में स्थापित कर दिया था। पंडित विश्वेश्वरनाथ अपनी पुस्तक “भारत के प्राचीन राजवंश” (पृष्ठ संख्या 146-47) में विग्रहराज (विसलदेव) चतुर्थ के बारे में लिखते हैं। “यह अर्नोंराज का पुत्र और जगदेव का छोटा भाई था तथा अपने बड़े भाई के जीते जी उससे राज्य छीनकर गद्दी पर बैठा। यह बड़ा प्रतापी, वीर और विद्वान राजा था। बिजोलिया के लेख से ज्ञात होता है कि इसने नाडोल और पाली को नष्ट किया तथा जालोर और दिल्ली पर विजय प्राप्त की।

देहली की प्रसिद्द फिरोजशाह की लाट पर वि.स. 1220 (1163 ईस्वी) वैशाख शुक्ल 15 का इसका लेख खुदा है। उसमंे लिखा है कि-“इसने तीर्थयात्रा के प्रसंग से विंध्यांचल से हिमालय तक के देशों को विजयकर उनसे कर वसूल किया और आर्यावर्त से मुसलमानों को भागकर एक बार फिर भारत को आर्यभूमि बना दिया। इसने मुसलमानों को तकपर निकाल देने की अपने उत्तराधिकारियों को वसीयत की थी।” यह लेख पूर्वोक्त फिरोजशाह की लाट पर अशोक की धर्मआज्ञा के नीचे खुदा हुआ है।“

मुँहनोत नेणसी री ख्यात के अनुसार भी विग्रहराज चतुर्थ ने दिल्ली को जीता था। “विसलदेव चौथा, चौहानों में यह बड़ा प्रतापी पर विद्वान हुआ। सं. 1208 वि. में तंवरों की दिल्ली का राज लिया और मुसलमानों से कई लड़ाईयां लड़ कर उन्हें देश से निकाल दिया। दिल्ली की लाट पर इसका एक लेख सं. 1220 वि. वैशाख सुदी 15 का है।“
दशरथ शर्मा के अनुसार “जिस संघर्ष का प्रारंभ चंदराज के समय हुआ था, उसकी समाप्ति विग्रहराज के समय हुयी। उसने हांसी और दिल्ली को अपने साम्राज्य में किया किन्तु सामान्यतः राजकार्य तंवरों के हाथ में ही रहने दिया।

रायबहादुर महामहोपाध्याय डॉ. गोरीशंकर हीराचंद ओझा ने विग्रहराज चतुर्थ द्वारा दिल्ली जीतने का संवत भी 1208 (सन 1151 ई.) निर्धारत किया है। कुल मिलाकर सभी प्रमुख इतिहासकार इस बात पर एक मत हैं कि चौहान तंवर संघर्ष काफी पुराना था, जिसे अंततः चौहान विग्रहराज चतुर्थ ने तंवरों को हराकर समाप्त किया।
(अगले लेख में अन्य दोनों मतों की पड़ताल)


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7टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (15-04-2016) को ''सृष्टि-क्रम'' (चर्चा अंक-2313) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन बिन पानी सब सून - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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  3. पृथ्वी राज चौहान के काल के समय की दिल्ली की पड़ताल करने का बहुत ही सार्थक प्रयास किया है आपने। आपका यह लेख बहुत ही अच्छा है। अपने ब्लाग पर पेज व्यूज और विजिटर बढ़ाएं कैसे...। यह आपको खुद ही प्रयास करने होंगें।

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  4. शानदार लेख हुकुम
    अगले भाग की प्रतीक्षा रहेगी

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  5. शानदार लेख हुकुम
    अगले भाग की प्रतीक्षा रहेगी

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  6. इतिहास को कई जगह तोड़ मरोड़कर लिखा गया है। आपका प्रयास अच्छा है। और खोज करें। सत्य निकलकर आएगा।

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