कहानी रनिवासों की | राजस्थान की रानियों के पत्र

Gyan Darpan
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जनानी ड्योढ़ी की राजस्थानी नारियों पर राजस्थान के प्राप्य इतिहस ग्रंथों में समुचित विचार अभी नहीं हुआ है। इतिहास ने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर सच्चाई के साथ विचार नहीं किया है। राजस्थानी राजमहलों की नारियों के जीवन का उदात्त पक्ष, कार्यकौशल, विवेक, साहस, विचार शक्ति और गुणों की झलक जनानी ड्योढ़ियों के उपलब्ध पत्रों में प्राप्त होती है। जनानी ड्योढ़ी के पत्र मोटे रूप में दो प्रकार के हैं - व्यक्तिगत और शासन सम्बन्धी। व्यक्तिगत पत्रों में सामाजिक समस्याओं, पारिवारिक सम्बन्धों तथा वैवाहिक आयोजनों और शासन सबंधी पत्रों में शासनादेश, युद्धादि घटनाओं के विवरण आदि उल्लेख्य विषय है।

जनानी ड्योढ़ियों के पत्र अत्यन्त ही सुन्दर सजावट में लिखित प्राप्त होते हैं। पत्रों के कोणों, मध्यभागों पर पुष्प, पत्र, लताएँ, भवन और पक्षी प्रतिमाएं चित्रित मिलती हैं। स्वर्णाक्षर, स्वर्ण के शक्करपारे, बूदें आदि बड़े चित्ताकर्षक होते हैं। रंग का टिकाऊपन इनकी अपनी विशेषता है। छोटे छोटे वाक्य, सुन्दर उपमाएँ राजस्थानी भाषा सामर्थ्य के अद्भुत नमूने हैं। पत्रों की गद्य पक्तियां काव्यसी सरसता से ओतप्रोत हैं।

यहाँ राजस्थान की जनानी ड्योढ़ियों के व्यक्तिगत और राजकीय पत्रों के कुछ उदाहरण दिये जा रहे हैं। इन पत्रों से राजस्थानी रनिवासों की नारियों के साहस, कार्यकुशलता, शासन में योगदान की शक्ति, परिस्थितियों को समझने और तदनुरूप कार्य करने की क्षमता आदि कतिपय बिन्दुओं की जानकारी उपलब्ध होती है और परदे की पुत्तलिकाओं से सम्बोधित की जाने वाली राजस्थानी महिलाओं को सही अर्थ में समझने की दिशा मिलेगी। परदे की मर्यादाओं का कठोरतापूर्वक पालन करते हुए उन नारियों ने जो साहसिक कार्य किए हैं, वे प्रकाश में आ सकेंगे।

यहाँ रनिवासों के पत्रों में सर्व प्रथम उदयपुर की राजकुमारी चन्द्रकुवरि के दो पत्र उद्धृत कर रहे हैं। चन्द्रकुंवरि महाराणा अरिसिंह द्वितीय की राजकुमारी और महाराणा भीमसिंह की जेष्ठ भगिनी थी। इनका महाराजा सवाई प्रतापसिंह जयपुर के साथ वाग्दान हुआ था। पाणिग्रहण से पूर्व ही सवाई प्रतापसिंह का निधन हो जाने से वह आजीवन अविवाहित रूप में ही वैधव्य ग्रहण किये रही। सवाई प्रतापसिंह के पुत्र महाराजा सवाई जगतसिंह उन्हें अपनी माता के समान सम्मान देते थे और जीवन निर्वाह के लिए जयपुर के राज्यकोष से उदयपुर द्रव्य भेजा जाता था। राजकुमारी चंद्रकुंवरि भी सवाई जगतसिंह को पुत्रवत् प्यार करती थी। चंद्रकुंवरि बड़ी उदार, दूरदृष्टा, साहसिक और सूझ-समझ वाली नारीरत्न थी। महाराना भीमसिंह के बाल्यकाल में उन्होंने होलकर, सिन्धिया आदि मरहठा सरदारों के आक्रमण के समय मेवाड़ की रक्षार्थ मेवाड़ के सामन्त-सरदारों को संगठित किया था। जयपुर नरेश महाराजा जगतसिंह को लिखित पत्र की प्रतिलिपि निम्न प्रकार है-

