राजस्थानी जनानी ड्योढ़ियां अपने आप में एक स्वायत्त संस्था कही जा सकती है। एक राजा के एक से अधिक रानियां होती थी। उनके निवास के लिए एक से अधिक ड्योढ़ियां भी होती थी और एक ही जनानी ड्योढ़ी में उन रानियों के अलग-अलग महल भी होते थे। अलग अलग महलों का निर्माण राजाओं में बहु विवाह के कारण रहा है। बहु विवाह प्रथा के गुण दोषों पर यहां विचार करना उचित नहीं है। किन्तु मध्य काल में केवल भोग-विलास के निमित्त ही बहु विवाह का प्रचलन मानना एक पक्षीय दृष्टिकोण कहा जाएगा। तब बहु विवाह युग की आवश्यकता थी और उसी आवश्यकता के कारण यह प्रथा प्रारम्भ हुई थी। बहु विवाह के कारण कभी-कभी समाज, स्वयं विवाह करने वाले व्यक्ति और उसके उत्तराधिकारियों तक को भयानक परिणाम भोगने पड़े हैं। बहु विवाह के दुष्परिणामों से बचे रहने के लिए राजस्थान में ‘सती-प्रथा’ की किसी सीमा तक आवश्यकता मानी जा सकती है। जनानी ड्योढ़ी में राजा की राजमाताएँ, राजरानियां उनकी सहेलियाँ, डावड़ियां, धाएँ बडारिनें, पासवानें और नाजर आदि परिचारक परिचारिकाएँ रहती थी। राजमाताओं और रानियों के निवास, भोजनालय स्नानागार, सभा- भवन, कोठियार, विनोदभवन आदि के अलग-अलग महल होते थे। राज- माताओं और रानियों के महल एक ही जनानी ड्योढ़ी में होते हुए भी एक दूसरे के महलों से सर्वथा स्वतन्त्र और अप्रभावित होते थे। जनानी ड्योढ़ी की रक्षा, व्यवस्था और व्यय के लिए जागीरियाँ अथवा निश्चित नकद राशि की व्यवस्था होती थी। जनानी ड्योढ़ी का पदाधिकारी ड्योढ़ी का दारोगा कहलाता था। रणिवास की रक्षा आदि के समस्त प्रबन्ध का दायित्व इसी दारोगा सम्बोधनधारी व्यक्ति पर होता था। यह व्यक्ति सुकुलीन, राजा का अत्यधिक विश्वस्त, चतुर और बुद्धिमान होता था। द्वार रक्षकों के कर्तव्यों पदोन्नत, पदावनत तथा पृथक्करण आदि में उसी की सम्मति सर्वोपरि मानी जाती थी। राजाओं की राजमाताओं और रानियों की जागीरी के आय-व्यय, वार-त्योंहारों, उत्सवों आदि के प्रबन्ध के लिए प्रत्येक राजमाता अथवा रानी के अलग-अलग कामदार नियुक्त रहते थे। कामदार, द्वाररक्षाधिकारी और राजमाताओं तथा रानियों के मध्य वार्तालाप का माध्यम बडारनें, डावड़ियें एवं परिचारिकाएँ होती थी।
रणिवास में उन्हीं जागीरदारों, राजकर्मचारियों और प्रजाजनों की नारियां आ-जा सकती थीं जिन्हें राजा द्वारा आने-जाने की स्वीकृति प्राप्त होती थी। पुरुषों की भांति ही रानियों को भी आगन्तुक जागीरदारों की पत्नियों के आवागमन पर ताजीम देनी पड़ती थी। इकेवड़ी ताजीम, दोवड़ी ताजीम, बाँह पसाव आदि कई तरह की ताजी में होती थी। जिसके लिए जो सत्कार, बैठक, पान आदि की जैसी परम्परा प्रचलित थी उसी के अनुरूप उनको सम्मान दिया जाता था। पुरुषों में से राजकुमार और राजा से छोटी आयु और कायदे के राजपरिवार के सदस्य ररिणवास में जिस राजमाता अथवा रानी की सेवा में दर्शनार्थ उपस्थित होना चाहते तो उससे पूर्व उनकी स्वीकृति प्राप्त कर भेंट कर सकते थे। भेंट के समय परिचारिकाएँ सेवा में उपस्थित रहती थीं।
