राणा संग्रामसिंह (साँगा)

Gyan Darpan
2
[ads-post]
Rana Sangram Singh, Rana Sanga of Mewar, Rana Sanga History in hindi

देख खानवा यहाँ चढ़ी थी राजपूत की त्यौरियाँ ।
मतवालों की शमसीरों से निकली थी चिनगारियाँ ।


राणा संग्रामसिंह इतिहास में राणा साँगा के नाम से प्रसिद्ध है। राणा साँगा राणा कुम्भा का पोत्र व राणा रायमल का पुत्र था। इनका जन्म वि.सं. १५३९ वैशाख बदी नवमी (ई.स. १४८२ अप्रेल २२) को हुआ था। मेवाड़ के ही नहीं, सम्पूर्ण भारत के इतिहास में राणा साँगा का विशिष्ट स्थान है। इसके राज्यकाल में मेवाड़ अपने गौरव और वैभव के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचा। कुंवर पदे में इनका अपने बड़े भाई पृथ्वीराज (उड़णा राजकुमार) से विवाद हो गया था। उसी विवाद में इनकी एक आँख फूट गई थी, इस आपसी झगड़े के समय विश्वस्त सरदारों ने राणा साँगा को बचा लिया। प्रारम्भिक काल में (अपने पिता के समय) काफी दिनों तक अज्ञात वास में रहे। अपने दोनों बड़े भाइयों की कुंवर पदे ही मृत्यु होने के बाद वह मेवाड़ में पिता के पास आए। पिता की मृत्यु के पश्चात् वि.सं. १५६६ ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी (ई.स. १५०९) को राज्यभिषेक हुआ।

राणा साँगा मेवाड़ के राणाओं में सबसे अधिक प्रतापी था। उस समय का सबसे प्रबल क्षत्रिय राजा था, जिसकी सेवा में अनेक अन्य राजा रहते थे और कई राजा, सरदार तथा मुसलमान अमीर, शहजादे आदि उसकी शरण लेते थे उस समय दिल्ली में लोदी वंश का सुलतान सिकन्दर लोदी, गुजरात में महमूदशाह (बेगड़ा) और मालवा में नासिरशाह खिलजी का राज्य था। राणा साँगा ने अपने बाहुबल पर विशाल साम्राज्य स्थापित किया। ग्वालियर, अजमेर, चन्देरी, बूंदी, गागरौन, रामपुरा और आबू के राजा उनके सामन्त थे। इसके अलावा राजपूताने के और भी राजा, राणा साँगा की सहायता के लिए हमेशा तैयार रहते थे। राणा साँगा का पूरा जीवन, बचपन से लेकर मृत्युपर्यन्त युद्धों में बीता। गुजरात के सुलतान ने इंडर के स्वामी रायमल राठौड़ को हटाकर ईडर पर कब्जा कर लिया। राणा साँगा रायमल की सहायता के लिए गया। सुलतान निजामुल्मुल्क को युद्ध में हराया। ईडर पर रायमल का अधिकार करवा दिया। सुल्तान ईडर से भागकर अहमदनगर चला गया। मुसलमानों ने किले के दरवाजे बन्द कर लिए। सीसोदिया सेना ने दुर्ग को घेर लिया हाथी की टक्कर दिलाकर दुर्ग के कपाट तोड़ दिए गए। दोनों सेनाओं में भीषण संग्राम हुआ। मुस्लिम सेना की हार हुई, सुलतान पीछे के दरवाजे से निकलकर भाग गया | दिल्ली के सुलतान इब्राहिम लोदी ने वि.सं. १५७४ में (ई.स. १५१७) मेवाड़ पर चढ़ाई की। सुलतान विशाल सेना लेकर खातोली (हाड़ौती क्षेत्र) नामक स्थान पर आया। यहाँ दोनों सेनाओं का मुकाबला हुआ। सुलतान इब्राहिम लोदी की पराजय हुई। सुलतान अपनी सेना सहित भाग निकला और उसका एक शहजादा कैद हुआ, जिसे कुछ समय बाद राणा ने दण्ड लेकर छोड़ दिया।