॥ श्री रामजी ॥ ॥ श्री ॥

स्वस्ति श्री स्वाई जेपुर म्हाँ सुभ सुथाने सर (ब) ओपमा बिराजमान सकल गुण जाण चवदे बीदा नीधान गुणगागर सुखसागर गुण (गं) भीर गुण की खान तप तेजवान बोहत बुधवान बोहत कलाप्रवीण अनेक सुख ओपमा लाईक म्हाराज धिराज श्री म्हांराज राजे राजेन्द्र श्री सवाई श्री श्री श्री श्री श्री जगतसींघजी च्रजीवो अम्रजीवो राज श्री ऊदेपुर सु लीखता भाभाजी श्री चंद्रकुवर बाई रा घणा हेत सु घणा बालेसा सु घणे मान सु वारणा मालम् वे (हुवै) आप बड़ा हो ईस्वर हो मारे (म्हारे) तो जु श्री भाईजी जी प्रम्णो बाला प्यारा श्री बेटा आप हो आप सीवाई ई स्हस्रा म्हे दुजी काही बात हे न्ही. आप रो द्रस्ण करसु जीं दीन जाण सु जो म्हारो मनख ज्मारो हे. फोज में असवारा सुणी जी दीन रो म्रो ( म्हारो) जीव आप हजुर हे जो श्री जी कुसी करेने जा चावा जा करे ज्दी जीव म्हे नोरात यावसी. अठा सु भाई अम्रसीघजी आप हजुर मेला है. जो आप हजुर आई व्होचे ने चारो पाछो जाब आवे जीही घड़ी श्री भाईजी आप तीरे पधारेगा य्या घणी जेत हे. आप असवार (हु) वा सुरणा जी प्र जीही रीत हुकम कीधो जोह तो अणीज रो आज असवार वे (ह्व) सुप्ण (पण) डेरा री स (ह) सेजाम (संजाम ) री त्यारी न्ही जणी सु दो दीन घणा दोरा ढाबा है. जो भाई अमरसीघजी रो जाब आवे जी घड़ी आप तीरे पधारा ज्णा (जरणां) सो सजे. रावजी रे खरची रो बेगो जतन कर मेलावसी. हर पेटा (पेटिया) रोजी वम्ण (ब्रामणां) क चद लीखे ज्णी माफक जरूर करे मेलावसी. मती पोस सुद ५ बुधे.

पत्र के हासिये के बाम भाग में महाराणा भीमसिंह के हाथ की निम्न इबारत है- श्री माराज हजुर राणा भीमसीघ् रो मुजरो मालम व्हे. भाई स्यदानसीघजी तो आगे ही हाजर ह (है) भाई राजा अमरसीघजी पुचेगा। मने बलावे की आप हजुर हे केबेगा ( कहेगा)।

पत्र में जहाँ सुन्दर उपमाएँ, साहित्यिक वैभव की छटा विकीर्ण करती है वहाँ ऐतिहासिक महत्व को भी प्रकट करने में सक्षम है। यह पत्र शाहपुरा के राजा अमरसिंह राणावत के साथ भेजा गया था। पत्र में महाराजा जगतसिंह और महाराणा भीमसिंह के भेंट करने के प्रयत्नों के संकेत है। संभवतः यह भेंट महाराणा भीमसिंह की राजकुमारी कृष्णाकुमारी का जगतसिंह के साथ विवाह सम्बन्ध तय करने के पश्चात् विवाह से पूर्व दोनों नरेशों के सम्मेलन के आयोजन की सूचक है।

