राव जाति के कुछ डिंगल गीतकार
राजस्थान में गीत संज्ञक रचनाओं से दो प्रकार के गीत साहित्य का बोध होता है। प्रथम प्रकार के लोक गीत और दूसरी प्रकार के डिंगल गीत कहलाते हैं। लोक गीतों में विवाह, जन्मोत्सव, पर्व और त्यौंहारों पर गाये जाने वाले स्त्रीसमाज के गीत एवं रात्रि जागरण तथा होलिकोत्सव पर चंग, डफ और तानपूरे आदि पर गाये जाने वाले पुरुष समाज के गीत सम्मिलित हैं। कुछ गीत प्रवन्ध-श्रेणी के लम्बे गीत होते हैं, जिन्हें प्रवाड़ों की कोटि में रखा जा सकता है। ऐसे गीतों में "बड़गावत भारत" "निहालदे सुल्तान" और डूंगजी जवाहरजी शेखावत के गीत लोकप्रसिद्ध हैं। इस प्रकार के गीतों में वाद्य के साथ में नृत्य और अभिनय देखा जाता है। ये गीत गेय गीत कहलाते हैं। दूसरी कोटि के गीतों में डिंगल गीतों की गणना की जाती है। डिंगल छन्द शास्त्रों के अनुसार रचित साहित्यिक गीत हैं। ये राजस्थान के अपने काव्य प्रकार की रचनाएं हैं। ऐसे गीत पाठ्य गीत कहलाते हैं। पाठ्य गीतों के पढ़ने की भी अपनी एक विशेष प्रणाली है।
डिंगल गीतों के आदि रचयिता चारण कवि हैं। चारण जाति की एक सौ बीस शाखाएं हैं और एक सौ बीस प्रकार के ही डिंगल गीत प्राप्त होते हैं। चारणों के अतिरिक्त, राव, राजपूत, सेवक, भोजक, मोतीसर आदि जातियों के डिंगल गीतकार भी हुए हैं। राव जाति का अधिक साहित्य पिंगल में रचा गया है, पर डिंगल में रचे गए गीत और अन्य छन्द भी उच्च कोटि के हैं।
राव जाति विशेषकर कवि जाति है। इस जाति को राज दरबारों में, कवि, परामर्शदाता, गुरु श्रौर योद्धा के रूप में सम्मान मिलता रहा है। यह जाति रहन-सहन, सामाजिक रीति-रिवाज, खान-पान आदि में पूर्णतया राजपूती परम्पराम्रों तथा संस्कृति की पालनकर्त्ता जाति है। राजपूत समाज की तरह पर्दा का पालन करती है और राजपूतों को ही अपना एक मात्र स्वामी मानती है। राजस्थान के पूर्वकालीन इतिहास में संधि-विग्रह, बात-चातुर्य और युद्ध एवं मन्त्रणादि कार्यों में इस जाति के योगदान का वर्णन पाया जाता है।
अग्रांकित पंक्तियों में राव जाति के कुछ अज्ञात कवियों के डिंगल गीतों की बानगी एवं जानकारी दी जा रही है।
बाघजी लाखणोत
प्रस्तुत गीतकार राव जाति के कवियों में सब से प्राचीन गीत राव बाघजी का प्राप्त हुआ है। राजस्थान में बाघजी नाम के दो राव कवि हुए हैं। एक सोलहवीं शताब्दि और दूसरे उन्नीसवीं शताब्दि में महाराज तख्तसिंहजी जोधपुर के समय में हुए हैं। प्राप्त गीत पहले बाघजी का है। गीत कछवाहों की खंगारोत शाखा के मूल पुरुष खंगारजी और महाराणा प्रतापसिंहजी के विक्रमाब्द १६३३ के हल्दीघाटी के प्रसिद्ध युद्ध के मुकाबले का गीत है। इससे बाघजी का समय १६३३ वि० के आसपास ठहरता है। यद्यपि कवि का एक ही गीत मिला है, पर गीत की भाषा से कवि की प्रतिभा और प्रौढ़ता का भान होता है। गीत निम्न है -
गीत खंगारजी मैं बाघाजी कहै