माण्डू के सुल्तान महमूद ने वि.सं. १५७६ (ई. स. १५१९) में गागरौन पर चढ़ाई की, इस युद्ध में राणा साँगा अपनी सेना के साथ गागरौन के राजा की सहायता हेतु आया। दोनों सेनाओं में भीषण युद्ध हुआ। इस युद्ध में मुस्लिम सेना पराजित हुई। सुल्तान स्वयं घायल हो गया, राणा ने उसे अपने तम्बू में पहुँचवाया और उसके घावों का इलाज करवाया। उसे चित्तौड़ में तीन महीने कैद रखा और फौज खर्च लेकर उसे क्षमा कर दिया। सुल्तान ने अधीनता चिह्न स्वरूप राणा को रत्नजड़ित मुकुट तथा सोने की रत्न जड़ित कमर पेटी भेंट की। राणा साँगा ने दिल्ली, गुजरात के मुहम्मद बेगड़ा और मालवा के नासीरुद्दीन की सम्मिलित सेना से युद्ध किया, फिर भी जीत राणा की हुई।

बाबर ने पानीपत के मैदान में दिल्ली के लोदी सुल्तान को परास्त करके दिल्ली पर मुगल सल्तनत की स्थापना कर ली थी। उसके पड़ोस में मेवाड़ एक शक्तिशाली साम्राज्य था अतः दोनों के मध्य युद्ध होना आवश्यक हो गया। दोनों सेनाएँ खानवा (फतेहपुर सीकरी) स्थान पर युद्ध के लिए रवाना हुई। राणा साँगा की राज्य सीमा बयाना तक थी। बाबर ने बयाना पर आक्रमण कर, उसे अपने अधिकार में कर लिया। राणा अपनी सेना लेकर बयाना की तरफ बढ़ा, बयाना पर आसानी से कब्जा कर लिया। दोनों के मध्य कई छोटी-मोटी लड़ाइयाँ हुई, जिनमें राणा साँगा की विजय हुई। बाबर की बराबर हार हो रही थी, वह बड़ा निराश था। उसने निर्णायक युद्ध के लिए फतेहपुर सीकरी के पास खानवा नामक स्थान पर अपनी सेना का पड़ाव डाला। राणा साँगा की सेना में राजपूताने के सभी राजा अपनी-अपनी सेनाओं के साथ सम्मिलित थे। राणा साँगा के साथ महमूद लोदी (इब्राहिम लोदी का पुत्र), राव गाँगा जोधपुर, पृथ्वीराज कछावा आमेर, भारमल ईंडर, वीरमदेव मेड़तिया, रावळ उदयसिंह डूंगरपुर, नरबद हाड़ा बूंदी, मेदनीराय चन्देरी, रावत बाघसिंह देवळिया, कुं, कल्याणमल बीकानेर, (राव जैतसी का पुत्र) हसन खाँ मेवाती अपनी-अपनी सेनाओं के साथ थे।