कृष्णाकुमारी का विवाह सम्बन्ध जोधपुर के महाराजा भीमसिंघ के साथ तय हुआ था। परन्तु भीमसिंह की यकायक मृत्यु हो जाने और उनके उत्तराधिकारी महाराजा मानसिंह के स्वयं सम्बन्ध न रखने के कारण महाराजा जगतसिंह के साथ कृष्णाकुमारी का पाणिग्रहण तय हुआ था। जयपुर नरेश के साथ यह सम्बन्ध निश्चित होने पर महाराजा मानसिंह ने विवाह में रुकावट डाली और जयपुर तथा जोधपुर के मध्य पारस्परिक वैमनस्य उत्पन्न हुआ। अन्ततोगत्वा कृष्णाकुमारी के विषपान द्वारा प्राण त्याग करने पर ही यह विग्रह शान्त हुआ।

कृष्णाकुमारी के विवाह प्रसंग से सम्बद्ध चन्द्रकुंवरी का एक अन्यपत्र और प्रस्तुत है। पत्र में टीके का नारियल समय पर जयपुर न पहुंचाने के लिए शाहपुरा नरेश को गहरा उपालम्भ दिया गया है।

॥ श्री रामजी ॥

स्वस्ति श्री राजाजी भाई श्री अमरसीघजी सु श्री जीजीबाई रा वारणा बचे. भाई ईत्रा दीन वा नारेल ऊठे राखे मेला ने सज राव री फोज ईत्री काही भई (भय) हे ने आप सरदार हो जो फोजरा अटका नुगता रो काम रेजावो. जो भाई इक हीज तो गेलो तो नही हे. प्ण श्री भाईजी रा हुक्म रा चाक्र (चाकर) न्ही दीसो जो पटेल रो जाब आप मगायो जो नारेळ मेला के दो दीन अटकाया जो साबास है. आप श्री राणाजी रा भाई न्ही हो. सगतावत चुडावत हो जो ईस्यो सोरो दोरो राखो. राणावत जात न्ही है. ईसो बीचारणी सला न्ही है. जीं प्र सारा सरदार नटे तो आप डीला ही जाणो. के जाबता सु नारेळ जरुर पोचाव जो. यी बात री आपने तो चोगणी जेत चाहीजे. जो य्या जाणणी जो श्री दीवाणजी राजी जींहीं करणी. ईत्री बात में आपने सोभा है. नीत्र नारेळ कींरा अटका रे (रहे) प्ण (परण) यापरी (आपरी) देख्णी हे. जो अबे ढील नहीं करेगा. म्ती फागरण ब्दी ४ गरु.

चन्द्रकंवरी का जयपुर और उदयपुर दोनों राजपरिवारों में पूरा पूरा प्रभाव था। उदयपुर महाराणा भीमसिंह की ओर से जागीर आदि देने के पत्रों से राजकाज में चन्द्रकंवरी का प्रभाव परिलक्षित होता है। शाहपुरा के राजा अमरसिंह को जहाजपुर परगने की चाकरी माफ कर आय के छटांश में से चतुर्थांश लेने की व्यवस्था का प्रदेश पत्र दृष्टव्य है-

स्वस्ति श्री भाई राजाजी श्री अमरसीघजी चीरनजीवो. जीजी बाई श्री चांदजी लीखता वारणा बांचसी. अप्रंच आपके जाजपुर की चाकरी ही सो तो माफ करी. जीं की येवज का वा छटुद का रुपा ६०००) छ हजार ठहरचा. जी महसु रुपीया ४०००) चार हजार तो सदीव आप नख (नखै) सु कर लेस्य अर रुपया २०००) दो हजार मदरचा आप नख सुला (लें) नहीं. मारो (म्हारा ) बचन है. श्री भाईजी रा आण है. तफखद सरबदा व (व्है) नहीं । मती सावण सुद ११ गरूवार.

लेखक : सौभाग्य सिंह शेखावत (पुस्तक : "राजस्थानी निबंध संग्रह" - हिंदी साहित्य मंदिर, गणेश चौक, रातानाडा जोधपुर द्वारा 1974 में प्रकाशित)


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