कलहणि करिथिाट कलल ऊकलतै, सोहौड़ सिखर पाव सजिसार। वोवड़ि राण प्रताप ऊपरा, खीमियो खांडाधार खंगार ।। १ ऊत्तर अकल अचल घण उरड, हूँकल कल बीजूजल हाम। माथै लोह निहसि मेवाड़ै, बूठौ जगड़ तणौ बीरयाम ।। २ किरमर सैन कूंत कलपूरा, मेह छेह अरि ऊर सिरमौर। कलहणि रहवि किया नछबा है, खल डल पल चीखल खमणौर ।। ३ २
राव लक्ष्मीचन्दजी
कवि लक्ष्मीचन्दजी के निवास एवं जातीय उपटंक आदि का परिचय प्रज्ञात है। इनके महाराणा जगतसिंह प्रथम मेवाड़ और महाराणा गजसिंह राठौड़ जोधपुर पर एक गीत मिला है। गीत के आधार पर कवि का समय इन उल्लिखित नरेशों का जीवन-काल अनुमानित है। महाराणा जगतसिंह के गीत में उनकी वदान्यता और महाराजा गजसिंहजी के गीत में उनके खड्ग-प्रातंक का वर्णन किया है। गीत प्रस्तुत है हैकृ
गीत राजा गजसिंह को लक्ष्मीचन्दजी को कह्यौ
चहुवै दिशा चढ़े चकचौलै, हिलौहल सातौ हिलौलै । तु खग आज किणी सिर तौलै, अदपति तके ताहरा ओलै ।। १
पूरब पछिम लीय दध पारू, सह कोई ऊतराद सवारू । दषिण तो छूटो बलदारू, मछर करै किण ऊपरि मारू ।। २
षंड देवड़ा भरै डंड षंधी सगपण करि भाटी सनमधी । सारो मिले तुझ सो सधी, बल बंदै किण सिर गज बंधी ।। ३ बाजै बाजै बले की छतीसों बाजा, सूरतणों सूरत विच साजा । पूगो जस समदां लग पाजा, रोस धरै किण ऊपरि राजा ।। ४
राव महेशदासजी
राव जाति के प्रस्तुत कवियों में सबसे अधिक और महत्वपूर्ण रचनाएं महेशदासजी की हैं। महेशदासजी अजमेर क्षेत्र के राजगढ़ ठिकाने के गौड़ क्षत्रियों के आश्रित कवि थे। इनकी रचनाओं में डिंगल गीतों के अतिरिक्त विनय रासौ, राव अमरसिंह नागौर का साका, महाराणा राजसिंहजी का गुण रूपक, राव रायसिंह राठौड़ की जन्म पत्री, महाराजा जयसिंहजी कछवाहा प्रथम आमेर के कवित्त, गौड़ों की वंशावली और राम चरित, नवरस वेली काव्य ग्रन्थ प्राप्त हुए हैं। रचना विधान और ऐतिहासिक दृष्टि से भी रचनाएं अनूठी और उपयोगी हैं। प्राप्त ग्रंथों की घटनावलियों और ग्रन्थ नायकों के आधार पर कवि का समय विक्रमाब्द १६८० के समीप स्थिर होता है। डिंगल गीतों में कवि ने गौड़ों की युद्ध सेवाओं पर प्रकाश डाला है। बादशाह शाहजहां के शासन काल में गौड़ शक्तिशाली सैनिक शक्ति के रूप में प्रकट हुए और शाहजहां के पतन काल में ही समाप्त हो गए। शाहजहां के विश्वस्त योद्धाओं में राजा गोपालदास गौड़, राजा शिवराम गौड़, राजा विट्ठलदास गौड़, बलराम गौड़, अर्जुन गौड़ और राजा अनिरुद्धसिंह गौड़ आदि के प्रशंसनीय इतिवृत्त पाये जाते हैं। कवि की रचना के उदाहरण स्वरूप शाही मनसबदार अर्जुन गौड़ के वि० सं० १७१५ के धरमत के युद्ध में काम आने विषयक एक गीत उद्धृत किया जाता है।
गीत अरजन जी को महेसदास कृत
पालटताँ पतिसाहि रा पूतां, बिजड़ भाट निराट बजो । आफलि असपति अजण आबीयो, आंफली असपति गयो अजो ।। १ लोहा लाग नेम करि लालच, चगला खगां चढावे चाक । हुवा हुक आवीयो ही कै, हींसल गयो पाधरो हांक ।। २ राजा गौड़ रुक रस रौहे, ढोहे ढाहे लाल ढल । अजमल चालि आबियो अवरंग, अवरंग गइयो अजैमल ।। ३
दूजो पाल ऊरड़ियो द्रोमभि, थाट विडार ऊदार थयो । बाढि बढ़ाये घायतरण बीठल, गोड़ राय यम चाय गयो । ४
कल्याणदास बाघावत