वि.सं. १५८४ चैत्र सुदि ११ (ई.स. १५२७ मार्च) को दोनों सेनाएँ आमनेसामने हुई। प्रारम्भिक लड़ाइयों में बाबर की पराजय हुई। मुस्लिम सेना में घोर निराशा फैल गई। बाबर ने अपनी सेना में जोश लाने के लिए एक जोशीला भाषण दिया। अपनी सेना की रणनीति बनाई। बाबर के पास बड़ी-बड़ी तोपें थी, उनकी मोचबिन्दी की। वि.सं. १५८४ चैत्र सुदि १४ को (ई.स. १५२७ मार्च १७) दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ। बाबर ने तोपखाने का प्रयोग किया। इससे पहले भारत में तोपों का प्रयोग नहीं होता था। तोपों से बहुत से राजपूत मारे गए, लेकिन उनके उत्साह में कोई कमी नहीं आई। मुगल सेना का पलड़ा हल्का था, वे हार रहे थे। मुगल सेना भी पूरे जोश से युद्ध कर रही थी। इतने में एक तीर राणा साँगा के सिर में लगा, जिससे वे मुर्छित हो गए और कुछ सरदार उन्हें पालकी में बैठा कर युद्ध क्षेत्र के बाहर सुरक्षित जगह पर ले गए। राणा के हटते ही झाला अञ्जा ने राजचिह्न धारण करके राणा साँगा के हाथी पर सवार होकर युद्ध का संचालन किया । झाला अज्रा की अध्यक्षता में सेना लड़ने लगी। लेकिन राणा साँगा की अनुपस्थिति में सेना में निराशा छा गई। राजपूत पक्ष अब भी मजबूत था। तोपखाने ने भयंकर तबाही मचाई, इसी समय बाबर के सुरक्षित दस्ते ने पूरे जोश के साथ में पराजय हुई। राणा साँगा को बसवा नामक स्थान पर लाया गया।
जब उसे होश आया तो वह दुबारा युद्ध करना चाहता था। बसवा से राणा साँगा रणथम्भौर चला गया। वह बाबर से दुबारा युद्ध करना चाहता था। इसी बीच किसी सरदार ने उन्हें विष दे दिया जिससे राणा साँगा का ४६ वर्ष की आयु में स्वर्गवास हो गया। राणा साँगा का माघ सुदि नवमी वि.सं. १५८४ (ई.स. १५२८ जनवरी ३०) को कालपी के पास एरिच में स्वर्गवास हुआ और माण्डलगढ़ में दाह संस्कार हुआ (अमर काव्य)। वीर विनोद में बसवा स्थान बताया गया है। बसवा में एक प्राचीन चबूतरा बना हुआ है। यहाँ के लोगों की मान्यता है कि यह चबूतरा राणा साँगा का स्मारक है। मेवाड़ वाले भी इसे ही राणा साँगा का स्मारक मानते हैं। अमर काव्य राणा साँगा की मृत्यु के लगभग सौ वर्ष बाद की रचना है। अत: यही सम्भव है कि राणा साँगा का दाह संस्कार बसवा में ही हुआ होगा। इस पराजय से राजपूतों का वह प्रताप, जो राणा कुम्भा के समय में बहुत बढ़ा और इस समय अपने शिखर पर पहुँच चुका था, वह एकदम कम हो गया। इस युद्ध में राजस्थान के सभी राजपरिवारों के कोई-न-कोई प्रसिद्ध व्यक्ति काम आए। भारत पर मुगल सत्ता स्थापित हो गई, राजपूतों की एकता टूट गई। राजस्थान की सदियों पुरानी स्वतन्त्रता तथा उसकी प्राचीन संस्कृति को सफलतापूर्वक अक्षुण्ण बनाए रखने वाला अब कोई भी नहीं रहा।

‘‘राणा साँगा के साथ ही साथ भारत के राजनीतिक रंगमंच पर हिन्दू साम्राज्य का अन्तिम दृश्य भी पूर्ण हो गया।’ इतिहास उसे भारतीय अन्तिम हिन्दू
सम्राट के रूप में स्मरण करता है।

बाबर तेरे प्याले टूटे बता कितने ?
पर सरहद्दी का अफसोस लिए फिरते हैं।


सरहदी :- सरहदी तेंवर राणा साँगा का दामाद था। कई इतिहासकारों ने उल्लेख किया है कि ऐन लड़ाई के वक्त तेंवर सरहदी, जो राणा साँगा के हरावल में था, राजपूतों को धोखा देकर अपने सारे सैन्य सहित बाबर से जा मिला। यह तथ्य गलत है। खानवा युद्ध से पहले बाबर की सेनाएँ लगातार हार रही थी अतः बाबर ने राणा साँगा के पास सन्धि का प्रस्ताव भेजा, जिसे राणा साँगा ने स्वीकार कर लिया था। राणा साँगा ने सरहदी को सन्धि की शर्ते लिखकर दी। बाबर ने उन सारी शतों को स्वीकार कर लिया क्योंकि युद्ध में राजपूतों का पलड़ा भारी चल रहा था |
खानवा युद्ध से पहले युद्ध में राजपूतों का पलड़ा भारी था अतः राणा साँगा ने सन्धि करने से इन्कार कर दिया। इससे सरहदी की स्थिति असमंजसपूर्ण हो। गई। उसने राणा साँगा को समझाने के बहुत प्रयत्न किए लेकिन साँगा ने सन्धि स्वीकार नहीं की। इस घटनाक्रम से सरहदी ने अपने आप को अपमानित अनुभव किया तथा वह अपनी सेना के साथ वापस अपने प्रदेश में चला गया।


लेखक : छाजू सिंह, बड़नगर
सन्दर्भ झंकार के

एक टिप्पणी भेजें

2टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें