राती घाटी का युद्ध – जब बीकानेर ने मुगलों को दी थी मात | भारत का भूला हुआ स्वर्णिम अध्याय

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भारत के मरुस्थल की रेत पर लिखा गया था एक ऐसा इतिहास...जिसे आज भी रेगिस्तान में चलने वाली गर्म हवाएं गर्व से सुनाती है — राती घाटी का युद्ध, जहाँ बीकानेर के वीरों ने मुगल बादशाह बाबर के पुत्र कामरान को पराजित कर दिया था।

यह केवल एक युद्ध नहीं...बल्कि भारतीय साहस, रणनीति और स्वाभिमान का अमर प्रतीक था। पर अफ़सोस इस युद्ध को वो प्रसिद्धि नहीं मिली जिसका वह हक़दार था. इसका कारण बताते हुए डॉ गोपीनाथ शर्मा अपनी पुस्तक "राजस्थान का इतिहास" में लिखते हैं कि - इस युद्ध का वर्णन मुस्लिम इतिहासकारों ने पुरे रूप से संभवत इसलिए नहीं दिया है कि इस आक्रमण में कामरान की पराजय हुई थी|"

और आप तो जानते ही हैं कि कथित सेकुलर भारतीय इतिहासकारों ने वही सच माना जो बाहरी या मुस्लिम इतिहासकारों ने लिखा | पर धन्य है बिठू जी सूजा कवि जिन्होंने इस युद्ध पर एक शानदार काव्य रचना "राव जैतसी रो छंद" लिखी |

इस काव्य रचना पर इतिहासकार डॉ गोपीनाथ शर्मा अपनी पुस्तक राजस्थान का इतिहास में लिखते है कि - इस काव्य में 16 वीं शताब्दी के जनजीवन, मारवाड़ की समृधि और उस समय की भाषा पर अच्छा प्रकाश पड़ता है | कवि ने एक और मुगलों की विजय पिपासा का और दूसरी और राजपूतों के स्वाभिमान, देश प्रेम की भावना और त्याग का सुन्दर ढंग से वर्णन किया है.

वर्ष था 1534...बीकानेर राज्य की स्थापना को केवल 45 वर्ष हुए थे।

राज्य के सिंहासन पर विराजमान थे —राव जैतसी, एक महान योद्धा, दूरदर्शी शासक और कुशल रणनीतिकार। डॉ. जानकी नारायण श्रीमाली के शब्दों में —“राव जैतसी का शासन बीकानेर का स्वर्ण युग था। उन्होंने मरुभूमि में जलस्रोत बनाए, जनता को राहत दी, और मुगल आक्रांताओं से सीमा की रक्षा की।”

डॉ. जानकी नारायण श्रीमाली के अनुसार इस कहानी की पृष्ठभूमि बनी थी खानवा का युद्ध (1527)। राणा सांगा की सहायता के लिए

राव जैतसी ने अपने पुत्र कल्याणमल को तीन हज़ार घुड़सवारों सहित भेजा था। उन्होंने बाबर के तोपखाने पर नियंत्रण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। और यही बात बाबर को अखर गई... क्रोधित बाबर ने उसी समय अपने पुत्रों को आदेश दिया था —"मौका पड़ने पर बीकानेर को सबक जरुर सीखना!"

26 अक्टूबर 1534 को कामरान 25,000 प्रशिक्षित सैनिकों, सशक्त तोपखाने और 1,000 विशिष्ट अफ़सरों के साथ लाहौर से रवाना हुआ।

उसका पहला निशाना था — भटनेर का किला। कवि विठू सूजा लिखते हैं —“भटनेर का किला बिजली से गिद्ध पक्षी के घोंसले की भाँति नष्ट हुआ।” वीर खेतसी काँधलोत और उनके 1,000 योद्धाओं ने

साका और जौहर किया — पर आत्मसमर्पण नहीं किया।

कामरान आगे बढ़ा और सौभागदीप दुर्ग (आज का श्रीलक्ष्मीनाथ मंदिर परिसर) को घेर लिया। भोजराज रूपावत और उनके 2,500 वीरों ने दिनभर प्रतिरोध किया, पर रात्रि तक दुर्ग टूट गया।