कल्याणदास बाघजी लाखणोत के पुत्र और मेवाड़ के समेला ग्राम के निवासी थे। इनकी रचनात्रों में ‘वीर गीत’ और ‘गुण गोविन्द’ डिंगल काव्य का पता लगा है। गुण गोविन्द में कवि ने अपने परिचय में एक दोहा लिखा है-
बास समेले बाघतणा, लाखणोत कलियाण ।
गायो श्री गोबिन्द गुरण, पाए भगत प्रमाण ॥
‘गुण गोविन्द’ रचना का समाप्ति काल कवि ने विक्रम शतक १७०० दिया है। कवि की गीत रचनाओं के नमूने के लिए अर्जुन गौड़ पर कहा गया युद्ध गीत निम्न प्रकार है-
गीत रजनी को राव कल्याणदास जी को कह्यो
ऊजेणि, मंडफ जूध अवरंग मांडे, कगल केसरया अजै किया । तोरण थया तणा तरवार्यां थांम साबलां तरणा थया ।। १ गोड़ मोड़ बन्द ठोड़ गराजू, राजू सूरति सिरी रढ़ाल । दूलहणि जोय बीठल रो दुलही, मन ऊलही मेले बरमाल ।। २ चतुरंगी गवरंगी चातुर बर आतुर अजमेरि बर । घूंघट ढाल तणां घातिया, भाली तीछि कटाछि भर ।। ३
कैवर बाण जमूर अखित कढि, हाथ कीय जमदढ़ हथलेव । फिरि फिरि अफिरि कीय सूज फैरा, जोगणि घेरा राग जमेव ।। ४ खेत महल बीचि रहसि बहसि धकि, तिहसि मिहिसि कसि ऊसीस ताव । लोहा लाट लाल रंग लाडे, घट घट घाट ऊपरै घाव ।। ५
अड़ थड़मिरड़ भिरड़ झड़ अवझड़, नवड़ भवड़ बड़ बिनड़ नड़ । आवट कुट तुटि कसणावट, छूटि जड़ावटि फुटि छड़ ।। ६
ऊपछर हर षेचर भूचर अंग, लग आपोपण लाग लीया । त्याग दीया अजमल बड़ त्यागी, कारण बाद मुराद कीया ।। ७
साहा बदै न चूको सावा, राखे दहु राहा बिचि रेख । बड़ जानी जसमत बीछड़ता, बींद बींदणी मिले बिसेख ।। ८
हरदास भाट
हरदास भाट का एक डिंगल गीत राठौड़ों के किसी योद्धा के प्रतिशोध पर प्राप्त हुआ है। गीत में किसी योद्धा के नामादि का उल्लेख नहीं हुआ है, और न विरोधियों की जाति और नाम ही दिये गये हैं। ऐसी स्थिति में कवि नाम के अलावा अन्य परिचय अज्ञात है। गीत समूची राठौड़ जाति को लक्ष्य में रखकर उसकी प्रबल प्रतिशोध वृत्ति का सूचक है। गीत इस प्रकार है-
गीत राठौड़ा रौ हरदास भाट रौ कह्यों
देखे छक कमध रहे ताय दिन दस, केवियां मन अंजसो न कोय जोधा तणो वेर अंतक जिम, दांत करै सो बरसां दोय ।। १ मोसर पखे न मांगे मारु, वागे अवसर मांगे वेर । गहणो लहणो लीये दस गुणो, खल अंज से जागो मत खेर ।। २ पड़ियो खेत खेत चढ़ी पवंगे, आवै खढ़ि राठौड़ अचूक । लागो बेर लीये घड़ लोहां, भांजे सांध करे सत्र भूक ।। ३ मंडोवरा तणो वैर रिणमाथे, थको कदे नहिं जूनो थाय । रहियो घणो घणी जड़ घाले, जड़ामूल पिसणां घर जाय ।। ४ पाण सार परवार न पूजै, कूड़ा बड़ विणवाद करि । खाटे वेर सरस खैड़चा, आटे लूण जु हुवौ अरि ।। ५
कवि बख्तावरसिंहजी राव