राजमाताओं और रानियों की सेविकाओं के लिए रणिवास से बाहर आवासगृह होते थे जिन्हें ‘नोहरे’ नाम से पुकारा जाता था। नोहरे राजकीय मकान होते थे। जिन सेविकाओं की दिन में सेवा-पारी होती थी वे रात्रि में नोहरों में अपने परिवार के साथ रहती थी। सेवा चाकरी की पारी पाक्षिक अथवा मासिक बदलती रहती थी।
राजमाताएं और रानियां भी आपस में बहुत कम अवसरों पर मिलती भेंटती थी। राजा की जन्मतिथि, दीपावली, होलिका, विजयादशमी, गनगौर आदि उत्सव पर्व तथा राज-परिवार के सदस्यों के विवाह आदि मांगलिक अवसरों पर ही राजमाताएं और रानियां अमूमन एक जगह सम्मिलित होती थीं। राजपरिवारों के कुरब-कायदों का सतर्कतापूर्वक पालन किया जाता था। कुरब कायदों के बंधनों और छोटी-बड़ी के प्रतिष्ठा भेदों के कारण भी जनाने सदस्यों का एकत्र होना संभव नहीं होता था। रानियों में भी छोटी, बड़ी और पट्टरानी आदि के मान-सम्मान के नियम निर्धारित होते थे। पट्टरानी का सब रानियों में रुतबा होता है। पट्टरानी का पद राजा स्वेच्छा से भी प्रदान करते थे और परम्परा प्रचलित नियमों से भी स्वतः प्राप्त होता था। यदि किसी राजा का उदयपुर, जयपुर, बूँदी, जैसलमेर और सिरोही राजवंशों की राजकुमारियों के साथ विवाह होता था तो पट्टरानी का पद उल्लिखित घरानों की राजपुत्रियों को क्रमशः प्राप्त होता था। यदि उदयपुर में विवाह नहीं हुआ हो और जयपुर राजकुल की कन्या से हुआ हो तो पट्टरानी जयपुर की राजकुमारी होती थी। उदयपुर और जयपुर दोनों में विवाह नहीं हुआ हो और सिरोही, जैसलमेर, बूंदी की राजपुत्रियों के साथ हुआ हो तो क्रमशः बूंदी, जैसलमेर, और सिरोही की राजकुमारियों को पट्टरानी का पद प्राप्त होता था। पट्टरानी का सम्मान विशेष राजकीय आयोजन द्वारा प्रदान किया जाता था। यज्ञ, अनुष्ठान अथवा मांगलिक-धार्मिक कार्यों में पट्टरानी ही राजा के साथ यज्ञायाादि में साधिकार भाग लेती थी।
राजस्थानी रजवाड़ों में ‘बरात’ तथा ‘डोला’ दोनों ही प्रकार के विवाह प्रचलित थे। डोला का रिवाज संभवतः मुलसमान काल की देन है। डोला भेजने और स्वीकार करने के भी भिन्न भिन्न राज्यों में भिन्न भिन्न नियम थे। डोला - विवाह में कन्यापक्ष वाले निश्चित स्थान पर कन्या को लाते थे और वर जिसका जैसा नियम होता था उसी के अनुसार पाँच दस अथवा बीस कोस सम्मुख जाकर पाणिग्रहण करता था। हिन्दुओं में वैश्यों में आज भी ‘बैठा’ विवाह जिसे कहा जाता है वह बहुत कुछ अंशों में ‘डोला’ का ही स्वरूप है । डोला (दोला) पालकी को कहते हैं। किन्तु वह पालकी के मूल अर्थ को त्याग कर विवाह के अर्थ में प्रचलित हो गया है।
जनानी ड्योढ़ी की रानियाँ महारानियाँ जहाँ संगीत, नृत्य, वादन, चित्रकला और काव्य इतिहास की ज्ञाता होती थीं वहाँ अश्व संचालन, शस्त्रविद्या आदि साहसपूर्ण कलाओं में भी निपुण होती थीं। वे राजमहलों का श्रृंगार और राजा महाराजा की भोग्य सामग्री मात्र नहीं होती थीं। युद्ध, विग्रह आदि संकटकाल में अपनी जनानी सेना संगठित कर किलों के मोर्चे सम्हालती थीं। अपने स्वामी को कुल गौरव की रक्षा के लिए प्रेरित करती थीं। संधि-विग्रह के समय महत्वपूर्ण मंत्ररणाओं में भाग लेती थीं और शान्तिकाल में ताल-तड़ाग, कूप-वापिकाएँ, और