कामरान ने विजय उत्सव मनाया…पर उसे क्या पता था —असली युद्ध तो अब शुरू होगा! राव जैतसी ने पूरे नगर को खाली करवा दिया था। कामरान को मिला एक “सूना बीकानेर”। परंतु अंधेरी रात में… मरुस्थल की रेत पर आग सी चमकी —राजपूतों की छापामार रणनीति।

उन्होंने अपनी सेना को 108 दलों में बाँटा, जिनमें 54 राठौड़ सेनापति थे। उनके साथ मारवाड़, झाबुआ और ईडर के योद्धा भी सम्मिलित हुए। उनका युद्धघोष था —📣 “राम-राम!”

यह केवल नारा नहीं… बल्कि बाबर द्वारा राम मंदिर के अपमान का प्रतिशोध था। राव जैतसी ने अपनाई एक नई रणनीति —प्रतिचक्र व्यूह रचना। 13 से 17 वर्ष के युवाओं को, जयमल (जो आगे चलकर चित्तौड़ के नायक बने) और उनके पुत्र कान्त के नेतृत्व में मुगल शिविर पर रात्रिकालीन आक्रमण के लिए भेजा गया।

अचानक हमला हुआ, मुगल सेना विचलित हो गई, चारों ओर आग, शोर और रणघोष गूंज उठा। राव जैतसी की सेना ने कामरान के शिविर तक पहुँचकर ध्वस्त कर दिया। कामरान को बचाने आया मुगल सेनानायक आफ़ताब, रणभूमि में वीरगति को प्राप्त हुआ। कामरान ने भागते हुए चिंतामणि पार्श्वनाथ मंदिर को तोपों से उड़ा दिया, परंतु अब युद्ध उसके हाथ से निकल चुका था।

राव जैतसी ने अपनाई एक और बुद्धिमत्ता —मनोवैज्ञानिक युद्धनीति। उन्होंने ग्रामीणों को आदेश दिया —“अपने बैलों के सींगों पर मशालें बाँधो, ऊँटों पर तीन-तीन मशालें लगाओ, ढोल-नगाड़े बजाओ!”

दूर से लगा जैसे हजारों सैनिक बीकानेर की ओर बढ़ रहे हों। मुगल सेना भयभीत होकर भाग निकली! और इस प्रकार राती घाटी का युद्ध समाप्त हुआ —मुगलों की पराजय के साथ, भारतीय स्वाभिमान की विजय के साथ।

राव जैतसी ने बंदी बनाई गई महिलाओं और पशुओं को मुक्त कराया।

राज्य में कई दिनों तक उत्सव मनाया गया। कवि विठू सूजा ने इस युद्ध पर 401 पदों की डिंगल रचना की। 1919 में डॉ. एल.पी. टेसीटोरी ने इसका अंग्रेज़ी अनुवाद किया। इस घटना पर मुंहता नैंसी, दयालदास जैसे ख्यातकारों और इतिहासकार डॉ गोपीनाथ शर्मा और डॉ गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने भी अपनी पुस्तकों में लिखा  

और डॉ. जानकी नारायण श्रीमाली, नरेंद्र सिंह जी बीका के प्रयासों से 1990 में राती घाटी अनुसंधान एवं विकास समिति ने इसे पुनर्जीवित किया और 2012 में यह राजस्थान के विद्यालय पाठ्यक्रम में सम्मिलित हुआ।

राती घाटी का युद्ध...केवल बीकानेर की विजय नहीं थी —यह भारत की आत्मा की जीत थी। यह सिद्ध करता है कि —जब भी भारत की भूमि पर संकट आया, राजस्थान की रेत से वीरता की ज्वाला उठी है।

नमन उन वीरों को, जिन्होंने राती घाटी की धरती पर भारत का गौरव अमर कर दिया।

📜 “राती घाटी का युद्ध – भारत की अदम्य भावना और राष्ट्रीय स्वाभिमान का अमर प्रतीक।”


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