कवि बख्तावरसिंहजी राव का जन्म चित्तौड़ परगने के चूण्डावतों के ठिकाने बसी में संवत् १८७० वि० में हुआ था। इनके पिता का नाम सुखरामजी था। सुखरामजी की अल्पायु में ही मृत्यु हो जाने के कारण इनकी शिक्षा-दीक्षा वसी के ठाकुर अर्जुनसिंहजी की देखरेख में हुई। श्री अर्जुनसिंहजी अपने समय के मेवाड़ के सरदारों में गण्य मान्य ठाकुर थे। स्वय कवि और काव्यमर्मज्ञ थे। कवि बख्तावरजी को भी प्रारम्भिक काव्य ज्ञान इन्हीं ठाकुर साहब से प्राप्त हुआ। फिर सयाने होकर वे उदयपुर आये। उदयपुर में मेवाड़ नरेश महाराणा स्वरूपसिंहजी के दरबार में पहुंचे। गुणग्राहक महाराणा ने इन्हें महियारी और डागड़ी नामक दो गांव, दरबार की बैठक, पांव में स्वर्ण और उदयपुर में मकान प्रदान कर राजकवि का सम्मान दिया। ये उदयपुर राजवंश की पांच पीढ़ियों तक बराबर राजा प्रजा के प्रिय बने रहे। उदयपुर के अतिरिक्त जोधपुर नरेश महाराजा यशवन्तसिंहजी और जयपुर महाराजा रामसिंहजी के यहां भी मेवाड़ की ओर से गये थे। विक्रमी संवत् १९५१ में इनका शरीरान्त हो गया।
कवि बख्तावरसिंहजी डिंगल और पिंगल दोनों में काव्य रचना करते थे। इनकी दस ग्यारह रचनाएं उपलब्ध हैं। डिंगल में इनके दोहे और गीत प्रति सरस रचनाएं हैं। अग्रिम पंक्तियों में इनकी रचना के लिए अप्रकाशित काव्य ‘महाराणा शंभू यश प्रकाश’ में से एक शृंगार गीत उद्धृत किया जा रहा है-
गीत श्रृंगार रस का
स्यामां अंधारी तीज री बीज बागणी छै सलावा री, दीपावली संभया जागणी छै कै दिसाण ।
धानकी अढार टकी चागणी छै धानंकी की,
नेह थाघणी छै किनां जोबनां निसाण ।। १
खीरोद भागणी ताराराणी छै भुमंक खंकी,
घुमंडी सांवणी रेख छागणी छै धनं । अंगीठी आवणी पांचै माघणी छै सेत अछी,
लूर फागणी छै किनां जियारी लगनं ।। २ सोव्रणी घागरणी छै कै खागणी छै चाढी सल्ला,
ढालों की ढागणी छै क उम्हागणी छै ढाल ।
पूफ परागणी छै रागणी छै साव्ह पंडै,
बसंत बागणी छै के नागणी छै बाल ।। ३
मजीठ रागणी के प्रीत पागणी छै सांच-मांची, भल्ले भागणी छै सौहे भागणी छै भात । ऊभी सामणी छै सोहे सैणां राज आराज रै आगे, हिये लागणी छै सो हींडाय लीजै हात ।। ४
कवि गुमानसिंहजी राव
गुमानसिंहजी राव उदयपुर राज्यवंश के प्रतिष्ठित दरबारी कवि बख्तावरसिंहजी राव के भतीजे थे। यद्यपि इनकी रचनाओं में डिंगल गीत और एक सपने की दवावेत ही अवलोकन में आई है पर प्राप्त फुटकर रचनाओं के प्रवलोकन से इनकी काव्य रचना शैली का बोध हो पाता है। नमूने के लिए इनका एक डिंगल गीत इस प्रकार है। -
गीत सुपंखरो सुपना को
आतां रात रै सुपन्नै हंजो हकी छी तीज र आरै, साज साजां झका ऊभकी छी सुभाग । मोसम्मा जोबनाँ छकी छी मिजाज मे लै,
मेलं धकाधकी छी जिसु धकी छी आडै भाग ।। १
दासियां छकी छी जिका रखी छी ओवळां दौळा, ऊरोलां नखी छी सरां चौसरां उतंस । घूंघटै ढकी छी टेढै़ सालुवै ढकी छी गात,
हाथां हथ झालियां थकी छी राज हंस ।। २ कामरी नजी की छी मोड़ झकी छी दहूं काँनी,
चखी छी नांचरवी छी छी आसवी छकेल । बूझतां तकी छी नांतकी छी व्है दूलरा बाजू,
बंकी छी कटाछ नेणां फंकी छी बकैल ।। ३ घूम दे रुकी छी लहजे लुकी छी झुकी छी गात, ऊफांणा आसकी छी चकी छी आराम ।
चखी छी उसां में नींद कणी सूं अचाणचकी, बाला बा लखी छी नालखी छी फेर बाम ।। ४
लेखक : सौभाग्य सिंह शेखावत (पुस्तक : "राजस्थानी निबंध संग्रह" - हिंदी साहित्य मंदिर, गणेश चौक, रातानाडा जोधपुर द्वारा 1974 में प्रकाशित)
History of Rao caste, History of Rao Rajput