मंदिर - पांथशालाओं का निर्माण कर जनोपयोगी कार्य करती थीं। निराश्रय, निर्धन और गरीब कन्याओं के विवाह आदि में अर्थदान करती थीं। अपने पति अथवा पुत्र के युद्ध में उलझे होने पर अथवा सुदूर प्रांतों में आवास करने के दिनों में पीछे राज्य कार्य को सुव्यवस्थित रूप में संचालित रखने के लिए प्रयत्नरत रहती थीं। पति की मृत्यु के पश्चात् अपने अवयस्क पुत्र नरेश के अभिभावक रूप में राजकर्मचारियों की नियुक्ति, पृथक्करण आदि कार्यों का संचालन भी करती थी। मेवाड़ में शिशु नरेश की ओर से शासन चलने वाली राजमाता ‘बाईजीराज’ सम्बोधन से अभिहित की जाती रही है। महाराणा भीमसिंह की माता झालीजी सरदारकुवरि उनके बाल्यकाल में ‘बाईजीराज’ अभिधेय से प्रसिद्ध रही है। राजमाताएँ और महारानियां युद्धभूमि में योद्धाओं की भांति शत्रुओं से दो दो हाथ करने में भी पीछे नहीं रही है। आमझरा की राजमाता कछवाही किशनावती, झांसी की महारानी लक्ष्मीबाई, मेवाड़ की राजमाता कर्मावती हाड़ी, इन्दौर की राजमाता अहिल्या बाई आदि कतिपय वीरांगनाएँ पौरुष और पराक्रम में प्रसिद्ध रही है। राजमाताएँ और राजरानियाँ ही नहीं राजाओं की पासवानों ने भी शासन संचालन में उल्लेखनीय योगदान दिया है। महाराजा जसवंतसिंह प्रथम जोधपुर को युवराज पद पर अभिषिक्त करवाने की भूमिका तैयार करने वाली अनारा बेगम महाराजा गजसिंह की पासवान थी। महाराजा विजयसिंह जोधपुर की पासवान गुलाबराय महाराजा सावंतसिंह किशनगढ़ की दासी बनींठनीं और महाराजा जगतसिंह जयपुर की बदनाम पासवान रसकपूर आदि भली-बुरी नायिकाओं के गुण-दोषों की कहानियां प्रचलित है। राजमहलों की बडारनों, धायों और परिचारिकाओं में जयपुर की रूपा बडारन, चित्तौड़ की पन्नाधाय और उदयपुर की रामप्यारी सामान्य परिचारिका के स्थान से अपनी स्वामिभक्ति, त्याग और संगठन शक्ति के बल पर प्रातः स्मरणीय बन गई। रामप्यारी बडारन ने तो अपने ‘रिसाला’ के बल पर मेवाड़ मरहठा संघर्ष में महत्त्वपूर्ण कार्य किया था।
जनानी ड्योढ़ी की नारियाँ जहाँ युद्ध, संधि और राजकाल में अपने बुद्धि कौशल का परिचय देने में सक्षम रही है वहाँ साहित्य-साधना द्वारा भगवती भारती के भंडार को काव्य-कुसुमों से श्रृंगारित करने में भी अग्रणी रही है। अमरकोट की राजकुमारी सोढ़ीनाथी, जैसलमेर की राजपुत्री चम्पादेवी, अलवर की राजमाता रूपकंुवरि, सीकर की राजमाता आनन्द कुंवरि राणावत, जोधपुर के विद्याविलासी नरेश मानसिंह की महारानी प्रतापकुंवरि भटियाणी, महाराजा प्रतापसिंहजी ईडर की महारानी रत्नकुंवरि भटियाणी, महाराजा तख्तसिंह जोधपुर की महारानी ब्रजभानकिशोरी, भरतपुर की राजमाता गिरिराजकुंवरि और महारावराजा रघुवीरसिंह बूंदी की महारानी सौभाग्यकुंवरि ऐसी ही उदात्त चरित्र कवयित्रियाँ हो चुकी है। राजस्थान की लोकनिधि मीरांबाई और रावळ मल्लिनाथ की रानी रूपांदे आज भी भक्तजनों की पूजा हैं। उल्लेखित विदूषियां जनानी ड्योढ़ियों में ही जनमी, पढ़ी नारियां थी।
लेखक : सौभाग्य सिंह शेखावत (पुस्तक : "राजस्थानी निबंध संग्रह" - हिंदी साहित्य मंदिर, गणेश चौक, रातानाडा जोधपुर द्वारा 1974 में प्रकाशित)

